
मदनी शाह साहब के शिष्य होने की घटना
मदनी शाह साहब पवित्र मदीना के रहने वाले थे। अति रूपवान और सुन्दर गुण वाले व्यक्ति थे। हज़रत शाह हाजी इमदादुल्लाह साहब महाजिर मक्की रह० के कथनानुसार हाजी साहब की सेवा में उपस्थित होकर फकीरी वस्त्र प्राप्त किया बहुत दिनों तक इन्होंने अन्न का परित्याग कर दिया था और भ्रमण करते रहे। भ्रमण काल ही में इन्होंने हज भी किया। अरब निवासी होते हुये भी फकीरी वस्त्र पाने के पश्चात् इनको वह आन्तरिक दृष्टि प्रदान हुई कि मस्जिद, मन्दिर और गिरजा में जहाँ भी जाते एक ही शान देखते। कुफ्र और इस्लाम का भेद-भाव इनके हृदय से नष्ट हो चुका था। आगरा के वकील अली अहमद साहब लिखते हैं कि मदनी शाह दो वर्ष आगरा में रहे। दिन भर एक गोसाई जी के साथ शहर में घूमते तथा मन्दिरों में जाते थे। हिन्दू लोग जैसा आदर सत्कार गोसाई जी का करते थे वैसा ही मदनी शाह साहब का भी करते थे। इनके मन्दिरों में जाने से हिन्दू और मन्दिर के लोग बहुत प्रसन्न होते थे। रात में ये दोनों व्यक्ति यमुना के किनारे बने रात की बुर्जियो में रात व्यतीत करते थे। अक्टूबर १९०४ ई० में यमुना नदी के किनारे मदनी शाह ने शरीर त्याग किया तथा कब्रिस्तान पीर गीलानी में इनकी लाश दफन की गई। ऐसी अधिकांश घटनायें हैं जिनसे विदित होता है कि उस काल के आदरणीय सन्तोंसाधुओं ने बहुत से लोगों को सुदूर से हाजी वारिस पाक की सेवा में आत्म-ज्ञान से लाभान्वित होने के लिये भेजते रहे हैं
दारा खान साहब की घटना
शहर लखनऊ में एक धनाठय व्यक्ति द्वारा खान साहब थे। सदैव नवाबी ढंग में रहते थे। एक रोज अपनी दशा पर दुःख प्रकट करते हुये कहा कि कितना अच्छा होता यदि कोई कामिल वली मिलता जो हुजूर फखरे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का दर्शन करा देता। एक रात दारा खान ने स्वप्न में सरकारे दो आलम सल्ल० को देखा और दो बुजुर्गों को भी साथ में देखा। एक साहब ने चरण स्पर्श का संकेत किया दा खान ने चरण स्पर्श करना चाहा तब तक उनको आँख खुल गई। दारा खान को बहुत दुःख हुआ। मस्जिद में बैठ कर उसी रूप का ध्यान करने लगे। तब तक हाजी वारिस पाक को अपनी तरफ आते हुए देखा और चरणों पर गिरकर बार-बार कहने लगे कि मैं आपको खूब पहचानता हूँ। आपने कहा ‘जोश में न आओ।’ इस प्रसन्नता में खुद खान साहब ने लोगों को भेज दिया और हज के लिये चले गये।
मौलवी कबीरूद्दीन के शिष्य होने की घटना
मौलवी सैय्यद कबीरुद्दीन गाजीपुर के निवासी थे। हैदराबाद दक्षिण में स्कूल मास्टर थे। सैय्यद अब्दुल गनी साहब लिखते हैं कि कबीरुद्दीन साहब ने मुझ से एक दिन कहा कि एक बार उन्होंने स्वप्न में मुहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहो अलैहे व्सल्लम को देखा कि सरकारे दो आलम कह रहे हैं ‘हाजी वारिस अली शाह के शिष्य हो जाओ।’ मैंने उनसे कहा कि दो तीन माह पश्चात् मैं घर जाने वाला हूँ। आप मेरे साथ चलें। आपको चेला बनवा दूंगा। उन्होंने कहा मैं इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं कर पाऊंगा। मैं इसी छुट्टी में जाकर चेला बन जाऊंगा अतः उन्होंने अपने महाजन से ऋण मांगा उसने अपने स्वभाव के विरूद्ध इस बार तुरन्त कर्ज दे दिया। चलते समय सैय्यद कबीरूद्दीन ने मुझसे पूछा कि बाहर से आने वालों के लिये हुजूर के चौखट पर क्या प्रबंध है? हमने उनको बताया कि नवाव अब्दुश्शकूर खाँ और ठाकुर पंचम सिंह द्वारा सम्पूर्ण प्रबन्ध है। आपको फिक्र की कोई जरूरत नहीं। कबीरूद्दीन साहब कहते हैं कि जब मैं रेल द्वारा लखनऊ से आगे बढ़ने पर फजले रहमान साहब के एक चेले ने मुझ से यह जाना कि मैं हाजी साहब के यहाँ शिष्य होने जा रहा हूँ तो उसने कहा कि हाजी साहब किसी को रात में ठहरने नहीं देते। इसलिए रात बिताकर जाओ। अतः मैं दस बजे रात को बाराबंकी आया हुआ पूरी रात बिताकर १० बजे दिन में देवा शरीफ जाकर हुजूर की सेवा में उपस्थित होकर चरण चूमा। हुजूर ने कहा ‘फकीर के यहाँ आये हो तो खाने की क्या चिन्ता है? भूखे रहना। न मैं किसी को ठहरने को कहता हूँ और न जाने को जिसका मन जितना दिन ठहरने का हो ठहरे।’ मैं लज्जित हुआ कि क्यों सारी रात व्यर्थ में बिता दिया। दूसरे दिन शिष्य होकर हैदराबाद के लिए चल पड़ा। पहुंचते ही मेरा वेतन पचास से डेढ़ सौ रूपये हो गया। दूसरी बार जब सेवा में उपस्थित हुआ तो आपने कहा ‘यह तो अपने गाँव के अमीर और रईस आदमी हैं। जिसका फल यह हुआ कि मेरी शादी अपने गांव के एक रईस आदमी की इकलौती लड़की से हो गयी।

