SERMON 73 and 74

ومن كلام له (عليه السلام)
لمّا عزموا على بيعة عثمان

لَقَدْ عَلِمْتُمْ أَنَّي أَحَقُّ بِهَا مِنْ غَيْرِي، وَوَاللهِ لاَُسْلِمَنَّ مَاسَلِمَتْ أُمُورُ الْمُسْلِمِينَ، وَلَمْ يَكُنْ فِيهِا جَوْرٌ إِلاَّ عَلَيَّ خَاصَّةً، الِْتمَاساً لاَِجْرِ ذلِكَ وَفَضْلِهِ، وَزُهْداً فِيَما تَنافَسْتُمُوهُ مِنْ زُخْرُفِهِ وَزِبْرِجِهِ .

 
SERMON 73
When the Consultative Committee (or Shura) decided to swear allegiance to `Uthman, Amir al-mu’minin said:
You have certainly known that I am the most rightful of all others for the Caliphate. By Allah, so long as the affairs of Muslims remain intact and there is no oppression in it save on myself I shall keep quiet seeking reward for it (from Allah) and keeping aloof from its attractions and allurements for which you aspire.

ومن كلام له (عليه السلام)
لمّا بلغه اتهام بني أُميّة له بالمشاركة في دم عثمان

أَوَلَمْ يَنْهَ بَنِي أُمَيَّةَ عِلْمُهَا بِي عَنْ قَرْفي ؟ أَوَمَا وَزَعَ الْجُهَّالُ سَابِقَتِي عَنْ تُهَمَتِي؟! وَلَمَا وَعَظَهُمُ اللهُ بِهِ أَبْلَغُ مِنْ لِسَاني.

أَنَا حَجِيجُ الْمَارِقِينَ ، وَخَصِيمُ الْمُرْتَابِينَ، عَلَى كِتَابِ اللهِ تُعْرَضُ الاَْمْثالُ ، وَبِمَا فِي الصُّدُورِ تُجَازَى الْعِبَادُ!

SERMON 74
When Amir al-mu’minin learnt that the Umayyads blamed him for killing `Uthman, he said:
Umayyads’s knowledge about me did not desist them from accusing me, nor did my precedence (in accepting Islam) keep off these ignorant people from blaming me.

Allah’s admonitions are more eloquent than my tongue. I am the contester against those who break away from Faith and the opposer of those who entertain doubts. Uncertainties should be placed before Qur’an, the Book of Allah (for clarification). 

Certainly, people will be recompensed according to what they have in their hearts.

इश्क़ (दर्से मसनवी)

मसनवी मौलाना रूमी- सूफ़ीयाना हिकायात, अख़्लाकी तालीमात और आरिफ़ाना मकाशिफ़ात का वो नमूना है, जिसकी मिसाल नहीं मिलती। ख़ुद मौलाना रूमीؓ कहते हैं कि इसमें कुरान के राज़ छिपे हैं। जिस शख़्स की जान में मसनवी का नूर होगा, बाक़ी हिस्सा उसके दिल में ख़ुद ब ख़ुद उतर जाएगा। फि़क़्ह शरीअ़त मुकद्दसा के लिए, जिस तरह इमाम अबूहनीफ़ाؓ व इमाम शाफ़ईؓ पैदा किए गए हैं, उसी तरह फि़क़्हे तरीक़े इश्क़ के लिए हक़ तआला ने मौलाना रूमीؓ को पैदा फ़रमाया।
 मौलवी हरिग़ज़ नशुद मौलाए रूम
 ता ग़ुलामी शम्स तबरेज़ी नशुद
 (मौलाना रूमी, मौलाना नहीं बन पाता अगर हज़रत शम्स तबरेज़ؓ का ग़ुलाम नहीं होता।)
 - मौलाना जलालुद्दीन रूमीؓ

बाकस नगिरम उल्फ़ते, अज़ ख़्ल्क़ दारम वहशते।

मस्ताना रक़्सम दम बदम, अज़ दस्त इश्क़ अज़ दस्त इश्क़।

-ग़ौसपाक मोहीयुद्दीन अब्दुल क़ादिर जिलानीؓ

(मैं किसी से वाकि़फ़ नहीं हूं, दुनियादारी से मुझे डर है। मैं तो हरदम इश्क़ में मस्ताना हो कर रक़्स कर रहा हूं, ये भी इश्क़ ही की सौग़ात है, ये सब इश्क़ ने किया है।)

जब इश्क़ में अपनी हस्ती का, एहसास मिटाया जाता है।
फिर जिसकी तमन्ना होती है, हर शै में वो पाया जाता है।

ऐ राहे मुहब्बत के रहरौ, अफ़सोस न कर नाकामी का।
मंज़िल तो मिल ही जाती है, जब ख़ुद को मिटाया जाता है।

हम लाख छिपाएं ग़म अपना, लेकिन ये कहां तक मुमकिन है।
सूरत में नुमायां होता है, जो ग़म भी छिपाया जाता है।

जब नक़्शे दूई मिट जाती है, वो सामने ख़ुद आ जाते हैं।
मेराजे मुहब्बत होती है, दीदार कराया जाता है।

वो जिस पे करम फ़रमाते हैं, वो जिस पे इनायत करते हैं।
दुनिया ए मुहब्बत का उसको, दस्तूर बनाया जाता है।

उस बाद ए ग़म के सागर की, मुझ को भी तमन्ना है साक़ी।
जो बाद ए ग़म दीवानों की, तक़दीर बनाया जाता है।

इतना ही समझ में आया है, दस्तूर ए मुहब्बत, ऐ ‘सादिक़’।
राज़ी ब रज़ा हो जाने से, महबूब को पाया जाता है।

-हज़रत यासीन सादिक़ देहलवीؓ

इश्क़ एक आग है और आशिक़ की हर सांस एक शोला है। और ये शोला महबूब के अलावा हर शय को जला देता है।

आतिशस्त ईं बांगे नाए व नेस्त बाद।
हर के ईं आतिश नदारद नेस्त बाद।

इश्क़ आं शोला अस्त के चॅूं बर फ़रोख़्त।
हर चे जुज़ माशूक़ बाक़ी जुमला सोख़्त।

आदमी की क्या हक़ीक़त है, इश्क़ ने समन्दरों को उबालकर रख दिया है, पहाड़ों को रेत कर दिया है, आसमानों के टुकड़े टुकड़े कर दिया है, ज़मीनों को लरज़ा दिया है। ये ऐसा सौदा है, जिसके बाद कोई सौदा नहीं रहता। न जिस्मानी न नफ्सानी, सबको जलाकर भस्म कर दिया है।

गिरया व ज़ारी, इस मर्ज़ की ख़ास पहचान है। आखें नहीं इस बीमारी में दिल रोता है।

आशिक़ी पैदास्त अज़ ज़ारीए दिल।
नेस्त बीमारी चू बीमारिए दिल।

आम बीमारियों के उलट इसकी खासियत असरारे इलाही है। और ये वो चीज़ है, जो इश्क़ की बेहोशी में ही महसूस हो सकता है। इसे समझना होशवालों के बस की बात नहीं।

महरुम ईं होश जुज़ बेहोश नेस्त।
मज़र्बान रा मश्तरी जुज़ गोश नेस्त।

इश्क़ शरह व बयान की चीज़ नहीं हैं। जो कुछ कहा जाए, हक़ीक़त उससे कहीं उंचाई पर होती है। इश्क़ की बेजुबानी हर जुबान पर भारी है। ये अपनी गहराईयों व फैलाव की वजह से कहने सुनने के पैमानों में समा नहीं सकता।

दर नगुन्जद इश्क़ दर गुफ़्तो शनीद।
इश्क़ दरया हस्त क़अरश नापदीद।

आशिक़ की ज़िन्दगी ये है कि दिन रात ग़म-ए-इश्क़ में खिलता जाता है। दिन रात ख़त्म हो जातें हैं, लेकिन इश्क़ की आग खत्म नहीं होती। आशिक़ की दवा सिर्फ इश्क़ है, उसके लिए इश्क़ ही क़ीमती है, ख़ुद की हस्ती कुछ नहीं।

इश्क़ नां बे नां गि़ज़ाए आशिक़स्त।
बन्द हस्ती नेस्त हर को सादिक़स्त।

उन्हें अपनी हस्ती से कोई सरोकार नहीं। इश्क़ की ज़ाहिरी कोई हस्ती नहीं, लेकिन यहां सिर्फ उसी की हस्ती है। इश्क़ का पहला मुतालबा सिर का नज़राना है। हज़रत इस्माईलؓ की तरह सिर पेश है, हंसी खुशी कुरबान होने को। महबूब के हाथों ‘मैं’ का क़त्ल हो जाए तो इससे बड़ी खुशी की बात क्या होगी।

हमचू इस्माईल पेशश सर नबा।
शादो खन्दां पेश तेग़श जां बदा।
आशिकां जामे फरह अंगा कुशन्द।
के बुदस्त खवैश खूबां शान कुशन्द।

इश्क़ का एक दरजा ये है कि ख़ुद के अक्स में महबूब नज़र आए। फिर उस दरजे से गुज़र जाएं तो फिर इश्क़ ही इश्क़ बाकी रह जाता है। मानो पूरी कायनात इश्क़ में समा गयी हो। इसके बाद सिर्फ महबूब ही रह जाता है। उसके अलावा हर शय फ़ना हो जाती है। हक़ के सिवा हर माबूद हर मौजूद मिट जाता है।

तेग़ ला दर क़त्ल ग़ैर हक़ बरान्द।
दर निगर, ज़ां पस के बाद ला चे मान्द।।
मान्द, इल्लल्लाह बाक़ी जुम्ला सोख़्त।
शाद बाश ऐ इश्क़, शिरकत शोज़ रफ़्त।।

आशिक़ की सूरत तो एक परदा है, दरअस्ल वो सरापा महबूब हो चुका है। आशिक़ की ज़ात, महबूब की ज़ात में फ़ना हो चुकी है। आशिक़ की जुबान से महबूब बोल रहा है।

जुम्ला माशूक़स्त व आशिक़ पर्दा।
ज़िन्दा माशूक़स्त व आशिक़ मुर्दा।।
चूं नबा शुद इश्क़ रा पर वाए ऊ।
ऊ चू मरग़े मांद बे पर, वाए ऊ।।