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बहुत कम लोगों को मालूम है कि 1857 से पहले भी एक जंग-ए-आजादी हुई थी. यह लड़ाई न तो हथियारबंद नौजवानों ने लड़ी थी और न ही जिंदा रहने के लिए रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष करनेवाले आम लोगों ने.
बल्कि, यह लड़ाई लड़ी थी फकीरों और संन्यासियों ने!
इन फकीरों में एक बेहद मकबूल नाम है-मजनू शाह फकीर मलंग मदारी अलैहिर्रहमा का.
दुनियावी जरूरतों को ठोकर मारकर फक्करों की जिंदगी जीनेवाले संन्यासी-फकीरों ने हथियार उठा लिया था
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*हज़रत मजनू शाह मलंग मदारी अलैहिर्रहमा* ने 1763ई. में अंग्रेजों के साथ जंग की
और फिर
1766ई. में कमान्डर कैहथ की फौज को शिकस्त दी और सर कलम कर दिया
1771 ई. में आप बिहार गये
वहाँ किसान और दस्तकारों के एक हजार का लश्कर आपके साथ हो गया वजह यह थी इनको अपना सामान ईस्ट इंडिया कम्पनी के तय दामों पर बेचना पड़ता था विरोध करने पर इनपर ज़ुल्म किया जाता था
29 दिस्मबर सन् 1786 आप अंग्रेजी फौज से लड़ते हुए ज़ख्मी हुए और अपने मरकज़े अनवार मकनपुर शरीफ़ तशरीफ लाये
मकनपुर शरीफ़ में तीन अंग्रेज भाई रहते थे और नील बनाते थे
सुन्नियों के मरकज़ मकनपुर शरीफ़ में अंग्रेजों को देखकर वतन की मुहब्बत में आपने अंग्रेज पीटर मैक्सवेल को मार दिया फिर क्या मकनपुर शरीफ़ में भयानक मंज़र बपा हो गया सैकड़ों लोगों को फांसी दे दी गई सभी मदारी मर्द ए कलंदर हंसी खुशी देशपर कुर्बान हो गए
खानकाहे मदारे आज़म मकनपुर शरीफ़ की तमाम बेशकीमती चीज़ें लूट लीं गईं

