तो बे-हैसियत हो कर रह गए

……तो बे-हैसियत हो कर रह गए

जब पुर्तगाल ने अफ्रीका पर क़ब्ज़ा किया और उसे अपनी कॉलोनी बनाया तो वहां से हज़ारों मुसलमानों को ग़ुलाम बनाकर ब्राज़ील भेज दिया जहां उनसे बेगार लिया जाता था क्योंकि ब्राज़ील भी उस समय पुर्तगाल की कॉलोनी ही था…
ग़ुलाम बनाये गए मुसलमानों में ज़्यादातर नौजवान थे, ब्राज़ील मे आज जो थोड़े बहुत मुसलमान नज़र आते हैं उनमें अधिकांश इन्हीं गुलामों की नस्ल से हैं..

उन मुसलमानों ने अपने दीन की ह़िफाज़त किस तरह की यह एक दिलचस्प वाक़्या है…
कहते हैं कि मुसलमानों को पकड़ पकड़ कर जब कश्ती के ज़रिये छोटे छोटे ग्रूप की शक्ल में ब्राज़ील भेजा जाने लगा तो उस वक़्त के उल्मा-ए-दीन ने एक ख़ुफिया प्लान बनाया, और मंसूबे के मुताबिक़ हर ग्रूप के साथ एक दीनी त़ालिब इल्म को घुसेड़ देते थे ताकि वह लोगों को दीन सिखाता रहे और आम लोग अपने दीन को भूल ना जाएं….

यानि इस तरह सैकड़ों दीनी त़ल्बा ने जानबूझकर ख़ुद को ग़ुलामी की आग मे झोंक दिया ताकि अपने भाइयों की अक़ीदे की हिफाज़त कर सकें और उनके दिलों में दीन ज़िंदा रहे,

कहने का मतलब है कि दीन हमेशा क़ुर्बानी मांगता है और ईमान की मज़बूती के बग़ैर क़ुर्बानी देना मुमकिन ही नहीं..ये फटीचर टाइप रूखी सूखी खाकर टाट पर चूतड़ घिसने वाले त़लबा और तुम्हारी नज़रों मे ख़ाएन मुनाफिक़ मोलवी मे से ही अल्लाह फिर एक जमात ज़रूर पैदा करेगा जो तुम्हारी नस्लों के ईमान बचाने के लिए ख़ुद को मौत की ग़ुलामी मे देकर गुमनाम अमर हो जायेंगे इन थ्रीपीस टाई नॉट वालों की गालियां और तंज़ सुनने के लिए..!!

 

कुर्द’ क़ौम वैश्विक शक्तियों के लिए जंग का ईंधन
अतीत (माज़ी) में बड़े बड़े कारनामे अंजाम देने वाली कुर्द क़ौम आज तबाही व बर्बादी के दहाने पर है। मेरी समझ से इस क़ौम की बर्बादी की दो बड़ी वजहें हैं। पहली वजह इस्लामी क़ौमियत व इस्लामी शिनाख्त (पहचान) से इस क़ौम का मुंह मोड़ना है। कल सलाहुद्दीन अय्यूबी (र.) के दौर में जब इन्हीं कुर्दों ने इस्लामी क़ौमियत को अपना एजेंडा बनाया था तो ये सरबुलंद थे मगर आज जब इन्हों ने इस्लामी क़ौमियत को नज़र अंदाज़ करके नस्ल परस्ताना क़ौमियत को अपना एजेंडा बना लिया तो बे-हैसियत हो कर रह गए।

दूसरी वजह कूर्द क़ौम का अतीत में जीना और वर्तमान को स्वीकार न करना है। अपने इतिहास अर्थात अतीत के “कुर्दिस्तान” को दोबारा साकार करने के ख्वाब में जीने वाली कुर्द क़ौम वर्तमान को कभी स्वीकार न कर सकी जिसके कारण इसने अपने आस पड़ोस के उन तमाम देशों से पंगा लिया जिन में इनके माज़ी का “कुर्दिस्तान” बंटा हुआ है। यानी इन्हों ने उन तमाम देशों को अपना दुश्मन बना लिया जिनमें आज ये बसे हुए हैं। नतीजे के तौर पर जब हर तरफ से इनको मार पड़नी शुरू हुई तो ये अपनी जान बचाने के लिए भाग कर वेस्टर्न मुल्कों की गोद में बैठ गए और उनकी कठपुतली बन गए. आस पड़ोस की तमाम ताक़तों से बग़ावत करने की जो रणनीति इन्हों ने अपनाई थी, उसमें किसी बाहरी ताक़त का कथकंडा बनना इनकी मजबूरी थी और आज इन कुर्दों की स्तिथि ये है कि अमेरिका जिस देश के खिलाफ चाहता है इन्हें इस्तेमाल करता है। अंततः आज कुर्द क़ौम वैश्विक शक्तियों के लिए केवल जंग का ईंधन है जिसका अंजाम मात्र तबाही व बर्बादी है।


क़ुरान की एक आयत है जिस का मतलब है के ”अगर तुम अल्लाह के बताये रास्ते से भटक जाओ गे तो हम तुम्हारे उपर एक जालिम क़ौम मुसललत कर दे गे.” 13वी सदी मे जिस तरह का नरसंहार हुआ, इतिहास ने इस तरह का नरसंहार कभी नही देखा .तेरहवीं सदी में तबाही का एक ज्वार की लहर मुस्लिम दुनिया भर में बह. शहर के बाद शहर, क्षेत्र के बाद क्षेत्र, मुल्क का मुल्क खत्म हो गया. मरने वालों की संख्या अविश्वसनीय था.जिस तरह का प्रकोप मुसलमानो पे तातारी या मोंगोलो की तरफ से आया था और ऐसा लगने लगा के दुनिया से मुसलमानो का सफाया हो जाये गा. मगर इतना होने के बावजूद इस्लाम फिर एक बार मजबूती से खड़ा हुआ और पूरे विश्व मे छा गया.

मुसलमानो पे ये अल्लाह की तरफ से तातरियो की शकल मे ये प्रकोप 1218 मे आया,क्यो के उस समय मुस्लिम शासक या खलीफ़ा भरष्ट्राचार, आपसी दुश्मनी, ऐयाशी मे लिप्त थे. उस समय तक चँगाज़ ख़ान एक शक्ति के तौर पर उभर चुका था, वो मुस्लिम शासको से दोस्ती रखना चाहता था, इसलिये उस ने खवरिज़्म शह से दोस्ती की तरफ हाथ बडाने के उद्देश से उस ने एक राजनयिक दल भेजा, मगर इसे खवरिज़्म शह की मूर्खता काहे गे के उस ने सभी 400 जो के चँगाज़ खन के भेजे हुए थे उस ने सब को जासूसी के इल्जाम मे हत्या करा दी, इधर बग़दाद मे बैठा अब्बासी खलीफ़ा भी यही चाहता था के खवरिज़्म शह की हुकूमत का खात्मा हो जाये. चँगाज़ ख़ान ने जब सुना के उस के राजनयिक दल की हत्या कर दी गयी है तो उस ने कहा के मे अब एक भी मुस्लिम मुल्क और मुसलमानो को नही छोड़ु गा और उस ने इस तरह हमला के लिये निकल पड़ा. उस के बाद पूरी दुनिया ने देखा के किस तरह मुसलमानो का क़त्ले आम हुआ.चँगाज़ ख़ान द्वारा मुसलमानो के नरसंहार की सूची नीचे दी जा रही है,

Nishapur 1,747,000 dead
Herat 1,600,000 dead
Samarkand 950,000 dead
Merv 700,000 dead
Aleppo 50,000 dead
Balkh completely destroyed
Khiva completely destroyed
Harran completely destroyed

चँगाज़ ख़ान उस समय इस्लाम का प्रमुख शहर बग़दाद पे हमला नही कर सका, उस के बाद उस के पोते हलाकू ख़ान ने बग़दाद पर हमला किया.बग़दाद उस समय दुनिया का सब से उन्नत शहर था जो के शिक्षा, बायपार, साइन्स टेक्नालजी मे सब से आगे था. हलाकू ख़ान ने हमला किया और पूरे शहर की इंट से इंट बजा दी. पूरे बग़दाद को जला दिया गया, उस ने बग़दाद मे 15 लाख इंसानो का क़तल किया और दुनिया की सब से बड़ी पुस्तकल्य को आग लगा दी. . शहर मे सिर्फ खलीफ़ा मुह्तसिम बिल्ला बचा था उसे भी एक प्लास्टिक बग मे बाँध कर लात-घूँसो से मार कर खत्म किया क्यो के हलाकू ख़ान को किसी ने कहा था के इस्लामी खलीफ़ा का खून जमीन पे गिरने से प्रकोप आता है. बग़दाद को लूटने के बाद वो सीरिया और आफ्रिका मुल्को की तरफ बड़ा और वहा भी क़त्ले आम और लुट-पाट की उस समय ऐसा लग रहा था के इस आंधी को कोई रोक नही पाये गा, और इस धरती से मुसलमानो का खात्मा हो जाये गा मगर 1260 मे Ain-Jalut, in Galilee मे सुल्तान Baibers के हाथो हलाकू ख़ान के शर्मनाक हार हुई . इस फ़ौज को तैयार करने मे शैख़ Izzuddin का बहुत बड़ा हाथ था जो के एक इस्लामिक विद्दवान थे, उन्हो ने मुसलमानो की एक फ़ौज बनाई और मॉंगल के खिलफ् जिहाद करने के लिये तैयार किया, जिस मे उन को कामयाबी मिली.

13 वी सदी मे जिस तरह का प्रकोप मुसलमानो पे चंगेज़ और हलाकू की शक्ल मे आया थे ऐसा इस्लाम के 1400 साल के इतिहास मे कभी नही आया था और आप अल्लाह का करिश्मा देखिये के जिस मोंगोल से आक्रमण से लग रहा था के इस्लाम का सफाया हो जायेगा, उसी हलाकू खन के पोते ने इस्लाम क़ाबुल कर इस्लाम को आगे फैलाया.

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महान् स्वतंत्रता सेनानी मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान

लाल किले में रोज़ शाम को जो कार्यक्रम होता है उसमें नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के साथ जनरल शाहनवाज़ ख़ान की आवाज़ है

महान् स्वतंत्रता सेनानी मेजर जनरल शाहनवाज खान का जन्म 24 जनवरी 1914 ई• में रावलपिंडी में हुआ था ( जो अब पाकिस्तान में है) उनकी आरम्भिक शिक्षा रावलपिंडी में हुई। आगे की शिक्षा उन्होंने प्रिंस आफ वेल्स रावल इंडियन मिलिट्री कालेज, देहरादून से पूरी की और 1940 में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक अधिकारी के तौर पर नियुक्त हुए।उस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था उनकी पहली तैनाती सिंगापुर में हुई।

1943 में ब्रिटिश आर्मी छोड़कर सुभाष चन्द्र बोस के साथ आज़ाद हिन्द फौज में शामिल हो गए। वह आज़ाद हिन्द फौज के जनरल बना दिए गए। जनरल शाहनवाज खान ने आज़ाद हिन्द फौज के साथ मिलकर अंग्रेजों से डटकर लोहा लिया।1945 में जनरल खान को अंग्रेजों द्वारा बन्दी बना लिया गया।1946 में जनरल शाहनवाज खान व उनके साथी कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गरूबक्श सिंह के खिलाफ दिल्ली के लाल किले में ब्रिटिश हुकूमत ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया लेकिन जन सैलाब व प्रदर्शन के चलते ब्रिटिश सरकार को छोड़ना पड़ा।

आज़ाद हिन्द फौज की समाप्ति पर 1946 में गांधी, नेहरु के सम्पर्क में आने पर कांग्रेस में शामिल हो गए। 1947 में भारत बंटवारे का जमकर विरोध किया और बंटवारा होते समय वह अपना घर जो रावलपिंडी (पाकिस्तान) में था उसे छोड़कर भारत आ गये। जनरल शाहनवाज खान वो महान् शख्सियत हैं जिसने स्वतंत्र भारत के लाल किले पर ब्रिटिश हुकूमत का झंडा उतारकर पहली बार तिरंगा फहराया था देश के पहले तीन प्रधानमंत्रियों ने लाल किले से जनरल शाहनवाज का ज़िक्र करते हुए अपने संबोधन की शुरुआत की थी। आज भी लाल किले में रोज़ शाम को 6 बजे “लाइट एंड साउंड ” का जो कार्यक्रम होता है उसमें नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के साथ जनरल शाहनवाज खान की आवाज है।

स्वतंत्रता के उपरांत वह 1952, 57, 62, 71 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की मेरठ संसदीय सीट से सांसद चुने गए। वह केन्द्रीय मंत्रिमंडल में भी मंत्री बनाए गए। 9 दिसंबर 1983 को इस महान् स्वतंत्रता सेनानी का निधन हो। वो एक महान् शख्सियत थी कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनके परिवार को फोन करके जनरल साहब के पार्थिव शरीर को मेरठ से दिल्ली दफनाने का आग्रह किया और राजीव गांधी ने इन्दिरा जी के कहने पर गाज़ियाबाद मोहन नगर में शवयात्रा की अगुवाई भी की। इनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया गया है।

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लाल किले पर पहला तिरंगा जनरल शाहनवाज खान ने ही फहराया था

आजाद हिन्दुस्तान में लाल किले पर ब्रिटिश हुकूमत का झंडा उतारकर तिरंगा लहराने वाले जनरल शाहनवाज ही थे. देश के पहले तीन प्रधानमंत्रियों ने लालकिले से जनरल शाहनवाज का जिक्र करते हुए संबोधन की शुरुआत की थी.

आशीष वशिष्ठ

देश को गुलामी की बेड़ियों से आजाद करवाने के लिए हजारों देशभक्तों और सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी. इन महान देभक्तों में जनरल शाहनवाज खान का नाम बड़े आदर और मान से लिया जाता है. आजाद हिंद फौज के मेजर जनरल शाहनवाज खान महान देशभक्त, सच्चे सैनिक और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बेहद करीबियों में शुमार थे.

एक सच्चे और बहादुर सैनिक के साथ साथ जनरल खान एक सच्चे समाजसेवी और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ भी थे. आजाद हिंद फौज के मेजर जनरल शाहनवाज खान का जन्म ब्रिटिश इंडिया में 24 जनवरी 1914 को गावं मटौर, जिला रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में झंझुआ राजपूत कैप्टन सरदार टीका खान के घर हुआ था. सैनिक परिवार में जन्में शाहनवाज ने अपने बुजुर्गों की राह पर चलने की ठानी. शाहनवाज की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा पाकिस्तान में हुई. आगे की शिक्षा उन्होंने प्रिंस ऑफ वेल्स रायल इंडियन मिलट्री कॉलेज देहरादून में पूरी की. 1940 में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में एक अधिकारी के तौर पर ज्वाइन कर लिया.

शाहनवाज ने आजाद हिंद फौज का नाम रौशन किया

जब जनरल शाहनवाज ब्रिटिश आर्मी में शामिल हुए थे, तब विश्व युद्ध चल रहा था और उनकी तैनाती सिंगापुर में थी. जापानी फौज ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी के सैंकड़ों सैनिकों को बंदी बनाकर जेलों में ठूंस दिया था. 1943 में नेता जी सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर आए और उन्होंने आजाद हिंद फौज की मदद से इन बंदी सैनिकों को रिहा करवाया. नेताजी के ओजस्वी वाणी और जोशीले नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ से प्रभावित होकर शाहनवाज के साथ सैंकड़ों सैनिक आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए और भारत माता की मुक्ति के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने लगे. शाहनवाज खान के देशभक्ति और नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर नेताजी ने उन्हें आरजी हुकूमत-ए-आजाद हिंद की कैबिनेट में शामिल किया था. दिसंबर 1944 में जनरल शाहनवाज को नेता जी ने मांडले में तैनात सेना की टुकड़ी का नम्बर 1 कमांडर नियुक्त किया था. सितंबर 1945 में नेता जी आजाद हिंद फौज के चुनिंदा सैनिकों को छांटकर सुभाष ब्रिगेड बनायी थी, जिसका कमांड नेताजी ने जनरल शाहनवाज के हाथ सौंपी थी. इस ब्रिगेड ने कोहिमा में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ मोर्चा संभाला था. संयुक्त सेना सेकेंड डिविजन का कंमाडर बनाकर बर्मा के मोर्च पर भेजा.

ब्रिटिश आर्मी से लड़ाई के दौरान बर्मा में जनरल शाहनवाज खान और उनके दल को ब्रिटिश आर्मी ने 1945 में बंदी बना लिया था. नवंबर 1946 में मेजर जनरल शाहनवाज खान, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुबक्श सिंह के खिलाफ दिल्ली के लाल किले में अंग्रेजी हकूमत ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया. लेकिन भारी जन दबाव और समर्थन के चलते ब्रिटिश आर्मी के जनरल आक्निलेक को न चाहते हुए भी आजाद हिंद फौज के अफसरों को अर्थदण्ड का जुर्माना लगाकर छोड़ने पर विवश होना पड़ा.

जनरल शाहनवाज खान और बाकी अफसरों की पैरवी सर तेज बहादुर सप्रू, जवाहर लाल नेहरु, आसफ अली, बुलाभाई देसाई और कैलाश नाथ काटजू ने की थी. 1946 में आजाद हिंद फौज की समाप्ति के बाद जनरल शाहनवाज खान ने महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रेरणा से इंडियन नेशनल कांग्रेस में शामिल हो गये. 1947 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जनरल शाहनवाज खान को कांग्रेस सेवा दल के सदस्यों को सैनिकों की भांति प्रशिक्षण और अनुशासन सिखाने की अहम जिम्मेदारी सौंपी. जनलर खान को कांग्रेस सेवा दल के सेवापति का पद नवाजा गया, जिसका निर्वाहन उन्होंने वर्ष 1947 से 1951 तक किया था, और अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी वह 1977 से 1983 तक कांग्रेस सेवा दल के प्रभारी बने रहे.

ब्रिटिश हुकुमत को भी इनके आगे घुटने टेकने पड़े थे

1952 में पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर मेरठ से चुनाव जीते. इसके बाद वर्ष 1957, 1962 व 1971 में मेरठ से लोकसभा चुनाव जीता. मेरठ लोकसभा सीट से प्रतिनिधित्व करने वाले जनरल शाहनवाज खान 23 साल केंद्र सरकार में मंत्री रहे. 1952 में चुनाव जीतने के बाद वह पार्लियामेंट्री सेक्रेटी और डिप्टी रेलवे मिनिस्टर बने. 1957-1964 तक वह केन्द्रीय खाद्य एवं कृषि मंत्री के पद पर रहे. 1965 में कृषि मंत्री एवं 1966 में श्रम, रोजगार एवं पुर्नवास मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली. 1971 से 1975 तक उन्होंने पेट्रोलियम एवं रसायन और कृषि एवं सिंचाई मंत्रालयों की बागडोर संभाली. 1975 से 1977 के दौरान वह केन्द्रीय कृषि एवं सिंचाई मंत्री के साथ एफसीआई के चेयरमैन का उत्तदायित्व भी उन्होंने संभाला. मेरठ जैसे संवेदनशील शहर का दो दशकों से अधिक प्रतिनिधित्व जनरल खान ने किया और उनके कुशल नेतृत्व और सबको साथ लेकर चलने की नीति के कारण शहर में कभी कोई दंगा फसाद नहीं हुआ, जो एक मिसाल है. 1956 में भारत सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की नेताजी की मौत के कारणों और परिस्थितियों के खुलासे के लिए एक कमीशन बनाया था, जिसके अध्यक्ष जनरल शाहनवाज खान थे.

जनरल शाहनवाज खान शुरू में नेताजी सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित हुए तो बाद में गांधी जी के साथ रहे. पंडित नेहरु ने उन्हें ‘खान’ की उपाधि से नवाजा. जनरल शाहनवाज के पीए रहे मतीन बताते हैं कि छठें लोकसभा चुनाव में जब मेरठ से उनके बजाय मोहसिना जी को टिकट दिया गया तो उन्होंने मोहसिना जी के साथ जाकर नामांकन कराया. वह सबके सुख-दुख में शामिल होते थे. जनरल शाहनवाज के पोते आदिल शाहनवाज बताते हैं कि, ‘रेलवे का एक कर्मचारी बिना अवकाश घर चला गया तो उसे सस्पेंड कर दिया गया. जनरल साहब ने तब कैबिनेट मंत्री लाल शास्त्री जी से कहा. उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया. इस पर उन्होंने अगले दिन अपना इस्तीफा भेज दिया. शास्त्री जी ने कारण पूछा तो बोले कि ‘अगर अवाम के लिए काम करने लायक नहीं हूं तो इस कुर्सी पर बैठने का मुझे हक नहीं है.

आजाद हिन्दुस्तान में लाल किले पर ब्रिटिश हुकूमत का झंडा उतारकर तिरंगा लहराने वाले जनरल शाहनवाज ही थे. देश के पहले तीन प्रधानमंत्रियों ने लालकिले से जनरल शाहनवाज का जिक्र करते हुए संबोधन की शुरुआत की थी. आज भी लालकिले में रोज शाम छह बजे लाइट एंड साउंड का जो कार्यक्रम होता है, उसमें नेताजी के साथ जनरल शाहनवाज की आवाज है. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने जनरल खान की देश के प्रति निष्ठा और राष्ट्रनिर्माण में अग्रणी भूमिका को देखते हुए भारत सरकार से जनरल खान को भारत रत्न देने की मांग की थी. डाक विभाग महान स्वतंत्रा सेनानी जनरल शाहनवाज खां, कर्नल प्रेम चंद और कर्नल गुरुबख्शक पर डाक टिकट जारी कर चुका है.

महान स्वतंत्रता सेनानी, देशभक्त और कुशल राजनेता जनरल शाहनवाज खान को काल के क्रूर हाथों ने हम सबसे से 9 दिसंबर 1983 को हमसे छीन लिया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनरल खान की मौत को देश के अपूर्णीय क्षति करार दिया था और उनके परिवार को फोन करके जनरल खान के पार्थिव शरीर को मेरठ से दिल्ली दफनाने का आग्रह किया था. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इंदिरा जी के कहने पर गाजियाबाद मोहन नगर में जनरल खान के शवयात्रा की अगुआई की थी. इंदिरा जी ने उस समय कहा था कि नेताजी ने आजाद हिंद फौज के दौरान ‘दिल्ली चलो’ का नारा बुलंद किया था, और जनरल खान भी यही चाहते थे कि उनको लालकिले के पास दफनाया जाए. लालकिले के पास स्थित जामा मस्जिद के निकट जनरल खान को पूरे सम्मान के साथ दफनाया गया था.

जनरल खान के परिवार में उनके तीन पुत्र महमूद नवाज, अकबर नवाज, अजमल नवाज और तीन पुत्रियां मुमताज, फहमिदा और लतीफ फातिमा हैं. लतीफ फातिमा को उन्होंने गोद लिया था. लतीफ फातिमा बालीवुड के मशहूर अभिनेता शाहरूख खान की मां हैं. जनरल खान के पोते आदिल शाहनवाज अपने दादा के नाम से जनरल शाहनवाज खान फांउडेशन का संचालन करते हैं.

रफ़ी अहमद क़िदवई भारत के राजनेता और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा की कहानी जानिये

ग्राम मसूली जिला बाराबंकी, उत्त्तर प्रदेश में एक ज़मींदार श्री इम्तियाज़ अली के घर पांच भाइयो में सबसे बड़े संतान के रूप में जन्मे श्री रफ़ी अहमद किदवई भारत के राजनेता और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा थे।

रफ़ी साहब ने अपने शुरूआती शिक्षा गाव के स्कूल में ली इसके बाद सरकारी उच्च विद्यालय की तरफ रुख किया। 1913 के बाद रफ़ी साहब ने मोहम्मादन एंग्लो ओरिएण्टल कोलेज अलीगढ में दाखिला लिया जहा उन्होंने बी ए से स्नातक 1918 में किया। इसके बाद उन्होंने एल एल बी करना चाहा लेकिन नॉन को ओपरेशन आन्दोलन और खिलाफत अन्दोलन के चलते रफ़ी साहब को एल एल बी तर्क करनी पड़ी।इन आन्दोलनों की वजह से उन्हें जेल जाना पडा।

मोहम्मादन एंग्लो ओरिएण्टल कोलेज,अलीगढ में दाखिला लेते ही रफ़ी साहब राजनिति में खिलाफत आन्दोलन के जरिया सक्रिय हो गए। 1922 में जेल से निकलने के पश्चात किदवई साहब इलाहबाद गए,जहा आप नेहरु परिवार से,मोती लाल नेहरु के पहले सेक्रेटरी के रूप में जुड़े।1926 को किदवई साहब सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के लिए चुने गए। आपने कई आन्दोलन और पार्टियों जैसे 1926 से 1929 तक सीएलए में कोंग्रेस की तरफ से, सत्य्ग्रह आन्दोलन में और “नो-टैक्स मूवमेंट” 1930-31 में, अहम् नेता नेता के रूप में कार्य किया।

गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 में आपने कोंग्रेस की ओर से कार्य संभाला।1930-31 से आजादी तक आपने कोंग्रेस के एक बड़े नेता गोविन्द बल्लभ पन्त के साथ कार्य किया और गवर्नमेंट और इंडिया एक्ट 1935 के तेहेत आपने 1937 से 1946 तक सरकार राजनीती में सक्रिय रहे।

1937 में किदवई साहब बल्लभ पन्त साहब की कबिनेट में रेवेनुए एंड प्रिजन के आगरा और ओउध (उत्तर प्रदेश) के मंत्री बनाये गए। उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश पहला ऐसा राज्य बना जहा ज़मींदारी प्रथा को ख़तम कर दिया गया। 1946 में आप उत्तर प्रदेश के गृह मंत्री बने।

15 अगस्त 1947 को नेहरु ने किदवई साहब के सामने कम्युनिकेशन मिनिस्टर बनने का प्रस्ताव रखा जिसे बाद में अमली जामा पहना कर किदवई साहब को भारत का पहला मिनिस्टर फॉर कम्युनिकेशन बनाया गया
1952 के पहले आम चुनाव में किदवई साहब बहरैच से चुने गए। नेहरु ने उनको फ़ूड एंड एग्रीकल्चर मंत्रालय दे दिया

24 अक्टूबर 1955 को दिल की बीमारी और एक जनसभा में आये दमे के हमले ने उनको इस दुनिया से अलविदा कर दिया। किदवई साहब को उनके होमटाउन मसौली में ही तद्फीन कर दिया गया। एक ज़मींदार घर में पैदा होने के बाद और अपना धन ज्यादा से ज्यादा खैरात करने के कारण उनकी मृत्यु एक कर्जदार के हाल में हुई और अपने पीछे एक घर छोड़ गए।

 

 

Hero Of Nation_आधुनिक भारत का इतिहास अंसारी को याद किये बगैर नहीं लिखा जा सकता

आधुनिक भारतीय इतिहास के नायकों की जब भी बात होगी मुख़्तार अहमद अंसारी का नाम एक नगीने की तरह चमकता मिलेगा। तारीख़ का चाहे जो भी पड़ाव हो आधुनिक भारत का इतिहास अंसारी साहब को याद किये बगैर नहीं लिखा जा सकता। यह सच है कि आज हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ एक ओर इतिहास को विकृत करने का अभियान जोरों पर है तो दूसरी और बाज़ार और पूंजी की संरचना ने हमें अपनी जड़ों से काटकर इतिहास, संस्कृति और विरासत से बहुत दूर कर दिया है।

ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम अपने उन युगनायकों, राष्ट्रनिर्माताओं और सच्चे अर्थों में ‘महापुरुषों’ को याद करें जिनकी पूरी जिंदगी हमारे लिए एक सबक और मिसाल है।

मुख़्तार अहमद अंसारी ऐसे ही महान शख्सियतों की परंपरा की एक मजबूत कड़ी थे। उनकी पैदाइश 25 दिसम्बर,1880 को युसुफपुर ,गाज़ीपुर (उ.प्र.) में हुई। आज ही के दिन 10 मई, 1936 को उनका देहांत हुआ।

मुख़्तार अहमद अंसारी एक बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। मूल रूप से वे एक डॉक्टर थे लेकिन साथ ही साथ एक असाधारण जननेता, शिक्षाविद और वतनपरस्त थे। वे डॉक्टर भी कोई साधारण नहीं बल्कि एक बेहतरीन सर्जन थे।उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ एडिनबरा, लंदन से मेडिकल डिग्री प्राप्त की। वे पहले भारतीय बने जिसका चयन ‘रेजिडेंट अफ़सर’ के रूप में हुआ।यहाँ यह जानना जरूरी है कि अंग्रेज़ों के तमाम विरोध के बावजूद अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बल पर उन्होंने यह गौरव हासिल किया था। अपने समय में xenotransplantation (जीवित उत्तक या अंगों का एक प्रजाति से दूसरे प्रजाति में प्रत्यारोपण की विधा) जैसे जटिल मेडिकल तकनीक पर उन्होंने शोध किया और The regeneration of man जैसी प्रसिद्ध किताब लिखी।

1900 से 1910 तक एक डॉक्टर के तौर पर उन्होंने अपनी सेवाएं लन्दन के विभिन्न अस्पतालों में दीं। यही उनकी मुलाकात मोतीलाल नेहरू, हकीम अजमल ख़ान और जवाहरलाल नेहरू से हुई।एक डॉक्टर के रूप में उनकी मक़बूलियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस चेरिंग क्रॉस हॉस्पिटल में उन्होंने अपनी सेवा दी वहां आज भी उनके सम्मान में ‘अंसारी वार्ड’ मौजूद है।

1910 में भारत लौटने के बाद वो दिल्ली में बसे और सबसे पहले फिरंगीमहली मस्जिद, पुरानी दिल्ली के एक हिस्से में अपनी क्लिनिक खोली। यहाँ आम और ख़ास मरीज़ों की भीड़ लगातार जुटी रहती थी। ग़रीबों का इलाज वे मुफ़्त में ही किया करते थे। उनदिनों उनकी रिहाइश पुरानी दिल्ली के मोरी गेट के पास थी। उनके मकान का नाम ‘बहिश्त’ अर्थात जन्नत या स्वर्ग था। सच्चे अर्थों में वो जन्नत था क्योंकि वहां पूरे दिन लंगर चलता था कोई वहां से भूखे नहीं लौटता था। इसी ‘बहिश्त’ में 1913 में सी ऍफ़ एंड्रूज और मुहम्मद अली ने ‘दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की पीड़ा’ विषय पर जबरदस्त व्याख्यान दिया था। तुर्की की मशहूर लेखिका ख़ालिदा अबिदी उन दिनों बहिश्त में बतौर मेहमान मौजूद थीं। उस समय को याद करते हुए अपनी किताब ‘Inside india’ में उन्होंने लिखा है- “यह एक ऐतिहासिक जगह है जहाँ प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक लोग सब एक साथ मिलते हैं। जो अपने विचारों, दृष्टियों के साथ एक प्रगतिशील और खुशहाल हिंदुस्तान की रुपरेखा बनाते हैं। भावी भारत के भविष्य के निर्माण में यह घर एक मील का पत्थर साबित होगा।”

समाज को अपनी खिदमात के जरिये डॉ अंसारी लगातार एक दूसरे से जोड़ते रहे। थोड़े ही दिनो में उनकी बातों को पूरे देश में सम्मानपूर्वक सुना जाने लगा। यही वजह थी की जब बाल्कन युद्ध से त्रस्त तुर्की की मदद के लिए उन्होंने रेड क्रेसेंट सोसाइटी बनाकर कोष इकठ्ठा करना शुरू किया तो उन्हें लोगों ने खुले दिल से मदद की। क़रीब 1,18,762 रूपये उन्हें चंदे के तौर पर मिले। डॉ अंसारी यहीं से एक जननायक के तौर पर उभरने लगे।

बाद के दिनों में उन्होंने दिल्ली के दरियागंज में अपनी क्लिनिक को स्थायी रूप देने के लिए एक हवेली ख़रीदा जिसका नाम उन्होंने ‘दार-उस-सलाम’ (शांति गृह) रखा। दरियागंज में जहाँ दर-उस-सलाम था वहां की सड़क का नाम आज अंसारी रोड है। आज वहां कई प्रकाशकों के दफ्तर हैं। लेकिन कम ही लोग जानते है कि इस सड़क का नाम अंसारी रोड क्यों है और अंसारी साहब कौन थे ?

दिल्ली में वे सक्रीय तौर पर कांग्रेस से जुड़े। उनका जुड़ाव मुस्लिम लीग से भी था लेकिन मुस्लिम लीग की विभाजनकारी नीति का विरोध करते हुए उन्होंने इससे दूरी बना ली।

वे हिन्दू मुस्लिम भाईचारे के पक्षधर थे। उनकी पहल पर 1920 में दिल्ली के ओखला में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की नींव पड़ी। वे आजीवन उसके संरक्षक बने रहे। यह डॉ अंसारी की दूरदर्शिता, सूझबूझ और महानता का ही परिणाम था कि जामिया ने शुरू से ही हर तरह की कट्टरता का विरोध किया, विभाजन को ख़ारिज किया और एक ऐसे प्रगतिशील संस्थान के तौर पर उभरा जहाँ इस्लाम और राष्ट्रप्रेम का सुन्दर समन्वय दीखता है। आज जामिया में पढते हुए हर पल डॉ अंसारी के रोशन ख्याल जगह जगह हमें दिख जाते हैं चाहे वो दिवाली के समय हर जगह रौशनी में नहाता परिसर हो या होली के समय रंगो में सराबोर परिसर हो ।

आगे चलकर इस धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को इस इदारे ने और मजबूत ही किया है यहाँ एक दौर में उर्दू विभाग में डॉ गोपीचंद नारंग जैसे महान विद्वान् हुए तो ठीक उसी वक़्त हिंदी में मुजीब रिजवी। यक़ीनन जामिया की यह विविधता तब तक मुमकिन नहीं थी जब तक इसके संस्थापकों का विजन इस तरह का नहीं होता। अमीर ए जामिया रहते हुए उन्होंने डॉ अंसारी साहब ने जामिया की पहली ईंट सबसे कम उम्र के विद्यार्थी अब्दुल लतीफ़ से रखवाई। इससे पता चलता है कि वे नयी पीढ़ी के मूल्यनिर्माण और प्रशिक्षण में कितने गंभीर थे। राष्ट्रनिर्माण की हर एक कार्रवाई का गवाह जामिया खुद है जहाँ से लाखों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर गाँव से लेकर शहर और देश से लेकर विदेश तक विभिन्न क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा रहे हैं।

अपने विद्यार्थी जीवन में मद्रास में पढ़ते हुए डॉ अंसारी पहली बार 1898 में मद्रास में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए और ठीक 30वें साल मद्रास में ही 1927 के अधिवेशन में वो कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए।एक डॉक्टर को पहली बार भारतीय राजनीति में इतना प्यार, समर्थन और सम्मान मिला। कुल 17 प्रांतीय समितियों में से उन्हें 14 का समर्थन प्राप्त हुआ।

उनके अध्यक्ष चुने जाने पर हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा- “इतिहास के एक संकटपूर्ण दौर में कांग्रेस ने एक शानदार फैसला किया है। अध्यक्ष पद के लिए डॉ अंसारी से बेहतर दूसरा नहीं हो सकता था।”

उनकी लोकप्रियता का इससे बेहतर सबूत नहीं मिल सकता। यह एक ऐतिहासिक परिघटना थी एक डॉक्टर अब जननेता बन चुका था सो जरुरी था कि वो समाज की बीमारियों का इलाज अपने अंदाज में करने की पहल करे। अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ अंसारी ने जो बातें रखीं वो आज भी प्रासंगिक और काबिल-ए-गौर हैं। उन्होंने आम जन की स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों को प्राथमिकता देने का आह्वान करते हुए कहा- “आज भारत की बहुत बड़ी आबादी अस्वस्थ और बीमार है। ऐसा गंदगी, मूलभूत सुविधाओं के अभाव, चिकित्सा सुविधाओं की कमी और गरीबी की वजह से है। आज हमारे देश का 60% राजस्व सैन्य सेवाओं पर देश की सुरक्षा के नाम पर खर्च होता है। लेकिन सरकार को यह ज़रूर सोचना चाहिए कि जब देश की जनता इन पीड़ादायी, कष्टप्रद स्थितियों में रहेगी तो बताइये कि सीमा की सुरक्षा कौन करेगा। हमारी असल रक्षा का प्रबंध तभी होगा जब हम इन करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य संबंधी, जीवन सम्बन्धी व्यवस्थाओं को सुनिश्चित कर सकेंगे।” उनके ये विचार आजाद हिंदुस्तान में भी एक यक्ष प्रश्न की तरह हमें मुंह चिढा रहे हैं।

डॉ अंसारी सदैव मनुष्य के भाईचारे में यकीन करते थे। उन्होंने हमेशा कहा- “कोई भी विभाजन जो नस्ल और धर्म के आधार पर किया जाता हो वह स्वार्थी और मतलबी होता है।मानवविरोधी होता है।” इन्हीं अर्थों में वे इसकी मुखालफत भी कर रहे थे।

उन्होंने खिलाफत आंदोलन से लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन तक में खुलकर भाग लिया।उनके ही भाषण के प्रभाव से पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव कांग्रेस में पारित हुआ।

डॉ अंसारी की सोच और फ़िक्र के जज़्बे को जामिया के तालिब ए इल्म आज भी अपने दिलों में सहेज कर रखते हैं। आज भी जामिया उन तमाम कट्टरपंथियों के समक्ष एक मजबूत प्रतिरोध की तरह खड़ा है जो इस देश और समाज की एकता ,मुहब्बत और साझी संस्कृति की रवायत को खत्म करना चाहते हैं।

बेशक डॉ अंसारी को खुदा ने 56 वर्ष की ही ज़िन्दगी दी लेकिन अपनी ज़िन्दगी का जो सरमाया उन्होंने हमें सौंपा है यक़ीनन उसकी गूँज और धमक हमेशा हमेशा बनी रहेगी। यूँहीं नहीं 1936 में उनकी मौत पर महात्मा गांधी ने कहा था- “शायद ही किसी की मृत्यु ने इतना विचलित और उदास किया हो जितना इसने।” वाकई ऐसे सच्चे सपूत
महानायकों की कमी हमेशा खलती है ।

Age of Universe

The stronger the gravity the slower the time.

Time is relative. We know from Einstein that my clock and your clock will not run at the same rate. Time (or rate of our clocks) depends on acceleration and/or gravity. If my clock accelerates and/or is in a strong gravitational field then it will run slower than your clock. Quran 22.47 compares time on Earth with time at Paradise/Hell (1 day vs. 1000 years). While Quran 70.4 compares time on Earth with time in wormholes (1 day vs. 50,000 years).

Moslems believe that Paradise and Hell are both much bigger and much more massive than Earth (but still much smaller than God’s Throne). The theory of general relativity says that time passes slower near an object more massive than Earth (clocks run slower in stronger gravitational fields). So according to general relativity, time should pass in Paradise/Hell much slower than on Earth. Moslems say that this is what Allah says. It is stated in the Quran that 1 day in Paradise/Hell measures a 1000 years on Earth.

[Quran 22.47] They challenge you to bring forth that torture [in Hell] and Allah will not break His promise; a day of your Lord [Paradise/Hell promise] is like a thousand years of what you count.

Here God promises those who do not believe in Hell and punishment that each day of their torture in Hell will measure a thousand years on Earth. So according to the Quran, time passes faster on Earth than in Paradise/Hell. But this agrees with the theory of general relativity which says that time passes slower near bigger mass. Paradise and Hell are much more massive than Earth and time should pass there much slower than on Earth.

Christians believe that God created the universe in 6 earthly days and rested on the 7th. Moslems believe that 6 days passed at God’s Throne but we experienced 13.7 billion years on Earth. Moslems believe that God is not bound to His Throne; rather He created it and set it as a reference. The Quran says that God’s Throne is even wider than the whole universe, so how about the mass of God’s Throne? God’s Throne is much more massive than Earth. Time should pass there much slower than on Earth.

Our solar system is 4.57 billion years old. Earth started accreting concurrently with the sun and our neighbouring planets 4.57 bln years ago. However the universe is 13.7 ± 0.2 bln years old. This places the age of Earth at one third the age of the universe (4.57 bln/13.7 bln = 1/3). Moslems say that this is what Allah says. The Quran says that in God’s Throne time Earth is 2 days old while the Heavens, Earth and everything in between are 6 days old (2/6 = 1/3):

[Quran 7.54] And your Lord, Allah, who created the Heavens and the Earth in six days and then settled on the Throne

Those six days are on the Throne; so the frame of reference for creation is the Throne, not Earth.

[Quran 41.9] Say: “Is it that you deny Him [Allah] who created the Earth in two days? And you claim others to be equal to Him? He is the Lord of (all) the Worlds.”

[Quran 50.38] And we have created the Heavens and Earth and EVERYTHING IN BETWEEN in six days and We were not touched by fatigue.

All those days are on the Throne; the frame of reference for creation is the Throne. When God says that He created the Heavens, Earth and EVERYTHING IN BETWEEN (including you and me) in six days this means that He is referring to the period of existence. Earth has been in existence for 2 days (out of 6).

Moslems believe that God sustains all living things. And all His commands to the angels to sustain man and animals were inscribed on the Preserved Tablet. The Quran says that not even a leaf would drop on Earth without it being previously recorded on this Preserved Tablet. God says that He inscribed this Preserved Tablet before the creation of Earth started; He answered our prayers today (as commands for the angels on the Preserved Tablet) during the first four days when Earth was still smoke. After this He ordered Earth to form.

[Quran 41.9-12] Say: “Is it that you deny Him [Allah] who created the Earth in two days? And you claim others to be equal to Him? He is the Lord of (all) the Worlds.” He set on it (Earth) mountains, and bestowed it with blessings. And [Allah] estimated all its sustenance in four days, equally  for those who ask (prayers) AFTER THIS (Thumma in Arabic) [Allah] commanded the heaven and it was still smoke. He said to it and to Earth: “Come together, willingly or unwillingly.” They said: “We do come together, in willing obedience”. So [Allah] judged them as seven heavens (one above the other) in two days and revealed to each heaven its orders. And We [Allah] adorned the lowest heaven with lights, and protection. Such is the decree of the Exalted; the Knowledgeable.

God answered our prayers today when Earth was still smoke (the first four days). After this (Thumma in Arabic) God ordered Earth to form. The formation of Earth took two days. So our prayers today are already answered on the Preserved Tablet since before the formation of Earth started. Also in the first two days God judged the seven superimposed heavens and revealed His orders to the angels (as instructions on the Preserved Tablet).

In God’s Throne time, Earth is 2 days old while the Heavens, Earth and everything in between are 6 days old. This makes the age of Earth to be one third the age of the universe (2/6 = 1/3). Similarly in Earth time, the age of Earth is 4.57 billion years while the age of the universe is 13.7 billion years; this is also one third (4.57 bln/13.7 bln = 1/3). So it is the same ratio in Earth time or in God’s Throne time. The theory of general relativity explains why time at God’s Throne passes slower than on Earth. General relativity explains why 6 days passed at God’s Throne but we measured it as 13.7 billion years (that is each day at God’s Throne measures around 2.28 billion years on Earth). So according to the Quran:

God’s Throne > Paradise/Hell > Earth

The smaller the mass, the faster the time.

We are sure that time is relative, that is, the age of the universe is different for observers with clocks running at different rates. For example, there exists an observer who measures the age of the universe to be 3 billion years, however he also measures the age of Earth to be 1 billion years. But the Quran presented it as a ratio (1/3) and this ratio turned out to be correct for any observer (whatever the clock rate). If the Quran presented it in any form other than a ratio it would have been wrong for different observers.

Quran 32.5 is time vs. distance; this gives us speed of angels which turned out to be the speed of light. However Quran 22.47 and Quran 70.4 are time vs. time (no distance); this is time dilation. Quran 22.47 compares time of Earth with time at Paradise/Hell (1 day vs. 1000 years). While Quran 70.4 compares time on Earth withtime in wormholes (1 day vs. 50,000 years).