Day: December 7, 2020
हिजरत का छटा साल part 1
हिजरत का छटा साल

बैअतुर-रिज़वान व सुलहे हुदैबिया
इस साल के तमाम वाकिआत में सब से ज्यादा अहम और शानदार वाकिआ बैअतुर-रिज़वान’ और ‘सुलहे हुदैबिया है तारीखे इस्लाम में इस वाकिले की बड़ी अहमिय्येत है। क्योंकि इस्लाम की तमाम आइन्दा तरक्किीयों का राज़ इसी के दामन से वाबस्ता है। यही वजह है कि गो ब-जाहिर ये एक मगलूबाना सुलह थी मगर कुरआने मजीद में खुदावंदे आलम ने इस को ‘फ़तहे मुबीन’ का लकब अता फ़रमाया है!
जुल अदा सन्न ६ हिजरी में हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम चौदह सौ सहाबए किराम के साथ उम्रा का अहाम बाँधकर मक्का के लिए रवाना हुए। हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को अन्देशा था कि शायद कुफ्फारे मक्का हमें उम्रा अदा करने से रोकेंगे। इस लिए आपने पहले ही कबीलए खुजाआ के एक शख्स को मक्का भेज दिया था ताकि वो कुफ्फारे मक्का के इरादों की खबर लाए जब आपका काफिला मकामे ‘असफ़ान’ के करीब पहुँचा तो वो शख्स ये ख़बर लेकर आया कि कुफ्फारे मक्का ने तमाम कबाइले अरब के काफिरों को जमझ करके ये कह दिया है कि मुसलमानों को हरगिज़ हरगिज़ मक्का में दाखिल न होने दिया जाए। चुनान्चे कुफ्फारे कुरैश ने अपने तमाम हमनवा कबाइल को जमा करके एक फौज तय्यार कर ली और मुसलमानों का रास्ता रोकने के लिए मक्का से बाहर निकल
कर मकामे “बलदह’ मैं पड़ाव डाल दिया। और खालिद बिनुल वलीद और अबू जहल का बेटा इकरमा ये दोनों दो सौ चुने हुए सवारों का दस्ता लेकर मकामे “गुमीम” तक पहुँच गए। जब हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को रास्ता में खालिद बिनुल वलीद के सवारों की गर्द नज़र आई। तो आपने शाह राह से हटकर सफर शुरू कर दिया। और आम रास्ता से कटकर आगे बढ़े। और मकामे “हुदैबिया” में पहुँचकर पड़ाव डाला यहाँ पानी की बेहद कमी थी। एक ही कुवाँ था। वो चन्द घंटों ही में खुश्क
हो गया। जब सहाबए किराम प्यास से बेताब होने लगे तो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने एक बड़े प्याले में अपना दस्ते मुबारक डाल दिया और आपकी मुकद्दस उंगलियों से पानी का चश्मा जारी हो गया। फिर आपने खुश्क कुएँ में अपना वुजू का गसाला और अपना एक तीर डाल दिया। तो कुएँ में इस क़दर पानी उबल पड़ा कि पूरा लश्कर और तमाम जानवर उस कुएँ से कई दिनों तक सैराब होते रहे।

बैअतुर-रिज़वान
मकामे हुदैबिया में पहुँचकर हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने ये देखा कि कुफ्फ़ारे कुरैश का एक अज़ीम लश्कर जंग के लिए आमादा है। और इधर ये हाल है कि सब लोग अहराम बाँधे हुए हैं इस हालत में जुएँ भी नहीं मार सकते। तो आपने मुनासिब समझा कि कुफ्फारे मक्का से मसालिहत की गुफ्तगू करने के लिए किसी को मक्का भेज दिया जाए। चुनान्चे इस काम के लिए आपने हज़रते ज़मर रदियल्लाहु अन्हु को मुन्तख़ब फ़रमाया। लेकिन उन्होंने ये कहकर मअज़िरत कर दी कि या रसूलल्लाह! सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम कुफ्फारे कुरैश मेरे बहुत ही सख़्त दुश्मन हैं। और मक्का में मेरे कबीले का
कोई एक शख्स भी ऐसा नहीं है जो मुझको उन काफ़िरों से बचा सके। ये सुनकर आपने हज़रते उस्मान रदियल्लाहु अन्हु को मक्का भेजा। उन्होने मक्का पहुँचकर कुफ्फारे कुरैश को हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की तरफ से सुलह का पैगाम पहुँचाया। हज़रते उस्मान रदियल्लाहु अन्हु अपनी मालदारी और अपने कबीले वालों की हिमायत व पासदारी की वजह से कुफ्फारे कुरैश की निगाहों में बहुत ज़्यादा मुअज्ज़ज़ थे। इस लिए कुफ्फारे कुरैश उन पर कोई दराज़ दस्ती नहीं कर सके । बल्कि उनसे ये कहा कि हम आपको इजाज़त देते हैं कि आप कअबा का तवाफ और सफा व मरवा की सई करके अपना उम्रा अदा कर लें। मगर हम मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) को कभी हरगिज़ हरगिज़ कबा के करीब न आने देंगे। हज़रते उस्मान रदियल्लाहु अन्हु ने इन्कार कर दिया और कहा कि मैं बिगैर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को साथ हरगिज़ हरगिज़ अकेले अपना उम्रा नहीं अदा कर सकता। इस पर बात बढ़ गई। और कुफ्फार ने आपको मक्का में रोक लिया। मगर हुदैबिया के मैदान में ये ख़बर मशहूर हो गई कि कुफ़्फ़ारे कुरैश ने उनको शहीद कर दिया। हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को जब ये ख़बर पहुंची तो आपने फ़रमाया कि उस्मान के खून का बदला लेनां फर्ज है। ये फ़रमाकर आप एक बबूल के दरख्त के नीचे बैठ गए। और सहाबए किराम से फ़रमाया कि तुम सब लोग मेरे हाथ पर इस बात की बैअत करो कि आख़िरी दम तक तुम लोग मेरे वफादार जाँ निसार रहोगे। तमाम सहाबए ‘किराम ने निहायत ही वल-वला अंगेज़ जोश-खरोश के साथ जाँ निसारी का अहद करते हुए हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के दस्ते हक परस्त परं बैअत कर। यही वो बैअत है जिसका नाम तारीखुल इस्लाम में “बैअतुर रिज़वान’ है। हज़रते हक जल्ला मजदहू ने इस बैअत और उस दरख्त का तकिरा कुरआन मजीद की सूरए “फ़तह में इस तरह फ़रमाया है कि :
इन्नलजीना युवा-इऊनका इन्नमा युबा-इऊनल्लाह। यदुल्लाहि फौका अदिहिम (तर्जमा :- यकीनन जो लोग (ऐ रसूल) तुम्हारी बैअत करते हैं वो तो अल्लाह ही से बैअत करते हैं। उनके हाथों पर अल्लाह का हाथ है।)
इसी सूरए फ़तह में दूसरी जगह इन बैअत करने वालों की फजीलत और उनके अज- सवाब का कुरआन मजीद में इस तरह खुत्बा पढ़ा कि :लकद रदियल्लाहु अनिल मुअमिनीना इज़ युबाङ-ऊ नका तह-तश- Masti श-ज-रति फ-अ-लिमा मा फी. कुलूबिहिम फ़-अन-जलस सकी- नता MES अलैहिम व असा-बहुत फतहन करीबा। (तर्जमा :- बेशक अल्लाह राजी हुआ ईमान वालों से जब वो दरख्त के नीचे तुम्हारी बैअत करते थे। तो अल्लाह ने जाना जो उनके दिलों में है। फिर उन पर इत्मिनान उतार दिया। और उन्हें जल्द आने वाली फ़तह का इनआम दिया।)
लेकिन “बैअतुर रिजवान हो जाने के बाद पता चला कि हज़रते उस्मान रदियल्लाहु अन्हु की शहादत की ख़बर गलत थी वो बा इज्जत तौर पर मक्का में ज़िन्दा व सलामत थे। और फिर वो बखैर- आफ़ियत हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की खिदमते अक़दस में हाज़िर भी हो गए।
सुलह हुदैबिया क्योंकर हुई?
हुदैबिया में सब से पहला शख्स जो हुजूर सल्लल्लाहु तआला
अलैहि वसल्लम की खिदमत में हाज़िर हुआ वो बुदैल बिन वरका खुजाई था। उनका कबीला अगरचे अभी मुसलमान नहीं हुआ था। मगर ये लोग हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के हलीफ ओर इन्तिहाई मुख्लिस व खैर ख्वाह थे। बुदैल बिन वरका नें आप को खबर दी कि कुफ्फारे कुरैश ने कसीर तअदाद में फौज जमअ कर ली है। और फ़ौज के साथ राशन के लिए दूध वाली ऊँटनियाँ भी हैं। ये लोग आपसे जंग करेंगे और आपको ख़ानए कबा तक। नहीं पहुँचने देंगे।
“हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि तुम कुरेश को मेरा पैग़ाम पहुँचा दो कि हम जंग के इरादे से नहीं आए हैं और न हम जंग चाहते हैं। हम यहाँ सिर्फ उम्रा अदा करने की गरज से आए हैं। मुसलसल लड़ाईयों से कुरैश को बहुत । काफ़ी जानी व माली नुकसान पहुँच चुका है लिहाजा उनके हक़ में भी यही बेहतर है कि वो जंग न करें। बलिक मुझ से एक मुद्दते मुअय्यना तक के लिए सुलह का मुआहदा कर लें। और मुझको अले अरब के हाथ में छोड़ दें। अगर कुरैश मेरी बात मान लें तो बेहतर होगा। और अगर उन्होंने मुझसे जंग की तो मुझे उस ज़ात की कसम जिसके कब्जए कुदरत में मेरी जान है कि मैं उनसे उस वक्त तक लडूंगा कि मेरी गर्दन मेरे बदन से अलग हो जाए।”
बुदैल बिन वरका आपका ये पैग़ाम लेकर कुफ्फ़ारे कुरैश के पास गया। और कहा कि मैं मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) का एक पैग़ाम ले कर आया हूँ। अगर तुम लोगों की मर्जी हो तो मैं उनका पैगाम तुम लोगों को सुनाऊँ। कुफ़्फ़ारे कुरैश के शरारत पसन्द लौंडे जिनका जोश उनके होश पर गालिब था शोर मचाने लगे कि नहीं हरगिज़ नहीं। हमें उनका पैगाम सुनने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन कुफ्फारे कुरैश के संजीदा और समझदार लोगों ने पैगाम सुनाने की इजाजत दे दी और बुदैल बिन वरका ने हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की दअवते सुलह को उन लोगों के सामने पेश कर दिया। यू सुनकर कबीलए
कुरैश को एक बहुत ही मुअम्मर और मुअज्ज़ज़ सरदार उरवा बिन मसऊद सकफी खड़ा हो गया और उसने कहा कि ऐ कुरैश! क्या
तुम्हारा बाप नहीं? सब ने कहा कि क्यों नहीं। फिर उसने कहा कि क्या तुम लोग मेरे बच्चे नहीं? सब ने कहा कि क्यों नहीं। फिर उसने कहा कि मेरे बारे में तुम लोगों को कोई बद गुमानी तो नहीं? सब ने कहा कि नहीं हरगिज़ नहीं। इसके बाद उरवा बिन मसऊद ने कहा कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) ने बहुत ही समझदारी और भलाई की बात पेश कर दी है। लिहाजा तुम लोग मुझे इजाज़त दो कि मैं उनसे मिलकर मुआमलात तय करूँ] सब ने इजाज़त दे दी कि बहुत अच्छा। आप जाइए। उरवा बिन मसऊद वहाँ से चलकर हुदैबिया के मैदान में पहुँचा। और हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम को मुख़ातब करके ये कहा। कि बुदैन बिन वरका की ज़बानी आपका पैगाम हमें मिला। ऐ मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) मुझे आपसे ये कहना है कि अगर आपने लड़कर कुरैश को बरबाद करके दुनिया से नेस्त–ो नाबूद कर दिया। तो मुझे बताइए कि क्या आपसे पहले कभी किसी अरब ने अपनी ही कौम को बरबाद किया है? और अगर लड़ाई में कुरैश का पल्ला भारी पड़ा तो आपके साथ जो ये लश्कर है मैं उनमें ऐसे चेहरे देख रहा हूँ कि ये सब आपको तन्हा छोड़कर भाग जाएँगे। उरवा बिन मसऊद का ये जुमला सुनकर हज़रते अबू बकर सिद्दीक रदियल्लाहु अन्हु को सब- ज़ब्त की ताब न रही। उन्होंने तड़पकर कहा कि ऐ उरवा! चुप। तू जा। अपनी देवी “लात” की शर्मगाह चूस। क्या हम भला अल्लाह के रसूल को छोड़कर भाग जाएँगे? उरवा बिन मसऊद ने तअज्जुब
से पूछा
कि ये कौन शख्स है? लोगों ने कहा कि ये “अबू बकर हैं” उरवा बिन मसऊद ने कहा कि मुझे उस ज़ात की कसम! जिसके कब्जे में मेरी जान है। ऐ अबू बकर! अगर तेरा एक एहसान मुझ पर न होता जिसका बदला मैं अब तक तुझ को नहीं दे सका हूँ। तो मैं तेरी इस तल्ख गुफ्तगू
का जवाब देता। उरवा बिन मसऊद अपने को सब से बड़ा आदर्श समझता था। इस लिए जब भी वो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अली वसल्लम से कोई बात कहता तो हाथ बढ़ाकर आप की मुबारक पकड़ लेता था। और बार बार आपकी मुकद्दस दाढी कर हाथ डालता था। हज़रते मुगैरा बिन शबा रदियल्लाहु अन्हु जी नंगी शमशीर लेकर हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के पीछे खड़े थे। वो उरवा बिन मसऊद की इस जुर्रत को बर्दाश्त न कर सके। और उरवा बिन मसऊद जब रीश मुबारक की तरफ हाथ बढ़ाता तो वो तलवार का कब्ज़ा उसके हाथ पर मारकर उससे कहते कि रीश मुबारक से अपना हाथ हटा ले। उरवा दिन मसऊद ने अपना सर उठाया और पूछा कि ये कौन आदमी है, लोगों ने बताया कि ये मुगैरा बिन शबा हैं। तो उरवा दिन मसऊद ने डाँटकर कहा कि ऐ दगाबाज! क्या मैं तेरी अहद शिकनी संभालने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ? हज़रते मुगैरा दिन शअबा रदियल्लाहु अन्हु ने चन्द आदमियों को कत्ल कर दिया था। जिसका खू बहा उरवा बिन मसऊद ने अपने पास से किया था ये तरफ इशारा था।
इसके बाद उरवा बिन मसऊद सहाबए किराम को देखने लगा। और पूरी लश्करगाह को देखभाल कर वहाँ से रवाना हो गया। उरवा बिन मसऊद ने हुदैबिया के मैदान में सहाबए किरान की हैरत अंगेज़ और तअज्जुब खेज़ अक़ीदत व महब्बत का जो मंज़र देखा था उसने उसके दिल पर बड़ा असर डाला था। चुनान्चे उसने कुरैश के लश्कर में पहुँचकर अपना तआस्सुर इन अल्फाज में बयान किया।
ऐ मेरी कौम! खुदा की कसम! जब मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) अपना खंखार थूकते हैं तो वो किसी न किसी सहाबी की हथेली में पड़ता है। और वो फर्ते अकीदत से उसको अपने चेहरे, और अपनी खाल पर मल लेता है। और अगर वो किसी बात का उन लोगों को हुक्म देते हैं तो सब के सब उस
कसम मैंने
की तअमील के लिए झपट पड़ते हैं। और वो जब वुजू करते हैं। तो उनके असहाब उनके वुजु के धोवन को इस तरह लूटते हैं की गोया उनमें तलवार चल पड़ेगी। और वो जब गुफ्तगू करते हैं। तो. तमाम असहाब खामोश हो जाते हैं। और उनके साथियों के दिलों में उनकी इतनी ज़बरदस्त अज्मत है कि कोई शख्स उनकी तरफ नजर भरकर देख नहीं सकता। ऐ मेरी कौम!
खुदा
की बहुत
से बादशाहों के दरबार देखा है। मैं कैसर- किसरा और नजाशी के दरबारों में भी बारयाब हो चुका हूँ। मगर ख़ुदा की कसम! मैं ने किसी बादशाह के दरबारियों को अपने बादशाह की इतनी तअजीम करते हुए नहीं देखा है। जितनी तअज़ीम मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) के साथी, मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) की करते हैं।
उरवा बिन मसऊद की ये गुफ्तगू सुनकर कबीलए बनी किनाना के एक शख्स ने जिसका नाम “हलीस”था कहा कि तुम लोग मुझको इजाज़त दो कि मैं उनके पास जाँऊ । कुरैश ने कहा कि “ज़रूर जाईए।” चुनान्चे ये शख्स जब बारगाहे रिसालत के करीब पहुँचा तो आपने सहाबा से फ़रमाया कि ये फुलाँ शख्स है। और ये उस कौम से तअल्लुक रखता है जो कुर्बानी के जानवरों की तअज़ीम करते हैं। लिहाज़ा तुम लोग कुरबानी के जानवरों को उसके सामने खड़ा कर दो। और सब लोग “लब्बैक’ पढ़ना शुरू कर दो। उस शख्स ने जब कुरबानी के जानवरों को देखा। और अहराम की हालत में सहाबए किराम को “लब्बैक” पढ़ते हुए सुना। तो कहा कि सुब्हानल्लाह भला इन लोगों को किस तरह मुनासिब है कि बैतुल्लाह से रोका जाए? और वो फौरन ही पलटकर कुफ्फार के पास पहुँचा और कहा कि मैं अपनी आँखों से देखकर आ रहा हूँ कि कुरबानी के जानवर उन लोगों के साथ हैं और सब अहराम की हालत में हैं। लिहाज़ा मैं भी ये राय नहीं दे सकता कि उन लोगों को खानए कबा से रोक दिया जाए। इसके बाद एक शख्स कुफ्फारे कुरैश के लश्कर में खड़ा हो गया जिसका नाम
मिकरज़ बिन हफस था। उसने कहा कि मुझको तुम लोग वहाँ जाने दो। कुरैश ने कहा तुम भी जाओ। चुनान्चे ये चला। जब ये नज़दीक पहुँचा तो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ्रमाया कि ये मिकरज़ है। ये बहुत ही लुच्चा आदमी है। उसने आप से गुफ्तुगू शुरू की। अभी उसकी बात पूरी भी न हुई थी। कि नागहाँ “सुहैल बिन अमर आ गया। उसको देखकर आपने नेक फाली के तौर पर ये फरमाया कि सुहैल आ गया। लो। अब तुम्हारा मामला सहल हो गया। चुनान्चे सुहैल ने आते ही कहा कि आइए। हम और आप अपने और आपके दर्मियान मुआहदा की एक दस्तावेज़ लिख लें। हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने इस को मंजूर फ्रमा लिया। और हज़रते अली रदियल्लाहु अन्हु को दस्तावेज लिखने के लिए तलब फ़रमाया। सुहैल बिन अमर और
हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के दर्मियान देर तक सुलह के शराएत पर गुफ्तगू होती रही। बिल आख़िर चन्द शर्तों पर दोनों का इत्तिफ़ाक हो गया। हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने हज़रते अली रदियल्लाहु अन्हु से इर्शाद फरमाया कि लिखो .
“बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम सुहैल ने कहा कि हम रहमान” को नहीं जानते कि ये क्या है? आप ‘बिस्मिकल्लाहुम्मा’ लिखवाईए। जो हमारा और आपका पुराना दस्तूर रहा है। मुसलमानों ने कहा कि हम “बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम” के सिवा कोई दूसरा लफ़्ज़ नहीं लिखेंगे मगर हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने सुहैल की बात मान ली। और फरमाया कि अच्छा। ऐ अलीबिस्मिकल्लाहुम्मा’ ही लिख दो। फिर हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने ये इबारत लिखवाई हाजा मा कादा अलैहि मुहम्मद रसूलुल्लाह’ (यानी ये वो शर्त है जिनपर कुरैश के साथ मुहम्मद रसूलुल्लाह ने सुलह का फैसला किया है) सुहैल फिर भड़क गया
और कहने लगा कि खुदा की कसम! अगर हम जान लेते कि आप अल्लाह के रसूल हैं तो न हम आपको बैतुललाह से रोकते। न । आपके साथ जंग करते। लेकिन आप “मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह’ लिखए। आपने फ़रमाया कि खुदा की कसम मैं मुहम्मद रसूलुल्लाह भी हूँ और मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह भी हूँ ये और बात है कि तुम लोग मेरी रिसालत को झुटलाते हो। ये कहकर आपने हजरते अली रदियल्लाहु अन्हु से फ़रमाया कि मुहम्मद रसूलुल्लाह को मिटा दो। और उस जगह मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिख दो। हज़रते अली रदियल्लाहु अन्हु से ज़ियादा कौन मुसलमान आपका क्रमांबरदार हो सकता है? लेकिन मुहब्बत के आलम में कभी कभी ऐसा मकाम भी आ जाता है कि सच्चे मुहिब को भी अपने महबूब की फरमाबरदारी से महब्बत ही के जज्बे में इन्कार करना पड़ता है हज़रते अली रदियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया कि या रसूलल्लाह! मैं आपके नाम को तो कभी हरगिज़ हरगिज नहीं मिटाऊँगा आपने फरमाया कि अच्छा मुझे दिखाओ। मेरा नाम कहाँ है? हज़रते अली रदियल्लाहु अन्हु ने उस जगह पर उंगली रख दी। आपने वहाँ से ‘रसूलुल्लाह” का लफ्ज़ मिटा दिया बहर हाल सुलह की तहरीर मुकम्मल हो गई। उस दस्तावेज़ में ये तयकर दिया गया कि फरीकैन के दर्मियान दस साल तक लड़ाई बिल्कुल मौकूफ रहेगी। सुलहनामा की बाकी दफ़आत और शर्ते ये थीं कि (१) मुसलमान इस साल बिगैर उम्रा अदा किए वापस चले जाएँ। (२) आइन्दा साल उम्रा के लिए आएँ और सिर्फ तीन दिन मक्का
में ठहर कर वापस चले जाएँ! (३) तलवार के सिवा कोई दूसरा हथियार लेकर न आएँ।
तलवार भी नियाम के अन्दर रखकर थैले वगैरा में बंद हो। (४) मक्का में जो मुसलमान पहले से मुकीम हैं उनमें से किसी
को अपने साथ न ले जाएँ और मुसलमानों में अगर कोई
मक्का में रहना चाहता है। तो उसको न रोकें। (५) काफिरों या मुसलमानों में से कोई शख्स अगर मदीना चला
जाए तो वापस कर दिया जाए लेकिन अगर कोई मुसलमान
मदीने से मक्का चला जाए तो वो वापस नहीं किया जाएगा। (६) कबाइले अरब को इख्तियार होगा कि वो फरीकैन में से जिस
के साथ चाहें दोस्ती का मुआहदा कर लें।
ये शर्ते ज़ाहिर है कि मुसलमानों के सख्त खिलाफ थीं और सहाबए किराम को इस पर बड़ी ज़बरदस्त ना गवारी हो रही थी। मगर वो फ्रमाने रिसालत के खिलाफ दम मारने से मजबूर थे।
(इब्ने हश्शाम जि. २ स. ३७१ वगैरा)
हज़रते अबू जन्दल का मुआमला
ये अजीब इत्तिफ़ाक कि मुआहदा लिखा जा चुका था। लेकिन अभी तक इस पर फीकैन के दस्तख़त नहीं हुए थे। कि अचानक इसी सुहैल बिन अमर के साहिब ज़ादे हज़रते बझू जन्दल रदियल्लाहु अन्हु अपनी बेड़ीयाँ घसीटते हुए गिरते पड़ते हुदैबिया में मुसलमानों के दर्मियान आन पहुंचे। सुहैल बिन अमर अपने बेटे को देखकर कहने लगा कि ऐ मुहम्मद (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) इस मुआहदे की दस्तावेज़ पर दस्तख़त करने के लिए मेरी पहली शर्त ये है कि आप अबू जन्दल को मेरी तरफ वापस लौटाइए। आपने फ़रमाया कि अभी तो इस मुआहदे फरीकैन के दस्तख़त ही नहीं हुए हैं। हमारे और तुम्हारे दस्तख़त हो जाने के बाद ये मुआहदा नाफ़िज़ होगा। ये सुनकर सुहैल बिन अमर कहने लगा कि फिर जाइए। मैं आपसे कोई सुलह नहीं करूँगा। आपने फ़रमाया कि अच्छा। ऐ सुहैल! तुम अपनी तरफ से इजाज़त दे दो कि मैं अबू जन्दल को अपने पास रख लूँ। उसने कहा कि मैं हरगिज़ कभी इसकी इजाजत नहीं दे सकता। हज़रते अबू जन्दल रदियल्लाहु अन्हु ने जब देखा कि मैं फिर मक्का लौटा दिया जाऊँगा। तो उन्होंने मुसलमानों से फर्याद की। और कहा कि ऐ जमाअते मुस्लिमीन! देखो मैं मुशरिकीन की तरफ लौटाया जा रहा
हूँ। हालाँकि मैं मुसलमान हूँ और तुम मुसलमानों के पास आ गया हूँ। कुफ्फार की मार से उनके बदन पर चोटों के जो निशानात थे उन्होंने उन निशानात को दिखा दिखाकर मुसलमानों को जोश दिलाया। हज़रते उमर रदियल्लाहु अन्हु पर हजरते अबू जन्दल रदियल्लाहु अन्हु की तकरीर सुनकर ईमानी जज़्बा सवार हो गया। और वो दनदनाते हुए बारगाहे रिसालत में पहुँचे। और अर्ज किया कि क्या आप सच मुच अल्लाह के रसूल नहीं हैं? इर्शाद फरमाया कि क्यों नहीं? उनहोंने कहा कि क्या हम हक पर और हमारे दुश्मन बातिल पर नहीं हैं? इर्शाद फरमाया कि क्यों नहीं? फिर उन्होंने कहा कि तो फिर हमारे दीन में हम को ये जिल्लत क्यों दी जा रही है? आपने फ़रमाया कि ऐ उमर! मैं अल्लाह का रसूल हूँ। मैं उसकी ना फरमानी नहीं करता हूँ। वो मेरा मददगार है। फिर हज़रते उमर रदियल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया कि या रसूलल्लाह! क्या आप हम से ये वअदा न फ़रमाते थे कि हम अन्करीब बैतुल्लाह में आकर तवाफ़ करेंगे? इर्शाद फरमाया कि क्या मैं ने तुम
को ये ख़बर दी थी कि हम इसी साल बैतुल्लाह में दाखिल होंगे? उन्होंने कहा कि “नहीं” आपने इर्शाद फरमाया कि मैं फिर कहता हूँ कि तुम यकीनन कबा में पहुँचोगे और उसका तवाफ़ करोगे।
दरबारे रिसालत से उठकर हज़रते उमर रदियल्लाहु अन्हु हज़रते अबू बकर सिद्दीक़ रदियल्लाहु अन्हु के पास आए और वही गुफ्तगू की जो वो बारगाहे रिसालत में अर्ज कर चुके थे। आपने फ़रमाया कि ऐ उमर! वो खुदा के रसूल हैं। वो जो कुछ करते हैं अल्लाह तआला ही के हुक्म से करते हैं। वो कभी खुदा की ना फरमानी नहीं करते। और खुदा उनका मददगार है ओर खुदा की कसम! यकीनन वो हक पर हैं लिहाज़ा तुम उनकी रकाब थामे
(इब्ने हश्शाम जि. ३ स. ३१७) हज़रते उमर रदियल्लाहु अन्हु को तमाम उम्र इन बातों का सदमा और सख्त रंज व अफ्सोस रहा। जो उन्होंने जज्बए बे इख़्तियारी में हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से कह दी
थीं। जिन्दगी भर वो इस से तौबा व इस्तिगफार करते रहे और इसके कफ्फारे के लिए उनहोंने नमाज़ पढ़ीं, रोजे रखे, खैरात की, गुलाम आज़ाद किए। बुखारी शरीफ में अगरचे इन अअमाल का मुफ़स्सल तज़्किरा नहीं है। इजमालन ही जिक्र है। लेकिन दूसरी किताबों में निहायत ही तफसील के साथ ये तमाम बातें बयान की
बहर हाल ये बड़े सख्त इम्तिहान और आज़माइश का वक्त था। एक तरफ़ हज़रते अबू जन्दल रदियल्लाहु अन्हु गिड़ गिड़ाकर मुसलमानों से फ़ाद कर रहे हैं। और हर मुसलमान इस कदर जोश में भरा हुआ है कि अगर रसूल का अदब मानेअ न होता। तो मुसलमानों की तलवारें नियाम से बाहर निकल पड़ती। दूसरी तरफ मुआहदे पर दस्तख़त हो चुके हैं और अपने अहद को पूरा करने की ज़िम्मेदारी सर पर आन पड़ी है। हुजूरे अनवर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने मौका की नज़ाकत का ख़याल फ़रमाते हुए हज़रते अबू जन्दल रदियल्लाहु अन्हु से फ़रमाया कि तुम सब्र करो। अन्करीब अल्लाह तआला तुम्हारे लिए और दूसरे मज़लूमों के लिए ज़रूर ही कोई रास्ता निकालेगा। हम सुलह का मुआहदा कर चुके । अब हम उन लोगों से बद अहदी नहीं कर सकते। गर्ज़ हज़रते अबू जन्दल रदियल्लाहु अन्हु को उसी तरह पा ब-ज़न्जरीर फिर मक्का वापस जाना पड़ा।
जब सुलह नामा मुकम्मल हो गया तो हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने सहाबए किराम को हुक्म दिया कि उठो और कुर्बानी करो और सर मुंडाकर अहराम खोल दो। मुसलमानों की ना गवारी और उनके गैज- गज़ब का ये आलम था कि फ़रमाने नबवी सुनकर एक शख़्स भी नहीं उठा। मगर अदब के ख़याल से कोई एक लफ्ज़ बोल भी न सका। आपने हज़रते बीबी उम्मे सल्मा रदियल्लाहु अन्हा से इसका तकिरा फ़रमाया। तो उन्होने अर्ज़ किया कि मेरी राय ये है कि आप किसी से कुछ न कहें और खुद आप अपनी कुरबानी कर लें। और बाल तरशवा
लें। चुनान्चे आपने ऐसा ही किया। जब सहाबए किराम ने आपको कुर्बानी करके अहराम उतारते देख लिया तो फिर वो लोग मायूस हो गए। कि अब आप अपना फैसला नहीं बदल सकते। तो सब लोग कुर्बानी करने लगे। और एक दूसरे के बाल तराशने लगे। मगर इस कदर रंज- गम में भरे हुए थे कि ऐसा मालूम होता था कि एक दूसरे को कत्ल कर डालेगा। उसके बाद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम अपने असहाब के साथ मदीना मुनव्वरा के लिए रवाना हो गए। (बुख़ारी जि. १ स. ३८० बाबुश-शरूत फिल जिहाद व बुख़ारी जि. २ स. ६१० बाब उमरतुल क़जा व मुस्लिम जि. २ स. १०४ सुलह हुदैबिया)
फ़तहे मुबीन
इस सुलह को तमाम सहाबा ने एक मगलूबाना सुलह, और जिल्लत आमेज़ मुआहदा समझा। और हज़रते उमर रदियल्लहु अन्हु को इस से जो रंज व सदमा गुज़रा वो आप पढ़ चुके । मगर इसके बाद ये आयत नाज़िल हुई कि इन्ना फ़-तना लका फ़तहम मुबीना।”(फ़तह) (ऐ हबीब! हम ने आपको फतहे मुबीन अता की।)
खुदावंदे कुडूस ने इस सुलह को “फ़तहे मुबीन बताया। हज़रते उमर रदियल्लाहु अन्हु ने अर्ज किया कि या रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम) क्या ये “फतह है? आपने ये इर्शाद फरमाया कि “हाँ ये फ़तह है”
गो उस वक्त उस सुलहनामा के बारे में सहाबा के ख़यालात अच्छे नहीं थे। मगर उसके बाद के वाकिआत ने बता दिया कि दर हकीकत यही सुलह तमाम फुतूहात की कुंजी साबित हुई। और सब ने मान लिया वाकई सुलहे हुदैबिया एक ऐसी फतहे मुबीन थी जो मक्का में इशाअते इस्लाम बल्कि फ़तहे मक्का का ज़रीआ बन
गई। अब तक मुसलमान और कुफ्फार एक दूसरे से अलग थलग रहते थे। एक दूसरे से मिलने जुलने का मौकअ नहीं मिलता था। मगर इस सुलह की वजह से एक दूसरे के यहाँ आमद- रफ्त आजादी के साथ गुफ्त- शुनीद, (कहना सुन्ना) और तबादलए खयालात का रास्ता खुल गया। कुफ्फार मदीना बाते और महीनो ठहरकर मुसलमानों के किरदार व अअमाल का मुतालआ करते इस्लामी मसाइल, और इस्लाम की खूबियों का तज्किरा सुनते जो मुसलमान मक्का जाते वो अपने चाल चलन, उफ्फत शिआरी और इबादत गुजारी से कुफ्फार के दिलों पर इस्लाम की खूबियाँ का ऐसा नक्श बिठा देते कि खुद बखुद कुफ्फार इस्लाम की तरफ माइल होते जाते थे। चुनान्चे तारीख गवाह है कि सुलह हुदैबिया से फतहे मक्का तक इस क़दर कसीर तअदाद में लोग मुसलमान हुए कि इतने कभी नहीं हुए थे। चुनान्चे हजरते खालिद बिनुल वलीद (फातहे शाम) और हज़रते अमर बिनुल आस (फातहे मिम्र) भी इसी ज़माने में खुद ब-खुद मक्का से मदीना जाकर मुसलमान हुए। (रदियल्लाहु अन्हुमा) (सीरते इब्ने हश्शाम जि. ३ स २७७ व २७८)
Quran Ki Roshni Mein Aulad Ka Darmeyan Masawaat Ka Ahqam
Taleemat e Ameer 40
** تعلیمات امیر (Taleemat e Ameer r.a)
** چالیسواں حصہ (part-40)
احمد بن حنبل: المسند، تحقيق الشيخ شعيب الأرنؤوط، الدارمي: المسند، تحقيق : حسين اسد،
أبي يعلى الموصلي: المسند، تحقيق : حسين أسد، ج۱۱ ص ۴۱۶ کے حوالہ سے یوں بیان ہوتا ہےکہ۔
منصور نے مسند خلافت پر فائز ہونے کے فوراً بعد حاکم مدینہ زیاد بن عبد اللہ کو تاکید کی کہ وہ نفس الزکیہ کی حرکات و سکنات کے بارے میں اسے باخبر رکھے۔ زیاد نے اسے یقین دہانی کرائی کہ وہ بہت جلد انہیں گرفتار کرکے مرکز خلافت روانہ کر دے گا لیکن وہ ایسا کرنے پر قادر نہ ہو سکا لہذا منصور نے اسے معزول کرکے قید میں ڈال دیا۔ نئے گورنر محمد بن خالد بھی انہیں قابو میں لانے میں ناکام رہا تو اس کی جگہ رباح بن منصور کو گورنر مدینہ مقرر کرکے اسے امام نفس الزکیہ کو گرفتار کرنے کا حکم دیا۔ رباح نے نفس الزکیہ کے والد محترم اور ان کے تمام قریبی رشتہ داروں کو گرفتار کرکے بغداد روانہ کر دیا۔ لیکن اپنی تمام کوششوں کے باوجود جب بھی نفس الزکیہ اور ان کے بھائی ابراہیم جو نفس الرضیہ کے لقب سے مشہور تھے گرفتار کرنے میں ناکام رہے تو اس نے ان کے قریبی رشتہ داروں کو قتل کرنا شروع کر دیا جس میں ان کے چچا عباس بن حسن۔ ابراہیم بن حسن اور چچا زاد بھائی محمد بن ابراہیم بھی شامل تھے۔ منصور کے جاسوس ان کی تلاش میں حیران و سرگردان پھرتے رہتے تھے لیکن وہ ان کی رہائش گاہ کا پتہ چلانے میں ناکام رہے۔
ابوجعفر منصور ان کے بارے میں بڑا فکر مند تھا لہذا حج کی نیت کرکے مکہ مکرمہ پہنچا تاکہ اس دوران میں وہ خود ان کی تلاش کر سکے اس پر نفس الزکیہ اور اب رہیم بصرہ میں جا کر روپوش ہو گئے منصور ان کے تعاقب میں بصرہ جاپہنچا لیکن دونوں بھائی وہاں سے نکل کر عدن چلے گئے منصور مایوس ہو کر بغداد واپس لوٹ گیا۔ اس دوران میں وہ عدن چھوڑ کر سندھ میں روپوش ہو گئے کچھ عرصہ بعد وہاں سے ہٹ کر کوفہ چلے گئے۔ دوسری بار منصور ۷۵۷ء میں دوبارہ حج کے لیے مکہ معظمہ آیا تو امام نفس الزکیہ اور ابراہیم وہاں موجود تھے ان کے والد مکرم اور دیگر تیرہ ہاشمی جنہیں قید کرکے بغداد لے جایا جا رہا تھا تو وہ اس وقت بھی درمیان موجود تھے لیکن منصور پھر بھی ان کا سراغ نہ لگا سکا۔ یہاں تک کہ دوران میں سفر دونوں بھائی بھیس بدل کر اپنے والد اور ان کے ساتھیوں کے ساتھ ساتھ آگے پیچھے چلتے رہے۔ انہوں نے اپنے والد مکرم سے خروج کی اجازت چاہی۔ لیکن انہوں نے کسی موزوں وقت تک خروج ملتوی رکھنے کی تاکید کی اس پر امام نفس الزکیہ مدینہ منورہ لوٹ گئے اور ابراہیم کو عراق میں اپنی دعوت اشاعت کے لیے بھیج دیا۔
📚 ماخذ از کتاب چراغ خضر۔
Hadith Sahih Bukhari 6294
