
- आयते मवद्दत व अजरे रिसालत
“ऐ महबूब । आप फरमा दीजिए, कि मैं अपने इस कारे रिसालत पर तुम से कोई ‘उजरत’ नहीं माँगता मगर मेरी क़राबत (एहलेबैत) की मवद्दत (मुहब्बत)”
(सूरह अश-शूरा, आयत नं. 23)
हज़रत इब्ने अब्बास (र.ज.) फरमाते हैं, कि जब नबी करीम सल्लाहो अलेहे-वा आलिही वसल्लम पर यह आयते करीमा नाजिल हुई, तो मैंने नबी करीम सल्लाहो अलैहे-वा-आलिही वसल्लम’ से पूछा के यह कराबत वाले (एडलेत) कौन हैं. जिन की मवद्दत के लिए अल्लाह ने इस आयत में हुक्म फरमाया है, तो नबी करीम सल्लाहो अलैहे-वा-आलिही वसल्लम ने इरशाद फरमाया “मह कराबत (एहलेबैत) वाले लोग हज़रत अली (क.व.क.), हजरत खातूने जन्नत फातिमा ज़हरा (स.अ.), और मेरे दोनों बेटे हजरत इमाम हसन (अ.स.) हजरत इमाम हुसैन (अ.स.) हैं’ (मजमउल कबीर, जिल्द-3. सफा 39 हदीस-2641)
नोट- अल्लाह तआला ने एहलेबैत की मवद्दत व मुहब्बत हम पर इस आयते कुरआनी से फर्ज की है, और फर्ज ही नहीं की बल्कि उनकी मुहब्बत को अजरे रिसालत करार दिया. क्योंकि हुजूर (अ.स.) ने इरशाद फरमाया है, कि मैं अपने इस कारे रिसालत पर तुम से कोई ‘उजरत नहीं मांगता मगर मेरी क़ाबत (यानी एहलेबैत) से मवद्दत (मुहब्बत) रखो”, तो हुजूर (अ.स.) ने अपनी उम्मत से अपनी रिसालत-ओ-तबलीग़-ए -दावते हक पर कोई उजरत नहीं मांगी मगर अपनी उम्मत से उसके बदले में अपनी एहलेबैत से मवद्दत रखने को फरमाया, तो एहलेबैत-ए-अतहर (अ.स.) की मुहब्बत(मवदत) अजरे रिसालत करार पाई। यह अजरे रिसालत पूरी उम्मत के लिए है न कि किसी एक फिरका मखसूस) के लिए।
और यहाँ इस आयत में मुहब्बत की जगह मवद्दत आया है, तो किताबचे का ख्याल करते हुए के तवील न हो और दूसरे मनाकिब ज्यादा से ज्यादा आ सके बहुत ही मुखतसर में बयान है कि
“मवद्दत उसे कहते हैं जहाँ मुहब्बत हर हाल में रखना वाजिब हो”।
अशहरअली वारसी