Day: May 22, 2019
स्पेन में मुसलमानों के उत्थान और पतन का इतिहास : एंडलुशिया में इस्लामी सभ्यता का आगमन
इस्लाम का आरम्भ स्पेन में 711 ई0 में अरब के बनी उमैय्या के शासनकाल में हुआ था। मुस्लिम शासन वहाँ 1492 ई0 तक रहा। फिर वहाँ ना कोई मुस्लिम रहा ना ही कोई एक भी मस्जिद बची। 711 ई0 में इस्लाम तेज़ी से फैल रहा था। अरब ने अफ्रीका के बड़े हिससे जीत लिए थे, तथा अब यूरोप की तरफ देख रहे थे तभी सेस्ता का शासक ज्यूलियन अफ्रीका के अमीर मूसा बिन नसीर के पास आता है। वह प्रस्ताव रखता है एन्डालुसिया यानि स्पेन पे आक्रमण का। मूसा उसकी बातों पर गौर करते है कि तुम ईसाई हो कर मेरा साथ क्यों दे रहे हो? ज्यूलियन बताता है कि उसकी लड़की की इज़्ज़त एन्डालुसिया यानि स्पेन के राजा राडरकि ने लूट ली है। वह उसका बदला लेना चाहता है परन्तु उसके पास ज़्यादा सेना नहीं है। वह मूसा को हमले के तैयार कर लेता है तथा मूसा तारिक बिन ज़ियाद को 7000 की सेना के साथ हमले के लिए एन्डालुसिया यानि स्पेन भेजते हैं।
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स्पेन
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स्पेन (स्पानी: España, एस्पाञा), आधिकारिक तौर पर स्पेन की राजशाही (स्पानी: Reino de España), एक यूरोपीय देश और यूरोपीय संघ का एक सदस्य राष्ट्र है। यह यूरोप के दक्षिणपश्चिम में इबेरियन प्रायद्वीप पर स्थित है, इसके दक्षिण और पूर्व में भूमध्य सागर सिवाय ब्रिटिश प्रवासी क्षेत्र, जिब्राल्टर की एक छोटी से सीमा के, उत्तर में फ्रांस, अण्डोरा और बिस्के की खाड़ी (Gulf of Biscay) तथा और पश्चिमोत्तर और पश्चिम में क्रमश: अटलांटिक महासागर और पुर्तगाल स्थित हैं। 674 किमी लंबे पिरेनीज़ (Pyrenees) पर्वत स्पेन को फ्रांस से अलग करते हैं। यहाँ की भाषा स्पानी (Spanish) है। स्पेनिश अधिकार क्षेत्र में भूमध्य सागर में स्थित बेलियरिक द्वीप समूह, अटलांटिक महासागर में अफ्रीका के तट पर कैनरी द्वीप समूह और उत्तरी अफ्रीका में स्थित दो स्वायत्त शहर सेउटा और मेलिला जो कि मोरक्को सीमा पर स्थित है, शामिल है। इसके अलावा लिविया नामक शहर जो कि फ्रांसीसी क्षेत्र के अंदर स्थित है स्पेन का एक ”बहि:क्षेत्र” है। स्पेन का कुल क्षेत्रफल 504,030 किमी² का है जो पश्चिमी यूरोप में इसे यूरोपीय संघ में फ्रांस के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश बनाता है। स्पेन एक संवैधानिक राजशाही के तहत एक संसदीय सरकार के रूप में गठित एक लोकतंत्र है। स्पेन एक विकसित देश है जिसका सांकेतिक सकल घरेलू उत्पाद इसे दुनिया में बारहवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाता है, यहां जीवन स्तर बहुत ऊँचा है (20 वां उच्चतम मानव विकास सूचकांक), 2005 तक जीवन की गुणवत्ता सूचकांक की वरीयता के अनुसार इसका स्थान दसवां था। यह संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ, नाटो, ओईसीडी और विश्व व्यापार संगठन का एक सदस्य है। .
स्पेन पर मुसलमानों का शासन
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मुसलमानों ने स्पेन पर लगभग 800 वर्ष शासन किया और वहॉ उन्होने कभी किसी को इस्लाम स्वीकार करने के लिए मज़बूर नही किया। बाद में ईसाई धार्मिक योद्धा स्पेन आए और उन्होने मुसलमानों का सफाया कर दिया और वहॉ एक भी मुसलमान बाकी़ न रहा जो खुलेतौर पर अजा़न दें सके।
मुसलमान 1400 वर्ष तक अरब के शासक रहें। कुछ वर्षो तक वहॉ ब्रिटिश राज्य रहा और कुछ वर्षो तक फ्रांसीसियों ने शासन किया। कुल मिलाकर मुसलमानों ने वहॉ 1400 वर्ष तक शासन किया ।
आज भी वहॉ एक करोड़ चालीस लाख अरब नसली ईसाई र्है। यदि मुसलमानों ने तलवार का प्रयोग किया होता तो वहॉ एक भी अरब मूल का ईसाई बाक़ी नही रहता।
मुसलमानों ने भारत पर लगभग 1000 वर्ष शासन किया। यदि वे चाहते तो भारत के एक-एक गै़र-मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करने पर मज़बूर कर देते क्योंकि इसके लिए उनकेपास शक्ति थी। आज 80/ गै़र-मुस्लिम भारत में हैं जो इस तथ्य के गवाह हैं कि इस्लाम तलवार से नहीं फैला।
इन्डोनेशिया (Indonesia) एक देश हैं जहॉ संसार में सबसे अधिक मुसलमान हैं। मलेशिया (Malaysia) में मुसलमान बहु-संख्यक हैं। यहॉ प्रश्न उठता हैं कि आख़िर कौन-सी मुसलमान सेना इन्डोनेशिया और मलेशिया गइ । ?
इसी प्रकार इस्लाम तीव्र गति से अफ़्रीकाके पूर्वी तट पर फैला। फिर कोइ यह प्रश्न कर सकता हैं कि यदि इस्लाम तलवार से फैला तो कौन-सी मुस्लिम सेना अफ़्रीका के पूर्वी तट की ओर गइ थी? और यदि कोई तलवार मुसलमान के पास होती तब भी वे इसकी प्रयोग इस्लाम के प्रचार के लिए नहीं कर सकते थें।
क्योकि पवित्र क़ुरआन में कहा गया हैं- ‘‘ धर्म में कोेई जोर-जबरदस्ती न करो, सत्य, असत्य से साफ़ भिन्न दिखाेई देता हैं।’’ (क़ुरआन, 2:256)
पवित्र कु़रआन हैं- ‘‘लोगो को अल्लाह के मार्ग की तरफ़ बुलाओ, परंतु बुद्धिमत्ता और सदुपदेश के साथ, और उनसे वाद-विवाद करो उस तरीक़े से जो सबसे अच्छा और निर्मल हों।’’ (क़ुरआन, 16:125)
पहले बात नास्तिको से शुरू करते हैं….. लेनिन …मुसोलिनी. .. माओ …. स्टालिन और हिटलर इनके द्वारा या इनके कारण मारे गये लोग और तबाह किया गया सभय समाज ….अगर नास्तिक आतंकवाद नही है. …
अगर यहूदी पूंजीपतियों द्वारा पूरी दुनिया मे हथियारो का बेचना…संसाधनों को कब्जाना और पैसे के दम पर विश्व स्तरीय गुंडा ऐलिमेंट को बढावा देना …यहूदी आतंकवाद नही है. ..
पूरे यूरोप मे सैकडो साल तक सत्ता संघर्ष के लिए हुए लाखो लोगो का कत्ल ए आम ..और दोनो विश्व युद्ध मे ईसाई हुकूमतो का टकराव …. अगर ईसाई आतंकवाद नही है. ..
बर्मा मे लाखो लोगो का सिर्फ धर्म विशेष का होने के कारण खून ..औरतो से बलात्कार. .बच्चो पर इंसानियत को शरेमशार करने वाला जुल्म. … अगर बुद्धिषट आतंकवाद नही है. ….
माओवादी …नागा …बोडो …रणवीर सेना … अल गाय दा और धर्म के नाम पर दंगा करके मारकाट करना …. अगर हिंदू आतंकवाद नही …
अतीत में एंडलुशिया में इस्लामी सभ्यता के आगमन
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एंडलुशिया या इबेरियन प्रायद्वीप दक्षिण पश्चिमी यूरोप का क्षेत्र है जिसमें स्पेन, पुर्तगाल और जिब्राल्टर का इलाक़ा शामिल है।यह क्षेत्र आठ सौ बरस तक इस्लामी सभ्यता का एक भाग रहा है और इसे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक मैदानों में पूरब व पश्चिम के बीच संपर्क पुल की हैसियत हासिल थी।
एंडलुशिया के प्राचीन लोग इबेरियन जाति के थे और उन्हीं के नाम से यह प्रायद्वीप पहचाना जाता था लेकिन उनके अलावा फ़िनिशिया, उसके बाद यूनानी और फिर कारताज जैसी जातियां भी इस क्षेत्र में आईं और यहीं की हो कर रह गईं। इसी तरह एक लम्बे समय तक रोम के लोगों ने भी यहां शासन किया। इबेरियन प्रायद्वीप रोम सरकार के लिए बहुत आवश्यक था क्योंकि यह क्षेत्र यूरोप व अफ़्रीक़ा के मार्ग पर स्थित था और इन दोनों महाद्वीपों को जोड़ता था। रोमियों ने पांचवीं शताब्दी ईसवी तक एंडलुशिया पर शासन किया यहां तक कि गोथ जाति के लोग हमलावरों के रूप में इस प्रायद्वीप में घुसे और उन्होंने रोमियों को मार भगाया। इस तरह एंडलुशिया छठी शताब्दी में गोथों के क़ब्ज़े में आ गया। गोथ शासक अत्यंत क्रूर व अत्याचारी थे और उनका ज़ुल्म इतना अधिक बढ़ चुका था कि लोग उनसे नफ़रत करने लगे थे। अतः जब सन 714 में मुसलमानों ने हमला किया तो अधिकतर अहम और बड़े शहरों ने अपने दरवाज़े उनके लिए खोल दिए। दूसरे शब्दों में उन्होंने अपने अत्याचारी शासकों से मुक्ति के लिए मुसलमानों की शरण ली।
स्पेन में मुसलमान पहली बार वर्ष 89 हिजरी में दाख़िल हुए। यह उमवी शासक वलीद बिन अब्दुल मलिक का ज़माना था। उसने मूसा बिन नसीर नामक एक व्यक्ति को उत्तरी अफ़्रीक़ा का शासक नियुक्त किया जिस पर मुसलमानों ने कुछ समय पहले ही विजय प्राप्त की थी। मूसा बिन नसीर ने कुछ अन्य क्षेत्रों को नियंत्रित करने और वहां के लोगों को इस्लाम का निमंत्रण देने का इरादा किया। इसके लिए उसने स्पेन का रुख़ किया। मूसा बिन नसीर ने अपने एक कमांडर तारिक़ बिन ज़ियाद को आदेश दिया कि वह स्पेन पर नियंत्रण करे। वह रणकौशल रखने वाली एक छोटी सी सेना के साथ समुद्री जहाज़ के माध्यम से जबले तारिक़ जलडमरू मध्य या जिब्रालटर स्ट्रेट से गुज़रा और 21 शव्वाल सन 92 हिजरी को एक क्षेत्र में पहुंचा जिसका नाम बाद में उसी के नाम पर रखा गया। उस छोटी सी सेना ने चार साल की अवधि में पूरे एंडलुशिया पर विजय प्राप्त कर ली।
जब तारिक़ बिन ज़ियाद ने स्पेन मे क़दम रखा तब यूरोप आस्थाओं की पड़ताल और विज्ञान के विरोध के भंवर में फंसा हुआ था। मध्ययुगीन शताब्दियों में चर्च लोगों की आस्थाओं और उनके ईमान की पड़ताल किया करता था। बहुत से लोगों विशेष कर विद्वानों और वैज्ञानिकों पर आस्थाओं की पड़ताल की अदालतों में जादू-टोने, नास्तिकता और अनेकेश्वरवाद के आरोप लगाए जाते थे। इन लोगों को आरंभ में यातनाएं दी जाती थीं और फिर अंत में अत्यंत अमानवीय तरीक़े से उन्हें मौत की सज़ा दे दी जाती थी। मुसलमानों के आगमन के बाद इस क्षेत्र की क़िस्मत पूरी तरह बदल गई।
मुसलमानों ने एंडलुशिया पर विजय के बाद इस क्षेत्र के ईसाइयों और यहूदियों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित बनाया और उन्हें अपनी शरण में रखा। उनके साथ मुसलमानों का इस्लामी और भला व्यवहार इस प्रकार का था कि उनके शासनकाल में यहूदियों और ईसाइयों को किसी भी अन्य ज़माने से अधिक स्वतंत्रता व सुरक्षा प्राप्त थी। उनकी संपत्तियां और उपासना स्थल सुरक्षित थे और अगर उनके विरुद्ध कोई मुक़द्दमा होता था तो अधिकतर उनके अपने क़ानून के हिसाब से उनकी विशेष अदालतों में चलाया जाता था। इस धार्मिक स्वतंत्रता ने ईसाइयों को मुसलमानों के निकट कर दिया, इस प्रकार से कि दोनों समुदायों के बीच विवाह भी होने लगे। इसी तरह बहुत से ईसाइयों ने अपने लिए इस्लामी नामों का चयन किया और वे कई संस्कारों में अपने मुस्लिम पड़ोसियों का अनुसरण करने लगे। जब यूरोप के कुछ क्षेत्रों में यहूदियों का जनसंहार शुरू हुआ तो उनमें से बहुत से लोगों ने एंडलुशिया में शरण ली और मुसलमानों ने उनका सहर्ष स्वागत किया और उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित बनाया।
मुसलमानों के हाथों एंडलुशिया की विजय के बाद इस क्षेत्र में कला व संस्कृति का चहुंमुखी विकास हुआ। “सभ्यता का संक्षिप्त इतिहास” (A Short History of Civlization) नामक किताब के लेखक हेनरी लूकस के अनुसार स्पेन में मुसलमानों की उपलब्धियों का यूरोप की संस्कृति में अत्यधिक महत्व है। मुसलमानों के लिए स्पेन के दरवाज़े खुलने के बाद, मुस्लिम शासकों ने इस क्षेत्र को इस्लामी संस्कृति, शिक्षा व विचारों से अवगत कराया। इस्लामी मान्यताओं व संस्कारों को स्वीकार करते ही लोगों के जीवन में बड़ी तेज़ी से बदलाव आने लगा। इस प्रकार से कि इस क्षेत्र के कोरडोबा, टोलेडो और ग्रेनेडा जैसे शहर विज्ञान, संस्कृति व कला के विकास के केंद्रों में बदल गए और इन क्षेत्रों से इस्लामी शिक्षाएं यूरोप के अन्य ईसाई क्षेत्रों विशेष कर फ़्रान्स और जर्मनी पहुंचने लगीं।
एंडलुशिया में इस्लाम के आगमन के बाद जो वैज्ञानिक आंदोलन उत्पन्न हुआ उसने लोगों की योग्यताओं व क्षमताओं को निखार कर इब्ने रुश्द, इब्ने अरबी, इब्ने सैयद बतलमयूसी, हैयान बिन ख़लफ़ क़ुरतुबी, अब्दुल हमीद बिन उन्दुलुसी और इसी तरह के अनेक विद्वान अपनी यादगार के रूप में छोड़े। क़ुरतुबा या कोरडोबा के केंद्रीय पुस्तकालय में चार लाख किताबें थीं जबकि बारहवीं शताब्दी ईसवी से पहले तक ईसाई यूरोप के बड़े से बड़े पुस्तकालय में कुछ सौ से अधिक किताबें नहीं थीं।
इस्लाम, एंडलुशिया में प्रगति, विकास, सामाजिक व्यवस्थ के गठन और इस क्षेत्र के फलने फूलने का कारण बना। इसी लिए शहरों ने क्षेत्रफल, सार्वजनिक कोषों और संपर्क संबंधी मामलों में बड़ी तेज़ी से प्रगति हुई। विभिन्न उद्योगों में आर्थिक गतिविधियों में विस्तार के चलते बुनाई और कपड़े की तैयारी जैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से ज़बरदस्त तरक़्क़ी हुई। ग्रेनेडा के कपड़ा उद्योग की इतनी ख्याति थी कि वहां के कपड़े यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों में निर्यात होते थे। उच्च गुणवत्ता और रोचक विविधता के इन कपड़ों के यूरोपीय मंडियों में पहुंचने के कारण इस महाद्वीप के ईसाई लोगों का पहनावा, मुस्लिम समाजों से मिलता जुलता हो गया। अब्बास बिन फ़रनास वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पत्थर से शीशा तैयार किया। कोरडोबा के रहने वाले अब्बास बिन फ़रनास ने नवीं शताब्दी हिजरी में ऐनक बनाई और इसी तरह एक जटिल मैकेनिज़्म के साथ थर्मामीटर तैयार किया। उन्होंन इसी तरह एक उड़ने वाली मशीन का भी आविष्कार किया था।
मुसलमानों ने खेती की नई शैली अरब से यूरोप स्थानांतरित करके इस क्षेत्र के ग्रामीण जीवन को बदल दिया। मुहम्मद बिन अव्वाम ने कृषी संबंधी अपनी किताब में लगभग छः सौ वनस्पतियों की समीक्षा की है। इस किताब का मूल्य उन नए विचारों के कारण है जो उन्होंने विभिन्न प्रकार की मिट्टियों, खादों, जोड़ों, वनस्पतियों की बीमारियों और उनके उपचार और फलों की देखभाल की शैली विशेष कर उन्हें डिब्बाबंद करने के तरीक़ों के बारे में पेश किए हैं।
इसके अलावा यूरोप वालों ने कृषि विकास और खेती की शैलियों के बारे में एंडलुशिया के मुसलमानों के नए नए तरीक़ों से बहुत लाभ उठाया और कपास व केसर जैसी वनस्पतियों की खेती मुस्लिम क्षेत्रों से यूरोप तक पहुंच गई और वहां प्रचलित हुई। खेती में विकास ने व्यापार पर भी बड़ा सकारात्मक प्रभाव डाला और मालागा और अलमेरिया की बंदरगाहें व्यापारिक वस्तुओं के निर्यात के भीड़-भाड़ वाले केंद्रों में परिवर्तित हो गईं। स्पेन में बनी हुई वस्तुएं, यूरोप के अन्य क्षेत्रों तक निर्यात होती थी बल्कि एंडलुशिया की बनी हुई कुछ चीज़ें तो मक्के, बग़दाद और दमिश्क़ तक के बाज़ारों में दिखाई देती थीं।
एंडलुशिया में ऊंची ऊंची इमारतें भी मुसलमानों की कला और योग्यताओं का मुंह बोलता प्रमाण हैं। बड़े बड़े स्तंभ, मीनार, गुंबद और चूने के सुंदर काम एंडलुशिया के मुसलमानों की बेजोड़ वास्तुकला का पता देते हैं। कोरडोबा की जामा मस्जिद उस काल की अहम इमारतों में से एक है। अलबत्ता इस पवित्र स्थल के कुछ भाग, एंडलुशिया के मुसलमानों पर ईसाइयों की विजय के बाद ध्वस्त कर दिए गए ताकि वहां पर एक बड़ा चर्च बनाया जाए लेकिन इसका एक बड़ा भाग अब भी उसी तरह बाक़ी है जिस तरह नवीं शताब्दी ईसवी में था।
जर्मनी की एक प्रख्यात खोजकर्ता सिगरिड हुनके ने अपनी किताब में लिखा है कि स्पेन इस्लामी कला का चरम तक पहुंचने का एक उत्तम नमूना है। अगर संसार में कोई विकास था तो वह एंडलुशिया में व्यवहारिक हुआ। सबसे समृद्ध प्रगति और उच्चतम विकास ठीक उसी स्थान पर हुआ जहां कभी कोई अहम स्थानीय सभ्यता परवान नहीं चढ़ी थी। हुनके इसी तरह लिखती हैं कि कोरडोबा में एक बड़ा चर्च था जिसमें ईसाइयों को उपासना की पूरी स्वतंत्रता हासिल थी जबकि मुसलमान विजेताओं ने अपने लिए शहर के आस-पास साधारण सी मस्जिदें बनाई थीं। जब कोरडोबा की आबादी बढ़ने लगी तो इस शहर में एक बड़ी मस्जिद का निर्माण आवश्यक हो गया जो प्रशासनिक मामलों का केंद्र हो। इस आधार पर तत्कालीन शासक अब्दुर्रहमान ने ईसाइयों से चर्च ख़रीद लिया और उसे एक बड़ी मस्जिद में बदल दिया।
जो कुछ अब तक कहा गया वह हरित महाद्वीप यूरोप में महान इस्लामी सभ्यता के उदय व विकास का एक छोटा सा भाग था। इस बीच एक अहम और ध्यान योग्य बिंदु यह है कि इस्लामी एंडलुशिया अपने भरपूर वैभव के साथ आठ सौ साल बाद भ्रष्टाचार और निरंकुशता के फैलने और मुसलमानों के विचारों व आस्थाओं के तबाह होने के कारण पूरी तरह तबाह हो गया। एक यूरोपीय देश में इस्लामी सभ्यता के उदय और पतन के आज के मुसलमानों के लिए अनेक पाठ हैं। ईरान के महान विचारक शहीद मुतह्हरी इस बारे में कहते हैं। मानव इतिहास यह दर्शाता है कि जब भी अत्याचारी शासक किसी समाज पर अत्याचार करना चाहते हैं, समाज में भ्रष्टाचार फैलाना चाहते हैं तो उनका अंत तबाही के अलावा कुछ नहीं होता, इसका स्पष्ट उदाहरण मुसलमान स्पेन है। ईसाइयों ने यही काम किया और उन्होंने स्पने को मुसलमानों के हाथों से निकालने के लिए उनके बीच निरंकुशता और बुराइयां फैला दीं जिसके बाद मुसलमानों का संकल्प, ईमान और पवित्र आत्मा कमज़ोर पड़ गई और उनका शासन समाप्त हो गया
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ठीक 527 साल पहले 2 जववरी1492 ही वह मनहूस दिन था जब उनदलस( स्पेन) की आखिरी मुस्लिम रियासत गरनाता के हुकमरान अबु अब्दुल्ला ने कशतीला और अरगौन के ईसाई हुकमरान इजाबेला और फरडीनंद के सामने हथियार डाल दिये थे।इस तरह आज ही के दिन इस्पेन पर मुसलमानों की तकरीबन 800 साला हुकूमत का खातमा हो गया था।ऐ गुलसिताने उनदलस वह दिन है याद तुझको,
था तेरी डालियों में जब आशियां हमारा।=============
स्पेन के अलहम्ब्रा पैलेस में 525 साल बाद सुनाई दी अज़ान
अलहम्ब्रा पैलेस, अरबी में क़लाट अल-हामरा, एक महल और किले परिसर है जो ग्रेनेडा, अन्डालुसिया, स्पेन में स्थित है। स्पेन में ग्रेनेडा का एक विडियो वायरल हो गया है। इस विडियो में अलहम्बरा पैलेस में आजन पुकारते हुए दिख रहा एक आदमी जो सीरिया मूल के मौआज़ अल-नास है। उसने कहा कि उन्होंने महसूस किया कि दीवारों में अल्लाह की पुकार सुनाई दे रहा है।
गौरतलब है की अलहाम्ब्रा पैलेस का निर्माण ग्रेनेडा के मुस्लिम शासकों द्वारा किया गया था। मुस्लिम 711 में स्पेन आए और लगभग 800 वर्षों तक शासन किया। 14 9 2 में, ग्रेनेडा ईसाई शासन के तहत आया था।
जिस वजह से मुसलमानों को ईसाई धर्म परिवर्तित करना पड़ा या अत्याचार का सामना करना पड़ा। कई लोग परिवर्तित हुए भी लेकिन 1501 तक, कोई भी मुस्लिम आधिकारिक तौर पर ग्रेनेडा में नहीं रहे।
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चौदहवीं ईसवी शताब्दी में स्पेन
आठवीं हिजरी शताब्दी अर्थात चौदहवीं ईसवी शताब्दी में स्पेन के दक्षिण में स्थित आंदालुसिया जो इस्लामी जगत का एक छोटा सा भाग था, मंगोलों के विनाशकारी आक्रमणों से बचा रहा किंतु १५वीं शताब्दी में यह क्षेत्र मुसलमानों के हाथों से निकल गया लेकिन इसके बावजूद विशाल इस्लामी जगत का यह छोटा सा भाग, अपने अंतिम काल में बहुत सी सुन्दर कलाओं को अपने भीतर समोए हुए था।
क़स्रुलहमरा या लाल महल उसी काल की भव्य इमारत है। इस महल को बनी नस्र वंश के पहले शासक मुहम्मद बिन अहमर ने वर्ष १२३६ ईसवी में बनवाया था। इस शासक ने अपना महल चट्टानों से भरे एक ऊंचे पहाड़ पर बनवाया था और उसके बाद उसकी पीढ़ी के हर शासक ने उस महल में कुछ न कुछ बढ़ाया। पहाड़ की चोटी पर अलहमरा महल के ऊंचे मीनारों और बुर्जियों ने अलक़स्बा नगर को घेर रखा है।
इस महल का एक हाल प्रजा की शिकायतों को सुनने के लिए बनाया गया था। खंबों से भरा यह हाल आज भी बाक़ी है और टाइली और चूने के काम से उसकी सजावट की पुनः मरम्मत की गयी है। परिजनों से विशेष प्रांगड़ की दीवारों को चूने के अत्याधिक सूक्ष्म काम से सजाया गया था । अलहमरा महल में ईरान में आरंभ होने वाली मुक़रनस कला के नवीन नमूने देखे जा सकते हैं।
यह कला वह ईरान स लघु एशिया और फिर मिस्र गयी। मुक़रनस एक शिल्प कला में ईरानी कलाकारों का अविष्कार है जिसमें उभरी हुई तिकोनी सजावटों से इमारतों को सजाया जाता है।
आंदालुसिया के इस्लामी महलों की सुन्दरता ने स्पेन के ईसाई शिल्पकारों को भी आश्चर्यजनक रूप स प्रभावित किया। स्पेन के विभिन्न नगरों में ईसाई शासक, मुसलमान शिल्पकारों को इस्लामी शैली पर भवन निर्माण का आदेश देते और प्राणंड़ वाले इस्लामी शैली के घरों की उन्हें एसी आदत पड़ गयी थी कि वे यह निर्माण शैली अमरीका भी ले गये।
दक्षिणी स्पेन के ग्रेनाडा नगर के कुम्हारों ने जिन्होंने रंग चढ़े मिट्टी के बर्तन का काम मिस्रियों से सीखा था, मुसलमानों में लोकप्रिय नीले रंग को सुनहरे रंग से मिलाकर अत्याधिक सुन्दर टाइलें बनाईं और उन्हें अलहमरा महल तथा प्रभावशाली लोगों को घरों में प्रयोग किया।
स्पेन के मिट्टी के रंगीन प्यालों ने आगे चल कर १५वीं शताब्दी में इटली में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला पर गहरे प्रभाव डाले। ग्रेनाडा में कला के विकास का एक अन्य नमूना वहां के रेशमी कपड़ों में मिलता है जो भारतीय शैली की डिज़ाइनों से सजाए जाते थे।
मंगोलों के साथ इस्लामी क्षेत्रों तक पहुंचने वाली चीनी कला के स्पेन के मुसलमानों की कला पर प्रभावों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। बनी नस्र के शासक, ग्रेनाडा में एक प्रकार की चित्रकला को भी प्रोत्साहन देते थे।
लघु एशिया में उस्मानी शासकों के राज्य भी इस्लामी कला के प्रदर्शन का स्थल रहे हैं। उन्होंने लघु एशिया में अपने शासन की स्थापना के बाद नयी डिज़ाइन के साथ मस्जिदों का निर्माण किया जो वास्तव में ईरान में सलजूक़ी काल की पाठशालाओं और बाईज़न्टाइन गुंबदीय गिरिजाघरों का मिला जुला रूप थीं।
वास्तव में अया सोफिया या हागिया सोफिया गिरिजाघर का प्रभाव जो बाद में मस्जिद बना दिया गया, उस्मानी शासकों पर इतना गहरा था कि उसके चिन्ह नवीं हिजरी सदी के बाद कोंस्तान्तिनोपाल या उस्मानी शासकों के अन्य क्षेत्रों में बनायी जानी वाली बहुत सी मस्जिदों में नज़र आते हैं। इस प्रकार की सब से भव्य और विशाल मस्जिद, सुल्तान अहमद प्रथम मस्जिद है।
इस मस्जिद को वर्ष १६०९ से १६१६ ईसवी के मध्य बनाया गया और उसे देख कर एसा लगता है कि उसना नक़्शा अया सोफिया गिरिजाघर की भांति चार कोणीय बनाया गया है किंतु अधिक विशाल और अधिक भव्य रूप में । इस मस्जिद में एक मुख्य गुंबद है जो चार आधे गुंबदों के मध्य स्थित है और उसके चारों कोनों पर भी मीनारों पर चार छोटे छोटे गुंबद नज़र आते हैं।
सुल्तान सुलैमान क़ानूनी के आदेश पर और प्रसिद्ध उस्मानी कमांडर सेनान पाशा की डिजाइन के साथ बनने वाली सुलैमानिया मस्जिद भी इस्लामी शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है। इस मस्जिद का हाल, एक बड़े और विशाल गुंबद के नीचे है जिसके चारो ओर उससे छोटे मीनार बनाए गये हैं। वास्तव में इस मस्जिद के निर्माण में, उस्मानी शिल्पकला को सलज़ूकियों की पंरपराओं से मिलाकर पेश किया गया है।
सेनान पाशा ने इस मस्जिद के निर्माण के बाद, रूस्तम पाशा के नाम से एक अन्य मस्जिद का भी वर्ष १५६० ईसवी में निर्माण किया। उन्होंने इस मस्जिद को बाज़ारों और उसमी विशेष बनावट के मध्य डिज़ाइन किया। यह मस्जिद शिल्प कला का उत्कृष्ट नमूना होने के साथ ही साथ विशेष रूप से सजाई भी गयी है। फूल पत्तियों की डिज़ाइनों वाली फोरोज़ी व नारंगी रंगों की टाइलों से मस्जिद की दीवारों और छत को रोकने वाले खंभों को बड़ी सुन्दरता से सजाया गया है।
नमाज़ पढ़ाने वाले से विशेष स्थल अर्थात मेहराब को गुलदान की डिज़ाइन वाली टाइलों से सजाया गया है और हर स्थान पर टयूलिप की कलियों की डिज़ाइन नजर आती है और पूरी मस्जिद में लगी टाइलों पर ८५ से अधिक प्रकार के टयूलिप की डिज़ाइनें देखी जा सकती हैं।
इस मस्जिद के निर्माण के समय तुर्की के नागरिकों में मिट्टी के बर्तन और टाइल बनाने की कला भी अपनी चरम सीमा पर पहुंची हुई थी और वे प्राचीन शैली के बजाए चौकोर और रंगीन टाइलों को विभिन्न प्रकार के हल्के रंगों से सजाते थे। इसी प्रकार वे प्लेटों, प्यालों और मस्जिद की फानूस को फूल पत्तियों की डिज़ाइनों से सजाते थे।
सुल्तान मुहम्मद फातेह का महल भी ओटोमन या उसमानी काल में शिल्पकला का एक अत्यन्त उत्कृष्ट नमूना है। यह महल एक छोटे से नगर की भांति है जिसमें चार बड़े प्रांगड़ और कई प्रवेश द्वार हैं। उस्मानी क्षेत्रों में तैयार रेशम और मखमल आठवीं हिजरी क़मरी शताब्दी में युरोप में लोकप्रिय था जैसा कि उस्मानी काल के ग़ालीचे भी युरोप वासियों विशेषकर इटली के लोगों को बहुत भाते थे।
भारत में भी इस्लामी अवशेष देखे जा सकते हैं। मंगोलों ने कला को इस्लामी देशों से भारत तक पहुंचाया विशेषकर ईरान के महान चित्रकार कमालुद्दीन बेहज़ाद की चित्रकला को मंगोलों ने मुगल शासकों के रूप में भारत पहुंचाया। भारतीय चित्रकला में मुग़ल शैली वास्तव में ईरानी व भारतीय चित्रकला के निकली है।
मीर सैयद अली तबरेज़ी और अब्दुस्समद शीराज़ी एसे कलाकार थे जिन्हों ने भारतीय कलाकारों की सहायता से हम्ज़ानामा नामक प्रसिद्ध कथा संग्रह के लिए चित्र बनाए और भारतीय मुगल शैली के संस्थापक बने।
हम्ज़ानामा से प्रसिद्ध कहानियों की इस किताब में १४०० सभाओं का चित्रण किया गया है तथा यह किताब बारह जिल्दों पर आधारित है और यह काम प्रसिद्ध मुगल शासक जलालुद्दीन अकबर के काल तक जारी रहा।
सम्राट अकबर भारत के प्रसिद्ध मुगल शासक थे जिन्हें शिल्पकला से विशेष लगाव था। अकबरनामा के लिए जिन असंख्य सभाओं का चित्रण किया गया है उनमें से बहुत सी नैतिक विशेषताओं को उजागर करती हैं।
यह किताब, सम्राट अकबर के काल की घटनाओं का वर्णन करती हैं। सम्राट अकबर ने उत्तरी भारत के आगरा और फतेहपुर सीकरी नगरों में कई बड़ी बड़ी इमारतें बनवाई हैं फतेहपुर की विशाल मस्जिद और उसका सुन्दर दक्षिणी प्रवेश द्वार कि जिसे बुलंद दरवाज़ा कहा जाता है, भारत व ईरान की शिल्प कला का मिला जुला रूप है।
वर्ष १६२८ ईसवी में मुगल शासक, शहाबुद्दीन उर्फ शाहजहां के काल में भारतीय चित्रकला में अत्याधिक विकास हुआ किंतु स्वंय शाहजहां को शिल्पकला में अत्याधिक रूचि थी। शाहजहां के ही आदेश से विश्व प्रसिद्ध ताजमहल का निर्माण हुआ जो वास्तव में शाहजहां की पत्नी अनजुमंद बानो का मक़बरा है।
ताजमहल की निर्माण शैली ईरान के तैमूरी काल की शैली से प्रभावित है। ताजमहल विश्व की एक अत्यन्त सुन्दर इमारत है जिसे संगेमरमर से आगरा में जमुना नदी के तट पर ईरानी शैली में बने एक बाग़ में बनाया गया है।
ताजमहल के मीनार और उसकी निर्माण शैली पूर्ण रूप से ईरानी शैली है। शाहजहां की मृत्यु और औरंगज़ेब के सत्ता संभालने के साथ ही भारत में आकर्षक कलाओं का युग समाप्त हो गया।
वर्ष १७२७ ईसवी में तुर्की के इस्तांबूल नगर में छापा उद्योग के आने के साथ हस्तलिखित पुस्तकों और उनकी प्रतियां तैयार करने का युग समाप्त हो गया। उस्मानी शिल्पकला, सुल्तान अहमद त्रितीय के काल से युरोपीय शिल्प कला के प्रभाव में आयी और मस्जिदों के स्थान पर युरोपीय शैली से मिलते जुलते महलों पर ध्यान दिया जाने लगा।
इसी प्रकार तुर्की के चित्रकार आयल पेंटिंग की ओर आकृष्ट हो गये जिसके बाद मिट्टी के बर्तन और टाइल बनाने की अन्य इसलामी कलाओं में दसवीं हिजरी शताब्दी जैसा विकास नहीं रहा किंतु यह कलाएं पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुईं और रत्नों, ज़री तथा कढ़ाई की कलाएं १८वीं ईसवी शताब्दी तक बाक़ी रहने में सफल रहीं।
युरोप को तुर्की की जो कलाएं पसन्द थीं वह अनातोलिया और क़फक़ाज़ में बुने गये गालीचे थे जिन्हें सुन्दर फूल पत्तियों की डिज़ाइनों से सजाया जाता था। इसी प्रकार ईरान के एक अन्य प्रकार के क़ालीनों को भी युरोप में बहुत पसन्द किया जाता था जो सीमवर्ती क्षेत्रों में बुने जाते ।
इन क़ालीनमें पर एक बाग नज़र आता जिसे चार भागों में बांटा गया होता था तथा उसके सभी भागों पर फूल पत्तियों की डिज़ाइनें बुनी जातीं। इस प्रकार से इस्लामी कला, उन विभिन्न राष्ट्रों की कलाओं का मिला जुला रूप थी जिन्हों ने इस्लाम स्वीकार करके कला में विकास की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया और यही विषय, इस्लामी सभ्यता के विकास का भी कारण बना।
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स्पेन में मुसलमानों के उत्थान और पतन का इतिहास
स्पेन से मुसलमानों की अनेक मीठी और कड़वी यादें जुड़ी हुई हैं। यद्यपि इन यादों के साथ बहुत से अनुभव एवं पाठ भी हैं। इस्लामी जगत के इस भाग के इतिहास के अवलोकन से मुसलमानों के उत्थान और पतन के कारण अच्छी तरह स्पष्ट हो जाते हैं तथा इस्लामी जगत के लिए यह महत्वपूर्ण एतिहासिक अनुभव काफी लाभदायक हो सकते हैं।
वैभवशाली आंदालुसिया का जायज़ा लेते हैं तो यह प्रश्न ज़हन में आता है कि वह इस्लामी समाज जिसने आठवीं से लेकर पंदरहवीं शताब्दी तक विज्ञान, संस्कृति और कला में उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये, कैसे निष्क्रिय हो गया यहां तक कि पूर्णतः इतिहास का भाग बन गया और विश्व के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक मानचित्र से मिट गया? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए उचित होगा पहले आंदालुसिया की श्रेष्ठता और फिर उसके पतन के कारणों का उल्लेख करें।
जब आठवीं शताब्दी के यूरोप के राजनीतिक मानचित्र पर दृष्टि डालते हैं तो देखते हैं कि जिस समय यूरोपीय सभ्य समाज केवल भूमध्यसागर से लगे क्षेत्रों, फ़्रांस, केंद्ररीय यूरोप के कुछ भागों तथा बाल्कन प्रायद्वीप तक सीमित था और ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रिया, रूस, पूरबी यूरोप एवं स्कैंडिनेविया में सभ्य समाज के कोई चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते थे, मुसलमान दो तरफ़ से केंद्रीय यूरोप की ओर बढ़ रहे थे। वे दक्षिण पूर्वी ओर से धीरे-धीरे अनातोलिया प्रायद्वीप और उसके बाद बाल्कन प्रायद्वीप की ओर आगे बढ़ रहे थे, तथा दक्षिण पश्चिमी ओर से औबेरियाई प्रायद्वीप एवं फ़्रांस की दक्षिणी सीमा की ओर बढ़ रहे थे।
इस प्रगति के दौरान मुसलमानों ने अबुल क़ासिम ज़हरावी, इब्ने तुफैल, और इब्ने रुश्द जैसे विद्वान, एवं इब्ने अब्दुलबर जैसे इतिहासकार तथा इब्ने बसाम जैसे साहित्यकार और सैकड़ों महान विद्वानों को प्रशिक्षण दिया और इस्लामी संस्कृति को पश्चिमी धरती तक पहुंचाया।
आठवीं शताब्दी में स्पेन बहुत कमज़ोर स्थिति में था। वहां बंधुआ मज़दूरी और ग़ुलामी का अत्यधिक प्रचलन था। रूम के शासकों ने क्षेत्र पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के उद्देश्य से विज़िगोथ्स शासन से हाथ मिलाकर लोगों पर अत्याचार कर रहे थे। यही कारण है कि स्पेन की जनता ने दिल खोलकर इस्लाम का स्वागत किया।
आंदालुसिया पर मुसलमानों के आठ सौ वर्षीय शासन के इतिहास को तीन चरणों में बाटा जा सकता है।
पहला चरण वह है कि जिसमें सन् 716 से 755 तक आंदालुसिया को दमिश्क़ में बनी उमय्या की ख़िलाफ़त का एक भाग माना जा सकता है। उस समय आंदालुसिया दमिश्क़ की खिलाफ़त द्वारा शासित अफ़्रीक़िया राज्य का एक भाग था।
सन् 719 में बनी उमय्या के ख़लीफ़ा उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ने आंदालुलिया के शासकों की नियुक्ति अपने हाथ में ले ली और समह बिन मालिक ख़ूलानी को वहां का शासक नियुक्त किया। समह ने दक्षिणी फ़्रांस तक मुसलमानों के शासन का विस्तार किया। अब्दुर्रहमान ग़ाफ़िक़ी ने स्पेन में सुधार किये और वहां की स्थिति को सुनियोजित किया।
अब्दुर्रहमान के बाद अरब क़बीलो में मतभेद उत्पन्न हो गये और इन मदभेदों ने आंदालुसिया को भी अपनी चपेट में ले लिया। इन मदभेदों का ईसाइयों ने लाभ उठाया और उत्तरी आंदालुसिया के अनेक नगरों पर नियंत्रण कर लिया। अंततः दमिश्क़ के ख़लीफा की ओर से नियुक्त अंतिम शासक यूसुफ़ बिन अब्दुर्रहमान फहरी ने शासन की बागडोर संभाली।
यह समय वह था कि जब दमिश्क़ की ख़िलाफ़त कमज़ोर पड़ चुकी थी तथा सन् 750 में उसका पतन हो गया। अंततः उमय्यो द्वारा फ़हरी की सेना को पराजय हुई तथा कोर्डोबा पर कब्ज़ा हो गया और आंदालुसियाई उमय्यों के शासन की नींव रखी गई।
आंदालुसिया में मुस्लिम शासन के इतिहास का दूसरा चरण आंदालुसियाई उमय्यो के शासन के नाम से प्रसिद्ध है। तीन शताब्दियों तक 16 उमय्या शासकों ने आंदालुसिया पर शासन किया। उनमें से प्रथम अब्दुर्रहमान बिन माविया बिन हेशाम है और अल मोतमिद बिल्लाह अंतिम शासक है। उमय्यों के शासन के दौरान उत्तरी आंदालुसिया की सीमाएं अनेक बार परिवर्तित हुईं।
इस दौरान शासकों के अत्याचार एवं अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध आंदोलन भी हुए जिनमें वाक़ए खंदक़ और रब्द की ओर संकेत किया जा सकता है। इन प्रतिरोधों और आंदोलनों को अत्यंत कट्टरता से कुचल दिया गया। यह शासन काल भी शासक परिवार के आंतरिक मदभेदों और उसके परिणामस्वरूप समाज में विद्रोह के कारण समाप्त हुआ। इस प्रकार यह क्षेत्र समृद्धता और प्रगति के शिखर से गृहयुद्ध की खाई में गिर गया और अंततः तीन शताब्दियों के बाद यह काल भी समाप्त हो गया।
तीसरा काल मुलूकुत्तवायफ़ी अथवा क़बायली शासनकाल के नाम से प्रसिद्ध है कि जो सन् 1031 से 1492 तक जारी रहा। आंदालुसियाई उमय्यों के पतन के बाद, आंदालुसिया के बड़े भाग में राजनीतिक एकता का विघटन हो गया और बनी हमूद ने अधिकांश दक्षिणी नगरों पर नियंत्रण कर लिया। इसी बीच अरब के अनेक परिवारों ने आंदालुसिया के बड़े नगरों को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। ग़ुलामाने बनी आमिर ने भी पूरब के अधिकतर क्षेत्रों पर नियंत्रण कर लिया।
इस काल में तड़क भड़क एवं दिखावे का अत्यधिक प्रचलन हुआ। नैतिक मूल्य और धार्मिक मान्यताएं कमज़ोर पड़ गईं। दूसरी ओर ईसाइयों ने आंदालुसिया पर निरंतर आक्रमण जारी रखे, ईसाइयों ने मुसलमानों द्वारा शासित पश्चिमी एवं पूर्वी भागों पर नियंत्रण कर लिया। अभी सातवीं क़मरी हिजरी शताब्दी आधी नहीं हुई थी कि अधिकांश आंदालुसिया पर ईसाइयों ने क़ब्ज़ा कर लिया तथा आंदालुसिया पर मुसलमानों का वैभवशाली एवं विशाल शासन केवल दक्षिण में ग्रेनेडा और कुछ दूसरे छोटे नगरों तक सीमित हो कर रह गया।
आंदालुसिया में इस्लाम के विस्तार के दौरान विभिन्न प्रकार के धार्मिक शास्त्रों, हदीस, धर्मशास्त्र, चिकित्सा, दर्शनशास्त्र एवं वाद्शास्त्र, कला, वास्तु-कला, मिट्टी के बर्तन बनाने के उद्योग और सुलेखन इत्यादि ने प्रगति की इस प्रकार कि उस समय के आंदालुसिया को मध्यकालीन युग में इस्लामी देशों तथा यूरोपीय देशों के बीच सांस्कृतिक हस्तांतरण का मुख्य द्वार कहा जा सकता है।
उदाहरण स्वरूप कोर्डोबाई जैसी मस्जिदों का निर्माण, मदीनतुज्ज़हरा महल का स्वागत कक्ष तथा दूसरे प्रसिद्ध धरोहरों का नाम लिया जा सकता हैं।आंदालुसिया के पतन में विभिन्न सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं इसी प्रकार बाहरी कारणों की भूमिका है। इस्लामी जगत पर बनी उमय्या के शासनकाल में आंदालुसिया पर विजय प्राप्त हुई थी।
बनी उमय्या ने इस्लामी व्यवस्था में अनेक प्रकार के विचलनों एवं कुरीतियों का प्रचलन किया जिसके कारण उस समय के इस्लामी समाज को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।
इन विचलनों में से कुछ इस प्रकार हैं ख़िलाफ़त को वंशानुगत बनाना, नस्लीय भेदभाव, लालसा, तड़क भड़क, धन एवं संपत्ति एकत्रित करना तथा जातीय प्रतिस्पर्धा। आंदालुसिया पर विजय प्राप्ति के समय यह समस्त बुराईयां और विचलन वहां हस्तांतरित हो गये।
पूरे साहस से यह बात कही जा सकती है कि आंदालुसिया में मुसलमानों की अनेक समस्याओं की जड़, बनी उमय्या के वैचारिक विचलन एवं सोच की खोट तथा शासन करने की शैली में पाई जाती है। स्पष्ट है कि समाज में फैला भ्रष्टाचार और बुराईयां इस महान सभ्यता की निष्क्रियता के बाहरी कारणों में से है।
कुछ दूसरे बाहरी कारणो ने भी आंदालुसिया की सभ्यता के पतन में भूमिका निभाई। ईसाइयों का दबाव, पश्चिमी ईसाइयों की ओर से मुसलमानों के बीच फूट डालने की नीति, समाज विशेषकर युवाओं में अनैतिक कृत्यों का विस्तार जैसे कारक इस महान इस्लामी संस्कृति के पतन का कारण बने। वास्तव में बनी उमय्या के शासन द्वारा आंदालुसिया में विचलन का चलन हुआ तथा प्रारंभ से ही लोगों को वास्तविक इस्लाम समझने और उसका ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाई का सामना हुआ जिसके कारण गंभीर समस्याओं से ग्रस्त हो गये।
दूसरी ओर आंदालुसिया के मुसलमानों ने सात शताब्दियों तक कट्टर ईसाइयों के निरंतर आक्रमणों का मुक़ाबला किया। इस्लामी श्रेष्ठतम शिक्षाओं को परिवर्तित एवं बदल दिये जाने के अतिरिक्त यह कारण आंदालुसिया में मुसलमानों के पतन का प्रमुख कारण बने, तथा इसी के परिणामस्वरूप बाहरी कारणों के हस्तक्षेप के लिए भूमि प्रशस्त हुई।
THE MONGOL INVASION AND THE DESTRUCTION OF BAGHDAD
The 1200s started out looking good for the Islamic world. The Crusaders had been defeated and Jerusalem liberated in 1187, the Ismaili Fatimids had finally been removed from harassing the Muslim world in the mid-1100s, and a powerful Khwarazmian Empire had emerged in Persia. However, all that would soon turn around when the ruthless Mongols would make their way into Southwest Asia. The destruction and devastation they left in their path has scarcely been seen anywhere else in history.Who Are The Mongols?The Mongols were a tribe of nomads from Central/North Asia. They lived on the steppe of that region, relying on a nomadic lifestyle of constant movement as a way of life. They were forever dependent on and attached to their horses, which was their main mode of transportation. Religiously, they were polytheistic animists. They never established a large, organized empire, and instead stayed as a loose coalition of tribes north of China.Throughout history, they were usually at war with their neighbors. China to the south in fact built the Great Wall of China during the reign of Emperor Shi Huang (247-221 BC) as a means to keep the Mongols and others away from their villages. The Mongols also feuded with other tribal groups in Central Asia such as Turkic tribes and the Tatars.Genghis KhanMongolian (and world) history changed forever during the rule of Genghis Khan. He was a tribal chief for the Mongols from 1206-1227. During his reign, he managed to unite the many Mongol tribes along with numerous Turkic tribes as well. With a large, unified group, he set about conquering any and all land the Mongol horsemen could reach.He conquered most of Northern China in the 1210s. In doing so, he destroyed the Xia and Jin dynasties, as well as conquered Beijing. He also managed to conquer most of the Turkic tribes of Central Asia, leading all the way into Persia. This led him to send armies into Eastern Europe as well, attacking Russian lands and even the borders of Central Europe’s German states.More important than what Genghis Khan conquered was how he conquered. He deliberately used terror as a weapon of war. If a city he was besieging gave up without a fight, its people would usually be spared but would have to go under Mongol control. If the city fought against the Mongols, everyone, including civilians, would be massacred. This reign of terror is a large part of why he was such a successful conqueror. People were more willing to give up than to suffer massacres at his hand.For example, when he besieged the city of Herat, in present-day Afghanistan, he killed over 1,600,000 people.The Invasion of the Muslim WorldBesides some raids and massacres on the borderlands of Islam, Genghis Khan did not invade far into the Muslim world. Under his successor, Ogedei, the Muslim world continued to be spared Mongol wrath. However, in 1255 that peace would end. The Great Khan, Mongke, put his brother Hulagu Khan in charge of an army whose goals were to conquer Persia, Syria, and Egypt, as well as to destroy the Abbasid Caliphate.The campaign’s goal appears to be a complete destruction of Islam. Hulagu himself even had a very deep hatred for everything attached to Islam. Much of this came from his Buddhist and Christian advisors who influenced his policies.The Muslim world at this time was in no position to resist the Mongol attacks. The Abbasid Caliphate was nothing but a shell of its former self, having no power outside of Baghdad. Most of Persia was disunited as the Khwarazmian Empire had mostly deteriorated by then. The Ayyubid state established by Salah al-Din was only in control of small parts of Iraq and Syria. In Egypt, a recent revolution had overthrown Salah al-Din’s descendants and brought to power the new Mamluk Sultanate. With his giant army of hundreds of thousands, Hulagu did not encounter much resistance.The Destruction of BaghdadBaghdad had been established in 762 by the Abbasid Caliph al-Mansur. Throughout its history, it had been the capital of the Muslims, as well as the world in general. The libraries of Baghdad were unrivaled. The House of Wisdom, established soon after the city was built, was a magnet for the most intelligent scientists, thinkers, mathematicians, and linguists of the world. The caliphs were patrons of literature, science, and the arts.Although by the mid-1200s much of the glamour and importance of Baghdad was gone. The caliphs were figureheads more interested in worldly pleasures than serving God through serving the people. The Abbasid army was effectively non-existent, and only served as bodyguards of the caliph. And the scientific achievements of the Muslim world were now centered in places such as Cairo, Muslim Spain, and India.It was at this historic and landmark city that the Mongols arrived in 1258. Their army, estimated at over 150,000 soldiers, stood before the city that was just a shadow of the great capital of the Muslim world of the 800s. The siege began in mid-January and only lasted two weeks. On February 13th, 1258, the Mongols entered the city of the caliphs.A full week of pillage and destruction commenced. The Mongols showed no discretion, destroying mosques, hospitals, libraries, and palaces. The books from Baghdad’s libraries were thrown into the Tigris River in such quantities that the river ran black with the ink from the books. The world will never truly know the extent of what knowledge was lost forever when those books were thrown into the river or burned.More important than the books, however, was the loss of life. It is estimated that between 200,000 and 1,000,000 people were butchered in that one week of destruction. Baghdad was left completely depopulated and uninhabitable. It would take centuries for Baghdad to regain any sort of prominence as an important city.Defeat and AftermathAfter Baghdad, the Mongols continued on westward. They conquered Syria from the Ayyubids, with help from the Armenians and neutrality from the Crusaders. In Palestine they reached the extent of their conquests. The new Mamluk Sultanate of Egypt, under the leadership of Baibars defeated the Mongols at the Battle of Ain Jalut in 1260. This prevented a Mongol invasion of the Holy Lands of Makkah, Madinah, and Jerusalem. This also ensured the safety of the only remaining powerful Muslim empire of the time, the Mamluks.Despite ultimately being unsuccessful in their attempt to destroy Islam, the Mongols left a deep political, economic, and military scar in the heart of the Muslim world. Entire regions were depopulated. Irrigation canals, fields of crops, and economic infrastructure were destroyed beyond repair. The political institutions, such as the caliphate, that held the Muslim world together for centuries were simply abolished.The Mongol Il-Khanate established by Hulagu’s descendants would rule over Persia, Iraq, and Anatolia for over 100 years. Over decades and centuries, the Mongols in Southwest Asia slowly converted to Islam and became absorbed in a Persian/Turkish culture. But there is no denying the immense negative effect the Mongols had on the Muslim world in the 1200s.The Mongol invasion is one of the most demoralizing times of Islamic history. The death and destruction of the 1200s has not yet been seen again in the Muslim world. While most articles on this website illustrate the great achievements of Islamic history, it is similarly important to be aware of the negatives, particularly what causes them to occur.The Muslim world was largely unable to repel the Mongol invasion due to disunity and weak political and military institutions. Throughout Islamic history, disunity has always led to invasion and defeat, while unity has led to great Islamic empires that benefited the entire world.
The Happiest Man In The World
A man who was living in comfortable enough circumstances went one day to see a certain sage, reputed to have all knowledge. He said to him:
‘Great Sage, I have no material problems, and yet I am always unsettled. For years I have tried to be happy, to find an answer to my inner thoughts, to come to terms with the world. Please advise me as to how I can be cured of this malaise.
The sage answered:
“My friend, what is hidden to some is apparent to others. Again, what is apparent to some is hidden to others. I have the answer to your ailment, though it is no ordinary medication. You must set out on your travels, seeking the happiest man in the world. As soon as you find him, you must ask him for his shirt, and put it on”
This seeker thereupon restlessly started looking for happy men. One after another he found few and questioned them. Again and again they said: ‘Yes, I am happy, but there is one happier than me’.
After travelling through one country after another for many, many days, he found the wood in which everyone said lived the happiest man in the world.
He heard the sound of laughter coming from among the trees, and quickened his step until he came upon a man sitting in a glade.
‘Are you the happiest man in the world, as people say?’ he asked. ‘Certainly I am,’ said the other man.
‘My name is so-and-so, my condition is such-and-such, and my remedy, ordered by the greatest sage, is to wear your shirt. Please give it to me;
I will give you anything I have in exchange.’
The happiest man looked at him closely, and he laughed. He laughed and he laughed and he laughed. When he had quietened down a little, the restless man, rather annoyed at this reaction, said:
‘Are you unhinged, that you laugh at sch a serious request?* ‘Perhaps said the happiest man, ‘but if you had only taken the trouble to look, you would have seen that I do not possess a shirt* ‘What, then am I to do now?*
‘You will now be cured. Striving for something unattainable provides the exercise to achieve that which is needed: as when a man gathers all his strength to jump across a stream as if it were far wider than it is. He gets across the stream.*
The happiest man in the world then took off the turban whose end had concealed his face. The restless man saw that he was none other than the great sage who had originally advised him.
‘But why did you not tell me all this years ago, when I came to see you?’ the man asked in puzzlement.
‘Because you were not ready then to understand. You needed certain experiences, and they had to be given to you in a manner which would ensure that you went through them.
If rain can grow sugarcane, man can realize the Divine – the story of Shaikh Muhibullah
Muhibullah was born in Sadarpur near Khairabad in Sitapur district, Uttar Pradesh. A descendant of Baba Farid, his father Shaikh Mubariz was a famous Sufi scholar. The boy was a diligent student and a great seeker of knowledge. He mastered religious studies and decided to leave home in the quest for higher knowledge. He had other responsibilities to fulfill after his father died when he was in his twenties, but they did not prove to be an obstacle in his journey.
Do I call you mineral and vegetable,
Animal and human,
Do I call you the mosque, the temple, the monastery,
The scriptures, the Quran,
The rosary, the girdle,
Godlessness, and faith?
Muhibullah travelled to Lahore and studied under Abdul Salam Lahori and Amir Fatehullah Shirazi. On completing his studies, Muhibullah returned home to look for a living. He delivered lectures and soon gained fame. But the mind was restless. He had to move on and engage with scholars.
It was sometime during the reign of Shah Jahan that Shaikh Muhibullah was walking down the streets of Delhi when his old friend Nawab Sadullah Khan spotted him as he went past in his palanquin. Khan was also Shah Jahan’s prime minister. Their eyes met even though the shaikh tried to evade his gaze. He slipped into a shop, hoping the prime minister would move on. But Khan ordered his men to bring him to his house, but he should be escorted with respect.
The nawab welcomed the shaikh with affection. Everyone knew of Muhibullah’s erudition and respected his humility. Nawab Sadullah Khan informed Emperor Shah Jahan that there was a man living in his land, who was a brilliant mind and an inspiration. In fact, the shaikh deserved to be prime minister, said the nawab, and not he. The nawab, instead, could be the shaikh’s deputy. Shah Jahan was enthralled by the story. Such a man, he must meet.
The emperor was mesmerized. Shah Jahan had many questions but no answers. Shaikh Muhibullah soothed his soul and rid the doubts in his mind. He was appointed court minister without delay. And in keeping with the traditions and customs of the court, the shaikh was taken to the tomb of Khwaja Qutbuddin Bakhtiyar Kaki, escorted by guards, to seek the saint’s blessings.
Shaikh Muhibullah stopped the cavalcade as it neared the Qutb Minar. He asked the guards to stay there. He would proceed to the tomb on foot. The soldiers waited. Afternoon wore on to dusk. Night fell. But the shaikh did not return. Suspense cut through the cavalcade. It grew restless. What had happened to the minister?
The commandant could not wait any longer. He would have to answer to the court and king if something were to happen. He marched to the tomb and was met by the caretaker.
“Yes, a man dressed in rich clothes did come here. But he got rid of that attire and borrowed the clothes of a beggar and went inside,” the caretaker answered on being interrogated by the commandant.
The soldiers searched the dargah. But there was not a trace of Shaikh Muhibullah. The story goes that as he knelt in prayer in the tomb, the shaikh heard a voice that said he had not been born to be engrossed in worldly issues. He should leave for Gangoh and pursue knowledge that Sufis seek.
Do I call you the clouds, the flash, the thunder,
Lightning and the downpour,
Water and earth,
The gust and the inferno,
Do I call you Lakshmi, and Ram and lovely Sita,
Baldev, Shiv, Nand, and Krishna,
Brahma, Vishnu and Ganesh,
Mahadev and Bhagvaan,
Do I call you the Gita, the Granth, and the Ved,
Knowledge and the unknowable?
Shaikh Abu Saeed Gangohi, a famous scholar of the Chishti-Sabri order, was waiting for Shaikh Muhibullah. It had been arranged by the master Qutbuddin Bakhtiyar Kaki. As he entered, Shaikh Abu Saeed turned towards him and said with humility: “You are a learned man.” The shaikh replied: “You are a gnostic.”
Shaikh Saeed, like his eminent grandfather Shaikh Abdul Quddus Gangohi was a great pantheist. Shaikh Muhibullah soon immersed himself in the doctrine of Wahadat Al Wujud or the Unity of Being. His teacher was impressed by his devotion to this doctrine and taught him the ways of the mystics. Soon, Shaikh Abu Saeed granted him Khilafat, and he left for his home in Sadarpur. But the mind grew restless again. Shaikh Muhibullah travelled to Rudauli where he met Maulana Abdur Rahman Chishti at the tomb of Shaikh Abdul Haq.
The maulana was charmed by the shaikh’s serenity. They left Rudauli and Shaikh Muhibullah proceeded to Allahabad. He was now lost in the belief of Wahadat Al Wujud, mysticism practiced by Ibn Al Arabi.
Do I call you the clouds, the flash, the thunder,
Lightning and the downpour,
Water and earth,
The gust and the inferno,
Do I call you Lakshmi and Ram and lovely Sita,
Baldev, Shiv, Nand and Krishna,
Brahma, Vishnu and Ganesh,
Mahadev and Bhagvaan,
Do I call you the Gita, the Granth, and the Ved,Knowledge and the unknowable?
Shaikh Ahmad Sirhindi was propagating another doctrine – Wahadat Al Shuhud or the Unity of Witness. Simply put Wahadat Al Shuhud believes that Everything is from Him, while Wahadat Al Wujud subscribes to the belief Everything is Him.
Do I call you Abraham, Eve and Seth,
Noah and the deluge,
Abraham the friend, and Moses son of Amran,
And Ahmad the glorious, darling of every heart,
Do I call you the witness, the Lord, or Hejaz,
The awakener, existence or the point,
Do I call you admiration or prognosis,
Nymph, fairy, and the young lad,
The tip and the nip,
And the redness of betel leaves,
The tabla and tanpura,
The drum, the notes and the improvisation,
Do I call you beauty and the fragrant flower,
Coyness and that amorous glance,
Needless to say the ulema grumbled and groaned – Shaikh Muhibullah was preaching a doctrine that was heinous. They frowned, but the shaikh was unruffled, not a muscle in his face moved. How many Sufi masters before had been targeted by the viciousness of the ulema? A fatwa was issued against him and he was condemned for heresy.
The shaikh’s friend from Jaunpur Shaikh Abdur Rashid darted to Allahabad and argued that Muhibullah spoke from the sphere of mysticism, not philosophy. The ulema were comforted, he had not crossed the line after all. They withdrew the fatwa. But that was not going to deter the shaikh from his beliefs. And the ulema were not willing to let him breathe easy – their tongues continued to wag incessantly.
The shaikh wrote many books, but his Taswiyah drew a lot of scrutiny and acclaim. “Jibrail was in Mohammad. Every Prophet has his Jibrail in him. Jibrail speaks to every Prophet in his own language,” Shaikh Muhibullah said in his Taswiyah. The ulema were furious at this interpretation as Shaikh Muhibullah, through Taswiyah, elaborated on his interpretation of the relationship between the Almighty and the world.
The Taswiyah even drew Emperor Aurangzeb’s ire. He wanted the copies burnt. He called Shaikh Muhibullah’s chief disciple Shaikh Mohammadi to explain the controversial thesis. His defence of the book must be solid in the absence of the Shaikh who had passed. If he was not successful in his defense, then he would have to renounce being a disciple of the Shaikh and copies of the books would be burnt.
Shaikh Mohammadi was a man of firm conviction and deep erudition like his master. He argued that he could not abide by the emperor’s diktat because he had not reached the spiritual station of his master who wrote the book. Hence, when he did reach that station and was suitably enlightened, he would write to the emperor offering his explanation. But until then he would not say a word and was ready to stop following the shaikh.
Shaikh Mohammadi stressed that if the emperor was hell bent on burning copies, then there was enough fire in the royal kitchen for the purpose. Aurangzeb was muzzled.
Some years before, Dara Shikoh was appointed Governor of Allahabad and he soon heard of Shaikh Muhibullah’s reputation. He did not ever meet the shaikh, but began a chain of correspondence with him on matters that vexed his mind.
Dara Shikoh: What is the beginning and end of the Sufi path?
Shaikh Muhibullah: The beginning is liberation from the belief in the unreal and the end is the realization of the Absolute’s Essence.
Are there devotional exercises that Sufis perform involuntarily?
Everyone is concerned with their devotional exercises. Gnostics perform devotional exercises with full understanding of their actions.
Are all men capable of realizing the Almighty?
If the rain can make sugarcane grow on all kinds of land, all humans can realize the Divine. But not all men are equal. They are different. The realization is thus of varying degree.
How can the Infinite merge with the heart?
Those with knowledge of the heart know it belongs to the Infinite.
Is the lover united with The Beloved after death?
Death is a bridge that joins friends. Saints say man obtains perfection in death.
What is the difference between love and affliction?
Affliction is the pathway leading to love.