
सय्यद और वज़ीर
अली बिन ईसा हर साल किसी अलवी सैयद जादे को 5000 हज़ार दिरहम बतोरे हदया देते थे, एक साल हुआ कि उन्होंने उस सैयद ज़ादे को नशे में धुत ज़मीन पर पड़े देखा, नशे में देख कर इरादा किया कि आईंदा उसको कुछ नहीं दूंगा, क्योंकि यह तो इन पैसों को शराब व कबाब में खर्च करता है।
चुनान्चे अगले साल जब वह सैयद जादा वज़ीर अली बिन ईसा के पास अपना हदिया लेने आया तो वजीर ने इस सैयद ज़ादे को सख्ती से मना किया कि आईंदा मेरे पास मत आना क्योंकि तुम इन पैसों को हराम कामों में खर्च करते हो, यह सुन कर वह सैयद जादातशरीफ ले गया। रात को वज़ीर अली बिन ईसा ने ख़्वाब देखा और ख़्वाब में उनको नबियों के ताजदार की ज़ियारत नसीब हुई, मगर हाए अफसोस जब वज़ीर ने सरकार की बारगाह में सलाम अर्ज़ किया तो आकाए दो आलम ने वज़ीर से अपना रुखे अनवर फैर लिया, वज़ीर सख़्त बेचैन व परेशान हुआ, कि सरकार मुझ से अपना रुख अनवर फैर रहे हैं। चुनान्चे दूसरी जानिब से फिर सरकार आकर अर्ज़ गुज़ार हुआ या रसूलुल्लाह ज़ेबा क्यों फैर रहे हैंकी बारगाह में आप मुझ से अपना रुखे
, मुझसे क्या ख़ता हुई है?
नबियों के ताजदार ने इर्शाद फरमाया कि:
+ ‘तुम इस सैयद जादे को इसके किसी जाती कमाल की वजह से नज़राना देते थे या मेरी नसब की वजह से?”
अल्लाहु अकबर! मतलब क्या मतलब साफ जाहिर है कि अगर तुम इसको सैयद समझ कर खिदमत करते थे तो अब भी वह सैयद ही है, गुनाहों की वजह से इसका नसब मुझसे मुंकृता नहीं हुआ, वह मेरे आल ही में दाखिल है, जब वह मेरी औलाद है तो तुम ने उसका नज़राना क्यों बंद किया?
आशिके आले रसूल आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा खान खूब फरमाते हैं।
“सैयद अगर बद्र मज़हब भी हो जाए तब भी उसकी ताज़ीम नहीं जाती जब तक उसकी बद मज़हबी हद कुफ़्र तक न पहुंचे।” (फतावा रजाविया, बरकाते आले रसूल)