SALUTATIONS TO THE PROPHET صلى الله عليه وسلمBY STONES AND TREES.

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According to Ali b. Abi Talib : “I was with the Prophet in Makkah, so we set out in
one of its directions, and no mountain and no tree on his way
came to pass without saying: ‘Peace be upon you O Allah’s
Messenger !’”Reported by al-Trimidhi. According to al-Tirmidhi: This is a
fine tradition, and al-Hakim said: This is a tradition with an authentic
chain of transmission.

According to Abu Musa al-Asha’ri : “Abu Talib set out towards Syria and the Prophet صلى الله عليه وسلمwas
also accompanying him, along with (affluent) shaykhs of Quraysh.
Then, when they drew near to the monk, they alighted, and
unfastened their camel saddles. The monk came out to meet
them. They (the affluent Quraysh) used to pass by him before that
too, but he would not come out towards them and he would not
pay any attention. (However, on this particular occasion) the
monk started mingling with them while they were yet
unfastening their camel saddles. He came to the Messenger of
Allah , took hold of his hand and said: ‘This is the Master of the worlds! This is the Messenger of the Lord of the worlds!
Allah 9 will send him as a mercy for all the worlds!’ The shaykhs
of Quraysh then said to him: ‘How do you know all this?’ He
said: ‘When you drew near to al-Aqaba Valley, no tree and no
stone failed to bow in prostration, and they do not prostrate
themselves except for a Prophet. I recognize him by the seal of
Prophethood beneath the scapulum of his shoulder, like the
apple.’ He then went back and prepared a meal for them. When
he bought it to them, while he was in the herd of camels, he said:
‘send for him!’ when he came, a cloud provided him shade.
When he drew near to the people, he found that they had gone
ahead of him to the shadow of the tree. Then, when (the
Prophet) sat down, the shadow of the tree bent over him. So, he
said: ‘look at the shadow of the tree! It has bent over him!’ … He
said: ‘I adjure you by Allah 9, which of you is his guardian?’
They said: ‘Abu Talib.’ Then, he did not cease adjuring him to
send him back till Abu Talib send him back.”
Reported by al-Tirmidhi and Ibn Abi Shayba.

Set forth by al-Tirmidhi in al-Sunan, Bk.: al-Manaqib [The Virtues], Ch.:
(6), 5/593, $ 3626. al-Darimi in al-Sunan, ch.: (4), 1/31 $ 21. Al-Hakim in alMustadrak, 2/677 $ 4238. al-Maqdisi in al-Ahadith al-Mukhtarah, 2/134, $
502. al-Mundhari in al-Targheeb wa al-Tarheeb, 2/150 $ 1880. al-Mizzi in
Tadheeb al-Kamal, 14/175, $ 3103. al-Jurjany in Tarikh al-Jurjaan, 1/329, $
600.
Set forth by al-Tirmidhi in al-Sunan, Bk.: al-Manaqib [The Virtues], Ch.:
(6), 5/590, $ 3620. Ibn Abi Shayba in al-Musannuf, 6/317, $ 31713,36541. Ibn
Hibban in al-Thiqat, 1/42. al-Tabri in Tarikh al-Ummam, 1/519.

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Yaum e Wisal 6 Rajab Hazrat Khwaja Moinuddin Hasan Chisti Ajmeri Rehmatullah alaih.

Shahenshah e Chishtiya Khwaja e Khwajgan Sultan ul Hind Khwaja Moinuddin Hasan Chishti Alayhir Rehma Ki Jab Rooh e Mubarak Parwaz Huyi Toh Aapki Nurani Peshani Par Likha Hua Tha “Haza Habibullah” Ye Allah Ke Habib The, Allah Ki Muhabbat Mein Wafat Payi.

(Sawane Hayat, Khwaja Moinuddin Chishti)
(Akhbaar ul Akhyaras,pg23)

Jab Huzoor Sarkaar Gareeb (Qaddas Allahu Sirrahu Al Aziz) Parda Farmaye To Aap Ki Peshani Pe Haza Habibullah Mata Fi Hub Illah (Ye Allah Ke Habib Hai Allah Ki Muhabbat Mein Wafat Payee) Likha Huwa Tha . (Allahu Akbar Subhan Allah )
.
Reference : Siyar-ul-Auliya Safa 103
.
السَّلاَمُ عَلَيْكَ يَا حَبِيْبَُ اللّٰه
Peace Be Upon You, O Beloved of Allah
.
اَللّٰھُمَّ صَلِّ عَلَی سَیِّدِنَا مُحَمَّدٍ وَ عَلَی اٰلِ سَیِّدِنَا مُحَمَّدٍ وَ بَارِکْ وَ س٘لِّمْ

अमरीका की खोज की सच्चाई।


अमरीका की खोज के बारे में

पश्चिमी जगत के विद्वानों और अरब इतिहासकारों का दावा है कि स्पैनिश, नाविक कोलम्बस के 1492 ई० में अमरीका पहुँचने से पाँच सौ वर्ष पहले मुसलमान अमरीका पहुँच चुके थे। उन पाँच सौ वर्षों में उन्होंने वहाँ बस्तियाँ बसा ली थी और अमरीका के मूल निवासियों ‘रेड इण्डियन’ के रहन-सहन पर भी प्रभाव डाला।

इस बारे में सैकड़ों प्रमाण और पुराने नाविकों व खोजकर्ताओं के साक्ष्य मौजूद हैं। अमरीका के हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डा० बैरी फ़ाल ने 1980 ई० में प्रकाशित पुस्तक ‘Saga America’ में कुछ वैज्ञानिक प्रमाण और साक्ष्यों की रोशनी में यह सिद्ध किया है कि कोलम्बस के अमरीका पहुँचने से पहले इस्लाम की रोशनी वहाँ पहुँच चुकी थी। हज़ारों मुस्लिम परिवार वहाँ जाकर बस गये थे। डा. बैरी फ़ाल ने दावा किया है कि उसने अमरीका के कोलोरेडो, न्यू मैक्सिको, इण्डियाना, अल्लान स्प्रिंग, लोगोमारसिनो और अन्य क्षेत्रों में मुसलमानों के मदरसों के अवशेष देखे हैं। उनका कहना है इन क्षेत्रों में चट्टानों पर उत्तरी अफ्रीका में प्रयोग की जाने वाली कूफ़ी अरबी लिपि अंकित है जो इस बात का साक्ष्य है कि मुसलमानों ने वहाँ बसने के पश्चात प्राथमिक और उच्च शिक्षा देने का सिलसिला जारी रखा। डा. बैरी फ़ाल का कहना है वहाँ धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ गणित, इतिहास, भूगोल, खगोल और जहाजरानी की शिक्षा भी दी जाती थी। उत्तरी अमरीका के वासी अल्गोन्किन, अनासाजी, होहोकम और ऑल्मेक उन्हीं मुसलमानों के वंशज हैं।

शोधकर्ताओं का दावा है 1492 ई. में मुसलमानों के अंतिम आवास ग्रेनाडा पर स्पैन के ईसाइयों ने वर्चस्व प्राप्त कर लिया। उसके बाद उन्होंने गैर-ईसाइयों को मृत्यु दण्ड देने का काम शुरू किया। मौत के डर से हज़ारों महान मुस्लिम वैज्ञानिक

लोग वहाँ से पलायन कर गये या रोमन कैथोलिक ईसाई बना दिये गये।

स्पैन के राजा चार्ल्स के 1543 ई. के एक आदेशानुसार स्पैन के सुदूर उपनिवेशों में रहने वाले मुसलमानों के विरुद्ध देश निकाले की कार्यवाही की गई। उससे पहले और ईसाइयों को जिंदा जलाकर मार दिया जाता था। इस प्रकार धर्म के नाम पर ईसाइयों ने मुसलमानों की हत्या की।

मुस्लिम भूगोलशास्त्रियों और यात्रियों ने अपने लेखों में अटलांटिक महासागर पार करके नामालूम भू-भाग (अर्जे मजहूला) का जिक्र किया है। नवीं शताब्दी के भूगोलशास्त्री और इतिहासकार अल-मसऊदी (871 ई० 957 ई.) ने अपनी पुस्तक मूरूज अद्दहब व मदीन अल-जवाहर में लिखा है, “स्पैन के मुस्लिम शासक अब्दुल्ला इब्ने मुहम्मद (888 ई० 912 ई.) के ज़माने में एक मुस्लिम नाविक ख़शख़ाश इब्ने सईद इब्जे अस्वद स्पैन की देलवा (Palos) की बंदरगाह से 889 ई० में रवाना हुआ और अटलांटिक महासागर पार करके एक नामालूम इलाके में पहुँचा। उस युग में अटलांटिक महासागर को कोहरे और अंधेरे का सागर कहा जाता था।

एक और मुस्लिम इतिहासकार अबू बक्र इब्ने उमर के अनुसार, “स्पैन के शासक हश्शाम द्वितीय (976 ई० 1000 ई.) के ज़माने में एक मुस्लिम नाविक इब्ने फ़र्रुख़ फ़रवरी 999 ई. में अटलांटिक के केनरी द्वीपों में उतरा और वहाँ के राजा से मिलकर पश्चिम की ओर यात्रा जारी रखी। वहाँ उसने दो द्वीप देखे जिनका नाम उसने कपारिया और प्लूइटाना रखा।”

कोलम्बस के पुत्र फ़र्डीनेण्ड कोलम्बस ने लिखा है जब उसके पिता होण्डुरास पहुँचे वहाँ उन्होंने हब्शी लोग देखे जो बिल्कुल काले थे उसी क्षेत्र में अलमामी नाम का मुस्लिम क़बीला भी आबाद था। मन्दिण्का भाषा में अलमामी दरअसल अरबी शब्द अलइमाम से आया है। जिसका मतलब है नमाज़ पढ़ाने वाला। अमरीका के हारवर्ड विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध इतिहासकार लियो वेनर 1920 ई० में लिखित अपनी पुस्तक Africa and Discovery of America में कहते हैं, “कोलम्बस नई दुनिया में मन्दिण्का के आवास से भली-भाँति परिचित था, वह जानता था अफ्रीक़ा

के मुसलमान कैरिबियन, मध्य, दक्षिण और उत्तरी अमरीका तक फैले हुए थे। यहाँ तक कि उनकी बस्तियाँ कनाडा तक बस चुकी थीं। यह लोग व्यापारी थे और इरोक्वीस व अलगोन्किन इण्डियन से शादियाँ भी करते थे।”

इसी तरह मुस्लिम भूगोलशास्त्री अल-इदरीसी (1099 ई० – 1166 ई.) ने अपनी पुस्तक नुजहत अल-मुश्ताक़ फ़ी-इख़्तिराक अल-आफ़ाक़ में लिखा है, “कि मुस्लिम नाविकों ने लिस्बन (पुर्तगाल) से अटलांटिक महासागर में पश्चिम की ओर यह जानने के लिये यात्रा की कि संसार के उस छोर पर क्या है। आखिरकार वह एक ऐसे द्वीप पर पहुंचे जहाँ लोग खेती करते थे। चार दिन बाद वहाँ के एक अनुवादक ने उनसे अरबी में बात की। चौदहवीं शताब्दी के मुस्लिम इतिहासकार शहाबुद्दीन अबुल अब्बास अहमद बिन फ़ज़ल अल-उमरी (1300 ई० – 1384 ई०) ने अपनी पुस्तक मसालिक अल-अबसार फ़ी ममालिक अल-अमसार में अटलांटिक महासागर के पार भेजे जाने वाले जल अभियानों का वर्णन किया है। कोलम्बस की यात्रा में न केवल दो मुसलमानों के वंशज नाविक उसके साथ थे बल्कि उसने अल-मसऊदी (871 ई. – 957 ई.) और दूसरे ० मुस्लिम जहाज़रानों के तैयार किये गये मानचित्रों की भी सहायता ली। उसके बेड़े में शामिल दो जहाजों की कमान स्पैनिश मुसलमानों के वंशजों मार्टिन अलान्सों पिंजोन और उसके भाई विसेन्टी यानेज़ पिंजोन ने संभाल रखी थी। इन दोनों भाइयों का सम्बंध मराक़श के मरिनिद शाही परिवार के राजा अबू जैद मुहम्मद तृतीय से था (नोटः स्पैन पर दोबारा क़ब्जे के पश्चात ईसाइयों ने मुसलामनों को ज़ोर-ज़बरदस्ती ईसाई धर्म मानने पर मजबूर किया या उन्हें जान से मार डाला)।

मानव विज्ञान इस बात पर सहमत है कि तेरहवीं शताब्दी में अफ्रीक़ी देश माली के मनदिएका शाही परिवार के आदेश पर नाविकों के कई दल अमरीका पहुँचे और उन्होंने मिसीसिप्पी नदी के रास्ते अमरीका के कई क्षेत्रों जिनमें एरीज़ोना भी शामिल है का पता लगाया।

कोलम्बस ने 21 अक्तूबर 1492 ई. के लेख में इस बात की पुष्टी की है

इब्ने ख़लदून( 1332 $o 1406 ई.)

इब्ने ख़लदून
( 1332 $o 1406 ई.)

इब्ने ख़लदून का पूरा नाम अबू जैद वलीउद्दीन अब्दुर्रहमान इब्ने खलदून था। उनका जन्म उत्तरी अफ़्रीक़ा के देश तूनिस (Tunisia) 1332 ई. में हुआ। इब्ने ख़लदून को समाज शास्त्र (Sociology) का जन्मदाता कहा जाता है। उन्होंने दर्शनशास्त्र, भूगोल, राजनीति, इतिहास, शिक्षा और धर्मशास्त्र पर उच्चकोटि का साहित्य छोड़ा है। उनका सबसे बड़ा कारनामा यह है कि उन्होंने इतिहास लेखन (Histography) को साहित्य में विशेष पहचान दी और उसके शोध सम्बंधित नियम निर्धारित किये। जिसके कारण इतिहास लेखन को विज्ञान का दर्जा प्राप्त हुआ। उनका कहना है जिस प्रकार एक वैज्ञानिक तथ्यों की तलाश में अनुमान पर अपनी इमारत खड़ी करता है फिर अनुभव की रोशनी में उसको परखता है। इसी प्रकार इतिहासकार भी किसी घटना का विवरण करते समय यह जांचता है कि उसका घटित होना सम्भव भी है और उसका अभिधानक विश्वसनीय भी है या नहीं। इब्ने खलदून के अनुसार इतिहासकार को इस बात की भी जांच परख करनी चाहिये कि घटना का अभिधानक पक्षपाती, पाखा दी और अयोग्य तो नहीं है।

इब्ने ख़लदून द्वारा लिखित इतिहास का प्राक्कथन विश्वभर में आज भी ज्ञान का बहुमूल्य भण्डार है। इसमें इब्ने ख़लदून ने इतिहास के दर्शन पर चर्चा की है और जातियों व देशों के उदय और पतन का गहराई से निरीक्षण किया है। इब्ने खलदून ने इस तथ्य पर बार-बार जोर दिया है कि किसी घटना का दूसरे स्रोत से भी पता चलता है या नहीं।

इब्ने ख़लदून ने पहली बार यह विचार व्यक्त किये कि इतिहास केवल राजाओं के जीवन, राजनीति और युद्ध का विवरण नहीं है बल्कि उसमें उस जमाने की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का जिक्र भी आवश्यक है।महान मुस्लिम वैज्ञानिक

इतिहासकार जिस युग के बारे में लिख रहा है इसके नगरों, गाँव, रहन-सहन, लिबास, भोजन और जीवन शैली का पूर्ण विवरण आवश्यक है। इब्ने ख़लदून इतिहास को केवल पुरानी पुस्तकों से नकल करने को इतिहास लेखन नहीं मानते, वह कहते हैं कि जिस युग के बारे में लिखा जा रहा है इसकी सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का जायजा लेकर उस घटना की जाँच परख की जाए। उन्होंने आम धारणा से हटकर यह बात कही है कि इतिहासकार को केवल घटना का वर्णन करके संतुष्टि प्राप्त नहीं करनी चाहिये बल्कि उन कारणों का पता भी लगाना चाहिये जिनके द्वारा उसने उन्नति की या पतन की खाई में गिर गई।

इब्ने ख़लदून के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके यहाँ पक्षपात बिल्कुल नज़र नहीं आता जबकि ज्यादातर इतिहासकार अपने क़बीले या राजनैतिक विचारधारा से ओत-प्रोत होकर विचार प्रकट करते हैं।

इब्ने ख़लदून ने जीवन का बड़ा हिस्सा इस्लामी देशों की यात्रा और वहाँ बड़े-बड़े पदों पर काम करके काटा जिससे उन्हें राजनीति और आम जीवनशैली को निकट से देखने का अवसर मिला। उनकी पुस्तक का प्राक्कथन जो दो, भागों में है विभिन्न देशों की सामाजिक स्थिति, लोगों की प्रकृति, जलवायु, व्यवसाय, भूगोलिक स्थिति पर आधारित है। इसके अलावा उन्होंने स्पैन के अरबों का इतिहास ‘अल-अबर’ के नाम से दो भागों में प्रकाशित कराया।

इब्ने ख़लदून ने प्रतिदिन अपनी डायरी लिखी और उसमें बड़ी रोचक जानकारी जमा की जिसे ‘अलतारिफ़ इब्ने ख़लदून’ के नाम से लिखा।

उन्होंने विभिन्न विषयों पर हुए वाद-विवाद को भी लिखा जो आज भी मिस्र के पुस्तकालय में मौजूद है।

जीवन के अन्तिम भाग में वह मिस्र की अल-अज़हर यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे थे। 1406 ई. में मिस्र में ही उनका देहांत हुआ।

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तबरी(839 ई० 933 ई.)

तबरी
(839 ई० 933 ई.)

तबरी का पूरा नाम अबू जाफ़र मुहम्मद इब्ने जरीर था। वह अपने युग के महान इतिहासकार, धर्मशास्त्री और यात्री गुज़रे हैं। उनका जन्म 839 ई. में तबरिस्तान के इलाक़े आमिल में हुआ। उन्हें बचपन से ही लिखने-पढ़ने और सैर करने का शौक़ था। तबरी की आरम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। सात वर्ष की आयु में उन्होंने कुरआन हिफ़्ज़ (कंठस्थ) कर लिया। उनके पिता एक धनी व्यक्ति थे। इसलिए तबरी को घूमने-फिरने के लिए पैसे की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने इस्लामी जगत के सभी शिक्षा केन्द्रों का दौरा किया। घूमते-घूमते वह बग़दाद पहुँचे जहाँ इमाम अहमद बिन हंबल पढ़ाते थे लेकिन तबरी के वहाँ पहुंचने से पहले ही इमाम अहमद का निधन हो गया।

– अरबों के रहन-सहन और संस्कृति के बारे में उन्होंने बचपन से ही काफ़ी जानकारी प्राप्त कर ली थी जिससे उन्हें अरबों का इतिहास लिखने में बड़ी मदद मिली। इतिहास के अलावा वह गणित, आयुर्विज्ञान, नीतिशास्त्र और अरबी साहित्य में भी दक्ष थे।

इतिहास पर उन्होंने एक प्रामाणिक पुस्तक ‘अल रुसूल-वल-मुलूक’ लिखी। इस पुस्तक में विश्व इतिहास का बारह खण्डों में वर्णन है। बाद में आने वाले सभी इतिहासकारों ने इस पुस्तक से फ़ायदा उठाया। ‘अल-रुसूल-वल-मुलूक’ में धरती और आकाश की उत्पत्ती, आदम के जन्म, नबियों और बादशाहों के हालात विस्तार से लिखे हैं।

तबरी को इतिहास का पितामह माना जाता है। उन्होंने एक पुस्तक ‘तारीख़ुल रिजाल’ भी लिखी है। इस पुस्तक में हदीस (हज़रत मुहम्मद सल्ल० के कथन) का वर्णन करने वाले लोगों के बारे में जानकारी दी गई है। तबरी हर बात शोध और खोजबीन के पश्चात् ही लिखा करते थे। उन्होंने जीवन का बड़ा भाग खोजबीन में गुजारा।

यह तबरी की कोशिशों का नतीजा है कि हम इतिहास के उन कालखण्डों से परिचित हैं जो विश्वसनीय समझे जाते हैं।

तबरी का अन्तिम समय बग़दाद में पुस्तक लेखन में गुजरा और वहीं 933 ई० में देहांत हुआ।

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