
*بِسْمِ اللٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیْمِ*
इरशादे बारी तआ़ला है:
“और क़र्ज़दार तंगदस्त हो तो ख़ुशह़ाली तक मॉहलत दी जानी चाहिये, और तुम्हारा (क़र्ज़ को) मुआ़फ़ कर देना तुम्हारे लिये बेहतर है अगर तुम्हें मा’लूम हो (कि ग़रीब की दिलजोई अल्लाह की निगाह में क्या मक़ाम रखती है)।”
[अल बक़रह, 2: 280]
ह़ुज़ूर नबिय्ये अकरम ﷺ ने फ़रमाया:
“क़र्ज़ के सिवा शहीद के सब गुनाह मुआ़फ़ कर दिये जाते हैं।”
[अह़मद बिन ह़न्बल, अल मुस्नद, रक़म: 7051]
ह़ुज़ूर नबिय्ये अकरम ﷺ ने फ़रमाया:
“मालदार का (मालदारी के बावुजूद दूसरे के माली ह़ुक़ूक़ की अदाएगी में) ताख़ीर करना ज़ुल्म है।”
[बुख़ारी, अस़्स़ह़ीह़, रक़म: 2270]