काजी सुलेमान अहमद का शिष्य होना

दरबार वारसी के समीपस्थ मिर्जा मुहम्मद इब्राहीम बेग शैदा, काजी सुलेमान रईस सुबेहा जिला-बाराबंकी के शिष्य होने की घटना इस प्रकार लिखते हैं। काजी साहब का सौभाग्य इसलिए अकथनीय है कि ऐसी कोई घटना अब तक सुनी नहीं गई है। देखने में तो बहुत से लोग स्वप्न द्वारा शिष्य हुए हैं किन्तु इस घटना से एक विचित्र बात ज्ञात होती है। वह यह है कि शिष्यत्व का सम्बन्ध आत्मा से है। इस घटना से यह बात भली-भांति प्रकट हो जाती है। काजी सुलेमान अहमद अति अल्पायु में अनाथ हो गये। आपके पिता और बड़े भाई शाह फजल रहमान साहब के शिष्य थे। उन लोगों ने उसी समय सोचा कि इन्हें भी शिष्य बना दिया जाय किन्तु काजी साहब ने १३१० हिजरी में एक स्वप्न देखा कि एक मकान है और उसमें जमीन ही का फर्श है उस फर्श पर एक संत फकीर बुजुर्ग विद्यमान हैं। दर्शनार्थियों की असाधारण भीड़ लगी हुई है। एक व्यक्ति अपने सिर पर पीला वस्त्र रखकर उपस्थित हुआ और अन्य किसी ने काजी सुलेमान अहमद के शिष्य होने की प्रार्थना की जो स्वीकार हुई। काजी सुलेमान अहमद उच्च वारसी मत की श्रृंखला में पीरो दिये गये। स्वप्न के पूर्व काजी साहब ने पूज्य हाजी वारिस पाक का नाम भी नहीं सुना था तथा न शिष्य होने का कोई विचार ही था। वह अपने धर्म पालन और उपासना को ही ब्रह्मत्व-ज्ञान प्राप्ति का साधन समझते थे । पाँच वर्ष बीतने के पश्चात् १३१५ हिजरी में हाजी वारिस पाक के पिता कुर्बान अली शाह के उर्स में मन बहलाव के विचार से श्री राजा दोस्त मुहम्मद खां साहब के साथ आये । यहाँ आकर काजी साहब ने मकान का नक्शा तथा मकान वाले की मर्यादा और सेवकों की सूरत तथा छवि वही देखी जो स्वप्न में देख चुके थे। जिस प्रकार स्वप्न में पीला वस्त्र सिर पर रखकर जो व्यक्ति उपस्थित हुआ, वही व्यक्ति फकीरी वस्त्र लाया जिसने वहां स्वप्न में इन्हें शिष्य बनवाया था। यहाँ भी शिष्य बनवाया। अतः जो कुछ स्वप्न में देखा था प्रत्यक्ष इन नेत्रों से देखा। ज्ञातव्य है कि १३१० हिजरी में जब काजी सुलेमान अहमद ने स्वप्न देखा था उस समय तक सिर पर वस्त्र लाने वाला शिष्य नहीं हुये थे तथा न वही शिष्य हुए थे जिन्होंने इन्हें शिष्य कराया। वस्त्र लाने वाले बाबू कन्हैया लाल महोदय वकील अलीगढ़ थे । शिष्य बनवाने वाले राजा दोस्त मुहम्मद खां ताल्लुकेदार महुअना थे। ये दोनों महोदय १३१० हिजरी के पश्चात् शिष्यता में आये हैं। इससे विदित है कि भौतिक संसार की शिष्यता उस शिष्यत्व को पूरा करती है जो आत्म लोक में हो चुकी हैं।
बाबू वारिस अली खाँ साहब महान रईस जगदीशपुर की शिष्यता की घटना
इस प्रकार ये घटना भी लोक-परलोक और लोकान्तर से सम्बन्धित है। श्री बाबू वारिस अली ब्यान करते हैं कि अपनी शिष्यत्व से एक वर्ष पूर्व मैंने सरकार वारिस पाक को स्वप्न में देखा। आपने दो चित्र प्रदान किया। एक मिस्टर आरनाल्ड प्रोफेसर विश्वविद्यालय, अलीगढ़ और दूसरा चित्र अल्लामा (महान पंडित) शिब्ली नोमानी का था। इसके पूर्व कभी हमने इन लोगों को नहीं देखा था। एक वर्ष पश्चात् मैं देवा शरीफ पहुंचा। स्वप्न में जो रूप सरकार वारिस पाक का देखा था और जिस रूप में बैठा हुआ पाया था ठीक उसी रूप में बैठा हुआ पाया। कोई अन्तर नहीं था। स्वप्न के पांच वर्ष पश्चात् अल्लामा शिब्ली रह० को देखा । देखते ही स्वप्न चित्र द्वारा पहचान लिया और चौदह वर्ष पर इंग्लैण्ड में मिस्टर आरनाल्ड से भेंट हुई और मैंने देखते ही पूर्व परिचित सा जान लिया।

