Day: September 23, 2021
Hazrat Salman Farsi Radiallahu anhoo
Zikr e Sayyidah Sakinah bint Imam Hussain AlahisSalam
खिलाफ़त के बाद की जंग


सबसे पहले आप सबका ध्यान एक ज़रूरी नुक्ते की तरफ़ लाना चाहूँगा। शिया-सुन्नी के दायरे से अगर हम ऊपर उठकर देखें तो ये बात हर मसलक का मुसलमान मानता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम, अपनी शुजाअत के लिए मशहूर हैं और वह जंग लड़ने में हमेशा आगे रहते थे। चाहे जंग ए बद्र हो, चाहे ओहद, ख़न्दक हो या खैबर, हर जंग का मैदान, इस बात का गवाह है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जंग में हमेशा ना सिर्फ़ बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया बल्कि फ़ह भी दिलाई।
लेकिन इस बात का जवाब लोगों के पास नहीं है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो मौला अली अलैहिस्सलाम, रसूलुल्लाह की फौज़ अलमदार और सालार बन जंग किया करते थे, उन्होंने तलवार चलाना छोड़ दी?
ऐसा नहीं की आप अली अलैहिस्सलाम कमजोर या बीमार हो गए थे क्योंकि ख़िलाफ़त मिलने के बाद आपने तीन बड़ी जंग लड़ी। फिर ऐसा क्या हुआ कि मौला ने रसूलुल्लाह के पर्दा फरमाने से लेकर जाहिरी खिलाफ़त मिलने तक कोई जंग नहीं लड़ी?
ऐसी क्या वजह थी, क्या नाराज़गी थी, जो शख्स, असदउल्लाह कहलाता था, वह खामोश और तन्हा क्यों हुआ, इन सवालों के जवाब देने से अक्सर उलेमा बचते हैं और ऊपर से ये भी कहते मिल जाते हैं कि इन बातों से बिखराव होगा। अजीब बात है हक़ कहने से अगर बिखराव होगा तो इसका मतलब ये निकलता है कि लोग नाहक़ को हक़ मानकर बैठे हैं।
मौला अली अलैहिस्सलाम ने ख़िलाफ़त मिलने के बाद तीन जंग लड़ी, जंग ए जमल, जंग ए सिफ्फीन और जंग ए नहरवान। मौला ने किसी भी जंग की शुरुआत खुद नहीं की लेकिन जबर्दस्त जवाबी कार्यवाही ज़रूर की।
शिया और सुन्नी दोनों मसलकों के हर बड़े आलिम ने ये माना है कि तीनों जंग में अली ही हक़ पर थे, बाकि जो भी उनके मुकाबले में आए वह नाहक़ पर थे। अहले सुन्नत एक बात और जोड़ती है कि जिस वक्त अली के मुकाबले में थे, उस वक्त नाहक पर थे यानी अगर बाद में तौबा कर ली हो तो अल्लाह माफ़ कर देगा।
मौला अली अलैहिस्सलाम की ये तीनों जंग भी आप तारीख़ की किताब में तफसीर से पढ़ सकते हैं। मैं यहाँ सिर्फ उन बातों को उठा रहा हूँ जो मेरे मौला की फजीलत बताती हैं या शायद जिन्हें समझकर, शिया
सुन्नी इख्तिलाफ़ ख़त्म किया जा सकता है।
सबसे पहली बात ये कि मौला अली अलैहिस्सलाम ने ख़लीफा बनते ही, सबसे पहले हज़रत उस्मान राज़िअल्लाह को शहादत की जाँच करने हुक्म दिया लेकिन अफ़सोस कि मुआविया जैसे चंद लोगों ने हज़रत अली पर ही कत्ल ए उसमान में शरीक होने के इल्जाम लगाए।
हर जंग में बुनियाद तो हज़रत उसमान के बदले और उनके लिए इंसाफ़ माँगने को बनाया गया लेकिन हकीकत में मुआविया को किसी भी तरह ख़िलाफ़त चाहिए थी। ये बात ऐसे भी साबित होती है कि मुआविया, हज़रत उसमान के नाम पर हज़रत अली से जंग करता रहा लेकिन जब खुद ख़लीफा बना तो उसने कभी कत्ल ए उसमान के मुद्दे पर कुछ ना किया, ना ही कभी नाम लिया।
ये जो जंग, शिया-सुन्नियों के बीच चली आ रही है, उसमें दलीलों से दलीलें तो कम टकराती हैं लेकिन आयतों से रिवायत, तारीख़ से अकीदे ज़्यादा टकराते हुए दिखते हैं और हम बस अपने-अपने अकीदे को थामकर बैठे हैं, हक़ से दूर और बेख़बर।
मैंने खुद कुछ आलिमों को ये तक कहते सुना है कि कुरआन और हदीस पढ़ो, तारीख़ मत पढ़ो, वरना गुमराह हो जाओगे। क्या तारीख़ गुमराह कर सकती है?
दरअसल जब आप तारीख़ पढ़ोगे तो आप में इल्म आएगा, आप हक़ जानोगे तो सवाल करोगे और ज्यादातर उलेमा को तकरीर पर सुब्हान’ अल्लाह कहने वाले लोग चाहिए हैं, सवाल करने वाले नहीं। सवाल भी तो ऐसे सवाल कि जिनका जवाब देना, इनके लिए नामुमकिन है।
आप तारीख़ देखोगे तो खुद जानोगे कि कौन हज़रत अली को गाली देता था और दिलवाता था, कौन आप को उसमान का कातिल बताकर,
लोगों को भड़काता था, किसने ऐसे खुत्बे देने कहा था, जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की झूठी बुराईयों से भरे हुए थे, किसने अम्मा आयशा राज़िअल्लाह को भड़काया था, सुलह ए हसन किसने तोड़ी थी, हज़रत हुसैन के ख़िलाफ़, यजीद के हक में बैत, किसने ली थी?
सारे सवालों का जवाब, तारीख़ में मौजूद है। आज मुझसे कुछ सुन्नी भाई कहते हैं शिया, सहाबा को गाली देते हैं इसलिए काफिर हैं। अहले सुन्नत, हज़रत अली को सहाबा मानते हैं और ये भी हदीसों में लिखा है कि मुआविया उन्हें गाली देता भी था और दिलवाता भी था, अब इसे मैं क्या कहूँ कि १४०० साल बाद किसी सहाबा को गाली देने वाला तो काफ़िर है लेकिन हज़रत अली के दौर में हज़रत अली को गाली देने वाला राज़िअल्लाह?
मैंने जब शिया-सुन्नी दोनों मसलकों को पढ़ा तो ये बात सामने आई कि सहाबा को गाली कोई नहीं देता, हाँ कुछ तारीख़ में ऐसे लोग हैं जिन्हें सुन्नी सहाबा मानते हैं और शिया सहाबा ही नहीं मानते। मसलन के तौर पर मुआविया को ही ले लें, इन्होंने तारीख़ में जो भी कुछ किया है, सुन्नियों में भी बहुत सारे लोग इन्हें सहाबा नहीं मानते हैं।
अहले सुन्नत के बुजुर्गों ने हमेशा ये नसीहत की है कि जब भी मुआविया का नाम आए खामोश रहो यानी ना अच्छा कहो और ना बुरा लेकिन लोगों ने इनकी फजीलतें बना बनाकर बयान करना शुरू कर दिया। अब तो कुछ लोग बेगुनाह, बेख़ता तक कहने लगे जबकि अहले सुन्नत का भी अकीदा, ये ही है कि मुआविया ख़ता पर थे इसलिए मौला अली अलैहिस्सलाम से जंग की।
अगर हम गलत को भले ही गलत ना कहते लेकिन अगर हमने हक़ को हक़ भी कहा होता तो फ़िरके बनते ही नहीं। मसलन के तौर पर फ़दक का मसला ही ले लीजिए, मैं ये नहीं कह रहा कि क्यों नहीं दिया लेकिन ये बात चाहिए कि अगर फातिमा तन-ज़हरा ने कहा था मेरा हिस्सा
है, तो उनका ही हिस्सा था और उन्होंने माँगा था, तो उन्हें इज्जत से देना चाहिए था।
अब लोग लग जाते हैं साबित करने कि फ़दक, फातिमा सलामुल्लाह अलैहा का हिस्सा ही नहीं था और बहस करते हैं, जिससे दूरियाँ बढ़ती हैं, भले ही ख़लीफा को आप गलत ना कहें लेकिन ये मानना होगा कि फातिमा सलामुल्लाह अलैहा को हिस्सा ना देना, बड़ी गलतियों में से एक है, हदीसों में आता है कि आप ख़लीफा, अम्मा फातिमा से माफी माँगने भी गए थे।
अम्मा आयशा राज़िअल्लाह, उम्मुल मोमिनीन हैं और माँ के कदमों पर हमारी जान कुर्बान, यहाँ मैं शियाओं से चाहता हूँ कि गलती से भी अम्मा आयशा के लिए बेअदबी भरे अल्फाज़ ना निकालें। माँ तो माँ होती है। वैसे अहले सुन्नत का अकीदा है कि मुआविया ने ये कहकर भड़काया था कि हज़रत अली, अपनी ताक़त के जोर पर मुसलमानों को डराकर हुकूमत ले लिए और कत्ले उसमान में शरीक़ हैं, ऐसे में आपको नबी की बीवी होने के लिहाज़ से हक़ बचाना चाहिए।
अहले सुन्नत ये भी मानते हैं कि एक मुकाम पर जब आप पर कुते भौंके तो आपको रसूलुल्लाह सल्लललाहु अलैहे वसल्लम की बात याद आ गई लेकिन लोगों ने आपको फिर गुमराह करने की कोशिश की, उन्हें आपके साथ की ज़रूरत थी।
अहले सुन्नत का मसलक़ ये भी मानता है कि अम्मा आयशा को गलती का एहसास भी था और वह रो रोकर तौबा किया करती थीं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने भी जंग ए जमल पर काबू पा जाने के बाद, आप अम्मा आयशा राज़िअल्लाह को बाइज्ज़त घर पर छुड़वाकर, हमें बता दिया कि वह इस मसले पर हम सबसे क्या चाहते हैं।
हज़रत अबु-बक़र राज़िअल्लाह के बेटों का हज़रत अली की तरफ़ से अपनी बहन के मुकाबिल खड़े होना भी एक बहुत बड़ा सबूत है कि हक़ का साथ देते वक्त सिर्फ़ हक़ देखा जाता है, शरुसियात देखकर हक-नाहक का फैसला नहीं होता।
हज़रत अली पर कत्ल ए उसमान का झूठा इल्जाम लगाने वाले शख्स ने ढेरों आशिक ए अली, मौला के गुलामों, यहाँ तक कि खुद मौला अली और मौला अली की औलादों को शहीद करने की साजिश रची हैं।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इन तीनों जंग में भी शेर की तरह हमले किए हालाँकि आपकी उम्र ज्यादा हो चुकी थी लेकिन आपकी कुव्वत देखकर दुश्मन, तब भी काँप जाते थे। इन्हीं जंगों के बीच आपने ख्वारिजो की फौज़ यानी खारज़ियों से भी जंग की।
आप इमाम अलैहिस्सलाम ने जाहिरी ख़िलाफ़त बहुत कम वक्त के लिए की और उसमें भी ज़्यादा वक्त, जंगों में गुज़र गया, अफ़सोस कि ये उम्मत आपसे इल्म और कामयाबी के रास्ते ना ले सकी बल्कि आपको सताने में ही लगी रही।
अगर आप शिया और सुन्नी के दायरे से आजाद होकर सोचेंगे तो ये ही पाएँगे कि हर दौर में हज़रत अली और उनकी औलादों को वह हक नहीं मिला, जो उनका था, कभी खा लिया गया, कभी छीन लिया गया। आप अहलेबैत अलैहिस्सलाम पर जुल्म की इंतिहा कर दी गई।
कभी वक्त निकालकर, पढ़िए और समझने की कोशिश कीजिए कि हक़ दरअसल में होता क्या है?