सुलतान टीपू शहीद पार्ट 8

सुलतान की शहादत

ज़रा सी देर में सुलतान टीपू ने कई दुश्मनों को कत्ल कर दिया। इतने में सुलतान की घोड़ी को एक गोली लगी और वह गिर गई। सुलतान का जोश कम न हुआ। वह पैदल ही दुश्मन से जंग करने लगा। उसके वफ़ादार सिपाहियों ने उसे बचाने के लिए अपनी जानें कुरबान कर दीं। फिर एक गोली सुलतान के सीने में दिल के करीब लगी और सुलतान ज़मीन पर आ गिरा। उस वक्त वहां उसका कोई जांनिसार न था। सब शहीद हो चुके थे, सुलतान ज़मीन पर गिरा हुआ था।

अचानक एक अंग्रेज़ सिपाही सुलतान के करीब आया और उसने सुलतान की कमर से उसकी खूबसूरत और कीमती पेटी उतारने की कोशिश की मगर सुलतान अभी जिन्दा था। उसने लेटे ही लेटे तलवार का एक भरपूर वार किया और अंग्रेज़ सिपाही का घुटना काट दिया। उस सिपाही ने सुलतान के सर का निशाना लेकर गोली चलाई और सुलतान टीपू शहीद हो गया।

सुलतान की शहादत के वक्त 4 मई 1799 ई० का सूरज डूबने वाला था और अंग्रेज़ फ़ौज किले में दाखिल हो रही थी।

गद्दार का अनजाम

कुछ गद्दारों और वतन फ़रोशों को सुलतान के हुक्म पर सजा दी गई थी और कुछ को कुदरत ने उनकी नमक हरामी और मुल्क व मिल्लत से गद्दारी की सज़ा दी। उन गद्दारों में मीर सादिक भी था। जब सुलतान टीपू दुश्मन से लड़ने के लिए किले के दरीचे से बाहर निकला था तो मीर सादिक ने दरीचा बन्द कर दिया था ताकि

वापस आना चाहे तो किले में दाखिल न हो सके। लेकिन उसी वक्त सुलतान का एक वफ़ादार वहां आ गया। उसने मीर सादिक को दरीचा बन्द करते देख लिया था। उसने गुस्से से कहा कि “तुम सुलतान को दुश्मन के हवाले करके अपनी जान बचाना चाहते हो, गद्दार, नमकहराम!”

इसके साथ ही उसने मीर सादिक पर तलवार का वार किया और मीर सादिक चीखता हुआ घोड़े से नीचे आ गिरा। सुलतान के इस जानिसार ने तलवार मार-मार कर मीर सादिक के टुकड़े कर डाले और उसकी लाश कूड़े के ढेर पर फेंक दी। अल्लामा इकबाल ने ऐसे ही गद्दारों, वतन फ़रोशों और नमक हरामों के लिए यह शेर कहा है,
जाफ़र अज़ बंगाल, सादिक अज़ दक्कन नंगे मिल्लत, नंगे दीन, नंगे वतन

शहादत के बाद

किले पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजों को सुलतान की शहादत का पता न था। वे समझते थे कि सुलतान जान बचाने के लिए अपने महल में छुपा हुआ होगा। चुनांचे उन्होंने अपने एक अफ़सर को महल में भेजा और हुक्म दिया कि “सुलतान हथियार डालकर खुद को अंग्रेज़ फ़ौज के हवाले कर दे।” लेकिन जब अंग्रेज़ अफ़सर सफ़ेद झण्डा (अमन का निशान) लेकर महल पहुंचा तो सुलतान महल में न था। खुद महल वालों को भी सुलतान का कुछ पता न था। अंग्रेज़ अफ़सर ने ना जानने का इज़हार करते हुए महल वालों से कहा,

“हमें सुलतान के बारे में मालूम होता तो हम महल में क्यों आते। हम तो यही समझते थे कि सुलतान ने महल में पनाह ले रखी है।” अंग्रेज़ अफ़सर की बात सुन कर सुलतान के बीवी-बच्चे और महल
के दूसरे लोग सख़्त परेशान हुए। अंग्रेज़ों ने जांच-पड़ताल करके थोड़ी देर बाद ही मालूम कर लिया के सुलतान मरिरब की नमाज़ से कुछ देर पहले किले के बाहर बहादुरी से लड़ता हुआ शहीद हो गया था। चुनांचे मशालों की रौशनी में किले के बाहर लाशों के अंबारों में सुलतान को तलाश किया जाने लगा। आख़िर काफ़ी मेहनत के बाद सुलतान की लाश तलाश कर ली गई। सुलतान की आंखें खुली हुई थीं और बदन भी गरम था, अलबत्ता सुलतान के जिस्म से कीमती कपड़े और खूबसूरत पेटी गायब थी। सुलतान की लाश पालकी में में डाल कर महल में भेजी गई तो वहां शहादत की खबर से पहले ही कुहराम बरपा था। लाश पहुंचने पर लोग दहाड़ें मार-मार कर रोने-पीटने लगे। दूसरी सुबह सुलतान टीपू शहीद की तदफ़ीन के इंतिज़ामात किए गए और उसे गुसल दिया जाने लगा।

आख़िरी आराम गाह

– > शेरे मैसूर सुलतान फ़तेह अली टीपू शहीद का जनाज़ा तैयार हो गया तो सुलतान के बीवी-बच्चों, रिश्तेदारों, ख़िदमतगारों और दूसरे लोगों को सुलतान का आखिरी दीदार कराया गया। फिर उसका जनाज़ा लालबाग की तरफ रवाना हुआ। रास्ते में हज़ारों औरतें, मर्द, बच्चे, बूढ़े और जवान जनाज़ा देख कर जोर-जोर से रो रहे थे। मुसलमान और हिन्दु औरतें अपने सरों में राख डाल कर मातम कर रही थीं। अंग्रेजों की चार कम्पनियां जनाजे के आगे अदब से चल रही थीं और रास्ते के दोनों तरफ़ भी अंग्रेज़ फ़ौज सफें बान्धे खड़ी थी। अंग्रेज़ फ़ौज का बैण्ड मातमी धुन बजा रहा था, इस लिए कि यह आम आदमी का नहीं, एक बहादुर बादशाह का जनाज़ा था।

लालबाग में सुलतान शहीद की जनाजे की नमाज़ से पहले सुलतान को तोपों की सलामी दी गई। फिर हजारों लोगों ने जनाजे की नमाज़ अदा की। वहां से सुलतान की लाश उसके वालिद सुलतान हैदर अली की कबर के पास लाई गई जहाँ सुलतान के लिए कब्र तैयार थी। जब सुलतान शहीद को कब्र में उतारा गया तो हजारों लोगों की गम की ज्यादती से चीखें निकल गई। सुलतान शहीद को उसके मरहूम पिता के करीब ही दफन कर दिया गया। उसके बाद “सलतनते खुदादाद मैसूर” को अंग्रेज़ों, मरहटों और निजाम हैदराबाद ने आपस में बांट लिया। लेकिन यह तकसीम कुछ दिनों के लिए. थी। कुछ समय के बाद अंग्रेजों ने पूरे हिन्दुस्तान पर कब्जा कर लिया और निज़ाम, मरहटों और हिन्दुस्तान के तमाम बाशिन्दों की गर्दन में गुलामी की जंजीर डाल दी।

अंतिम बात

सुलतान फ़तेह अली टीपू शहीद की हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया भर के बहादुर हकपरस्तों में एक इम्तियाज़ी शान है। उसकी सारी जिन्दगी जंग के तपते हुए मैदानों, तोपों की घन गरज, गोलियों की बारिश और धुएं के बादलों में गुज़री। बचपन में उसने अपने बहादुर बाप हैदर अली के साथ मुल्क के दुश्मनों से जंगें लड़ीं। फिर 1782 ई० से 1799 ई० तक मैसूर में हुकुमरानी के बावजूद उसका ज़्यादातर वक़्त मैसूर और इस्लाम के दुश्मन अंग्रेजों के साथ वतन की आजादी और अमन व आमान की हिफ़ाज़त के लिए जंग के मैदानों में गुज़रा।

सुलतान टीपू की दास्तान, आज़ादी की जिद्दोजहद में एक संगे मील की हैसियत रखती है। “सलतनते खुदादाद मैसूर” के इस महान

सिपहसालार और मकबूल बादशह ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग में आखिरी सांस तक मुकाबला किया और शहीद होकर साबित कर दिया कि गुलामी की ज़िन्दगी से शहादत की मौत सौ दर्जा बेहतर है। उसने मुल्क की आज़ादी और खुद मुख्तारी की हिफाजत के लिए अपनी जान कुर्बान करके दुनिया भर के हुर्रियत (आजादी) पसन्दों और ख़ास तौरपर हिन्दुस्तान के मुसलमानों के लिए एक अजीम मिसाल पेश की जिस पर आज भी मुसलमान फखर करते हैं।

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