अज़मत ऐ अहले बैत

जब इब्राहिम अलैहिस्सलाम सारी आज़माइशो मे कामयाब हो गए और फिर क़ाबा तामीर किया तो अल्लाह ﷻने फरमाया इब्राहिम मै तुझे इनाम देना चाहता हूँ, तो उन्होंने दुआ की मौला वो आख़री नबी जिसपे नबूवत ख़तम होगी, उसको मेरी ज़ुर्रियत में दे दे!

तो अल्लाहﷻ ने दुआ क़बूल की।जब ये दुआ माँग रहे थे तब आप एक पत्थर पर खड़े थे और उस पत्थर पर आपके क़दमो के निशान सब्त हो गए और आज तक न मिटे ना मिटाये जा सके।
मुक़ाम ऐ इब्राहिम का पत्थरऔर भी पत्थरो पर निशान पढ़े होंगे,वो आज नज़र नहीं आते।मगर 4हज़ार साल हो गए तो इस पत्थर का निशान क्यों बाक़ी रहा? *क्योंके इस पत्थर पर खड़े होकर मुहम्मदﷺ को माँगा जा रहा था*।

*तो दोस्तों मुस्तफाﷺ के निस्बत से उस पत्थर का पाँव का निशान मिट ना सका। इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने मुस्तफाﷺ को चाहा था,उस चाहने की अज़मत से मुक़ाम ऐ इब्राहिम का निशान मिट ना सका और इधर खुद मुस्तफ़ाﷺ आये, इब्राहिम ने मुस्तफ़ाﷺ को चाहा था, मुस्तफ़ा ﷺ ने *हुसैन को चाहा था*
हुसैन को ज़ुबान चुसायी, हुसैन को कांधो पे बिठाया, हुसैन को सज़दे में पुश्त पे बिठाया।वो दुआ के वक़्त पत्थर पर बैठे थे तो पत्थर पे क़दम का निशान ना मिटा, मुस्तफ़ाﷺ सज़दे करते तो हुसैन कांधो पे होते,मुस्तफ़ा बैठते हुसैन गोद में होते

अरे उस मुस्तफ़ा के लख्ते ज़िगर हुसैन का जिक्र कौन मिटा सकता है? एक बदबख़्त यज़ीद तो दरकिनार,करोड़ बदबख़्त यज़ीद होजाये तो भी ज़िक्र ऐ हुसैन न मिटा है ना मिटाया जा सकता है

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सल्लल्लाहु अलैही व आलीही व सल्लम।

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