मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक-39

नादिरशाह काबुली के शिष्य होने की घटना

हाजी अवघट शाह वारसी लिखते हैं कि एक दिन हम लोग सरकार वारिस पाक की सेवा में उपस्थित थे। एक काबुली नादिर शाह नामक उपस्थित हुए। हुजूर को देखते ही दौड़कर हुजूर से लिपट गये । यद्यपि हम लोगों को अच्छा न लगा किन्तु हुजूर की मिलनसारी से हम लोग परिचित थे, चुप हो गये। उन्होंने अपनी भाषा में कुछ कहा और हुजूर ने उसी भाषा में उत्तर दिया। हम लोग कुछ न समझ सके। इसके पश्चात् वह बाहर आए और हम लोगों के साथ बैठ गये। उन्होंने बताया कि मेरा मकान सरहद काबुल में अली मस्जिद में है। मेरा नाम नादिर शाह है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि मुझे किसी प्रकार महामना अली मुर्तुजा शेरे खुदा का कोई उत्तराधिकारी इस समय है अथवा नहीं और यदि है तो पता कैसे लगेगा? इसी विचार में संसार की बातें भूल गई या अली, या अली की रट लगाता रहता था। एक दिन रात को मैंने स्वप्न में देखा कि दो बुजुर्ग मस्जिद में आये और एक ने दूसरे की ओर संकेत करते हुए कहा कि ये मेरे उत्तराधिकारी हैं। जब मेरी निद्रा भंग हुई तो मैं पागलों जैसा हो गया। जिन बुजुर्ग की ओर महामना अली मुर्तुजा ने संकेत किया था उनका वस्त्र मैं पहचानता था। बड़ी मस्जिद देहली के द्वार पर जुमा पढ़ने के पश्चात् खड़े होकर देखने लगा। उसी लिबास में मुझे एक फकीर दिखाई पडे। बड़ी अभिलाषा सहित मैंने उनसे भेंट किया और पूछा यह वस्त्र आपको कहाँ से मिला है? आपका क्या नाम है? उन्होंने मासूम शाह अपना नाम बताया और मुझे देवा शरीफ, जिला- बाराबंकी का पता दिया। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और देवा शरीफ उपस्थित हुआ । हाजी साहब को मैंने देखते ही पहचान लिया और शिष्य हो गया। उर्दू, फारसी भाषा की वंशावली माँगा । आनन्दपूर्वक कहने लगे, लोग मेरे विचार का परिहास करते थे। कहते भी थे कि इस जमाने में ऐसा कौन है ? अब मैं उनसे मिलूँगा तो कहूंगा तथा वंशावली दिखाऊंगा कि मैं अपनी इच्छा में सफल हुआ। शिष्य बनने के पश्चात् उन्होंने फकीरी वस्त्र चाहा, किन्तु हुजूर ने कहा, ‘इस समय तुम अपने मकान पर जाओ, तीन वर्ष बाद फकीर बनाये जाओगे। सावधान ! किसी के सामने मांगने के लिए हाथ न फैलाना। तीन वर्ष पश्चात् जब पुनः काबुली महोदय हाजी साहब की सेवा में उपस्थित हुए। हाजी साहब उस समय रूग्ण शैय्या पर थे। अपने शरीर त्याग के एक दिन पूर्व फकीरी वस्त्र प्रदान कर उनका नाम फकीर शाह रखा और आदेश दिया ‘यहाँ से अभी चले जाओ ।’ उसी रात के अन्तिम भाग में चार बजे शरीर त्याग कर दिया। जिस समय यह समाचार फकीर शाह ने सुना तत्काल एक चीख मारा और अपनी आत्मा परमात्मा को सौंप दिया।

कल्लन शाह के शिष्य होने की घटना

हाजी अवघट शाह एक अर्जी (प्रार्थना पत्र) कल्लन शाह की नकल करते हैं जो निम्नांकित है
: इस अधम को घर से निकले हुए बीस वर्ष का समय बीत चुका है। घर-बार संसार सबसे स्वतन्त्र होकर जमालुद्दीन शाह साहब का शिष्य हुआ और नव वर्ष तक उनके आदेश का पालन करता रहा। पुनः शाह शरफुद्दीन बू अली कलन्दर के चौखट की सेवा करता रहा। वहाँ से हमको आदेश हुआ कि तुम मीरान साहब की सेवा करो। अब ये गरीब मीरान साहब के दरवाजे पर उपस्थित है तथा चिराग बत्ती करता है। फिर मीरान साहब के आदेशानुसार हमको हाजी साहब का शिष्य होना स्वीकार है। ईश्वर के लिए मेरी दशा पर दया करके इस तुच्छ को अपने शिष्यत्व में रखिये। जब हाजी साहब की सेवा में कल्लन शाह का प्रार्थना पत्र प्राप्त हुआ तो आप ने उसे स्वीकार कर सन्तोषजनक उत्तर दिया। तत्पश्चात् कल्लन शाह की दशा में जो परिवर्तन हुआ और जो पद प्राप्त किया, उसकी जानकारी करनाल निवासियों को भली-भांति ज्ञात है। –

अब्दुर्रहमान हया के शिष्य होने की घटना

हाजी अवघट शाह से एक प्रर्थना-पत्र नकल है जिसका सारांश इस प्रकार हैंबहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि मैं किसी ऐसे संत या बुजुर्ग से शिष्य होऊंगा जो मुझे अपने जैसा बना ले। ईश्वर का दर्शन प्रत्यक्ष करा दें। मैं साधारण रस्म व रिवाज के अनुसार शिष्य होना नहीं चाहता था। क्योंकि मैं सुन चुका था गुरू बनना सरल है किन्तु शिष्य होना कठिन है। एक सप्ताह हो रहा है ‘करिश्माए वारिस’ मेरे अध्ययन में थी और बेदम शाह ब्रह्म- ज्ञान से परिपूर्ण पद्य से यह ज्ञात हुआ- ‘ऐ सैख तूचीजे दीगरी (गुरू संसार से परे एक अन्य वस्तु है) । अतः आज रात मैंने स्वप्न में देखा एक मस्जिद में रसूले खुदा मु० मुस्तफा सल्ल० विद्यमान हैं और बहुत से औलिया अल्लाह भी सम्मिलित हैं। दोनों नवासे हसन और हुसेन भी विराजमान हैं। सरदारे दो आलम कहते हैं ‘ऐ अब्दुर्रहमान! तुम धन्य हो। हम तुझे प्यार करते हैं किन्तु बिना माध्यम के मुझ तक पहुँचना ठीक नहीं है। ये कथन सुनकर सुल्तानुल हिन्द ख्वाजा चिश्ती ने महबूबे इलाही निजामुद्दीन रह० से कुछ संकेत किया और हूजूर महबूबे इलाही ने मेरा हाथ पकड़कर हुजूर हाजी वारिस पाक के पुनीत हाथ में दे दिया। आपने खुशी से मुझे स्वीकार किया। शिष्य कर महबूब शाह पदवी रखा तत्पश्चात् मेरी निद्रा भंग हो गयी और आँख खुल गई। देखा नमाज़ का प्रथम समय था। मैंने इस स्वप्न को दुर्लभ निधि जाना। केवल हाजी साहब के अतिरिक्त अन्य किसी से नहीं कहा। इससे विदित होता है कि बहुत से लोग रसूले खुदा और अली-ए-मुर्तुजा के रूहानी (आत्मिक) प्रेरणा से आकर शिष्य होते थे। दूसरे प्रकार की घटनायें जो अपने ढंग में अद्वितीय हैं जो सरकार वारिस पाक की उच्च आत्म शक्ति की द्योतक हैं।

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