
हज़रत जुनैद बगदादी और सैयद साहब
सुल्तानुल आरफीन इमाम औलिया हज़रत शैख जुनैद बगदादी ॐ (297 हि०) सरकार गौस आज़म 3 और हज़रत दाता गंज बख़्श के मशाइख-ए-तरीकृत में से हैं। उनके मुतअल्लिक एक रिवायत यह भी है कि वह शुरू में पहलवान थे। फिर मशाइख ज़रा दिल के -ए-तरीकृत इमाम सूफिया किराम के पेशवा कैसे बने ? तवज्जह के साथ इस वाकिआ को मुलाहिजा फरमाऐं:
जुनैद नामी बगदाद के बादशाहे वक्त के दरबारी पहलवान थे। वक्त के बड़े-बड़े सूरमा इसकी ताकृत और फन का लोहा मानते थे। एक रोज़ दरबार लगा हुआ था। अराकीन सल्तनत अपनी अपनी कुर्सियों पर फरोगश थे। जुनैद भी अपने मखसूस लिबास में ज़ीनते दरबार थे कि एक चौबदार ने आकर इत्तिला दी। सहन के दरवाजे पर एक लागर व नीम जान शख़्स खड़ा है। सूरत व शक्ल की पर गंदगी और लिबास व पीराहन की शिकस्तगी से वह एक फकीर मालूम होता है। ज़ईफ व नकाहत से कदम डगमगाते हैं, ज़मीन पर खड़ा रहना मुश्किल है लेकिन इसकी आवाज़ के तैवर और पेशानी की शिकन से फातिहाना किरदार की शान टपकती है। आज सुबह से वह बराबर इसरार कर रहा है मेरा चैलेंज जुनैद तक पहुंचा दो मैं इससे कुश्ती लड़ना चाहता हूँ किला पासबान हर चंद उसे समझाते हैं लेकिन वह बज़िद है कि इसका पैगाम दरबार शाही तक पहुंचा दिया जाए।
कुश्ती के मुकाबले के लिए दरबार शाही से तारीख और जगह मुतअय्यन कर दी गई महकमा नश्र व इशाअत के एहलकारों को हुक्म सादिर हुआ कि सारी ममलिकत में उसका ऐलान कर दिया जाए।
अब वह शाम आ गई थी जिसकी सुबह तारीख का एक एहम फैसला होने वाला था। आफताब डूबते डूबते कई लाख आदमियों का हुजूम बगदाद शरीफ में हर तरफ मंडला रहा था। सुबह होते ही शहर के सबसे वसी मैदान में नुमायाँ जगहों पर कब्जा करने के लिए तमाशाइयों का हुजूम आहिस्ता आहिस्ता जमा होने लगा। खुदाम व हश्म के साथ हज़रत जुनैद भी बादशाह के हमराह तशरीफ लाए। सब आ चुके थे। अब इस अजनबी शख़्स का इंतिज़ार था जिसने चैलेंज देकर सारे इलाके में तहलका मचा दिया था। चंद ही लम्हे के बाद जब गर्द साफ हुई तो देखा गया कि एक नहीफ व लागर इंसान पसीने में शराबोर हांपते हांपते चला आ रहा है। मजमा क़रीब होने के बाद आसार व कराइन से लोगों ने पहचान लिया कि यह वही अजनबी शख़्स है जिसका इंतिज़ार हो रहा था। दंगल का वक्त हो चुका था। ऐलान होते ही हज़रत जुनैद –
तैयार होकर अखाड़े में उतर गए। वह अजनबी शख़्स भी कमर कस कर एक किनारे खड़ा हो गया। लाखों तमाशाइयों के लिए बड़ा ही हैरत अंगेज़ मंज़र था। फटी आंखों से सारा मजमा दोनों की नकुल व हरकत देख रहा था हज़रत जुनेद ने खम ठोंक कर जोर आज़माई के लिए पंजा बढ़ाया इस अजनबी शख्स ने दबी जुबान से कहा: “जुनैद ! कान करीब लाइए मुझे आपसे कुछ कहना है ।” मैं कोई पहलवान नहीं हूँ, ज़माने का सताया हुआ एक आले रसूल हूँ, सैयदा फातिमा का एक छोटा सा कुंबा कई हफतों से जंगल में पड़ा हुआ फाकों से नीम जान है, सैयदानियों के बदन पर कपड़े भी सलामत नहीं हैं कि वह घनी झाड़ियों से बाहर निकल सकें, छोटे-छोटे बच्चे भूक की शिद्दत से बेहाल हो गए हैं। हर रोज़ सुबह को यह कह कर शहर आता हूँ कि शाम तक कोई इंतिज़ाम करके वापिस लौटूंगा। लेकिन खान्दानी गैरत किसी के आगे मुंह नहीं खोलने देती। गिरते पड़ते बड़ी मुश्किल से आज यहाँ तक पहुंचा हूँ। चलने की सकत बाकी नहीं है। मैंने तुम्हें सिर्फ इस उम्मीद से चैलेंज दिया था कि आले रसूल की जो अकीदत तुम्हारे दिल में है, आज इसकी आबरू रख लो, वादा करता हूँ कि कल मैदान कयामत में नाना जान से कह कर तुम्हारे सर पर फतह की दस्तार बंधवाउंगा।”
अजनबी सैयद के यह चंद जुमले नश्तर की तरह जुनेद के जिगर में पैवस्त हो गए पलकें आंसुओं के तूफान से बोझल हो गईं, इश्क व ईमान का सागर मौजों के तलातुम से जैर व ज़बर होने लगा। आज कौनेन का सरमदी ऐजाज़ सर चढ़ कर जुनैद को आवाज़ दे रहा था आलमगीर शोहरत व नामूस की पामाली के लिए दिल की पेशकश में एक लम्हे भी ताख़ीर नहीं हुई। बड़ी मुश्किल से हज़रत जुनैद ने जज़्बात की तुग्यानी पर काबू हासिल करते हुए कहा। “किशवर अकीदत के ताजदार ! मेरी इज्ज़त व नामूस का इससे बेहतरीन मसरफ और क्या हो सकता है कि उसे तुम्हारे कदमों की उड़ती हुई खाक पर निसार कर दूँ चिमनिस्तान कुद्दस की पज़मर्दा कलियों की शादाबी के लिए अगर मेरे जिगर का खून काम आ सके
तो उसका आखरी कतरा भी तुम्हारे नक्श पा में ज़ज्ब करने के लिए तैयार हूँ। बस इस आस पर कि कल मैदान महशर में सरकार अपने नवासों के ज़रखरीद गुलामों की कतार में खड़े होने की इजाज़त मरहमत फरमाऐं। इतना कहने के बाद हज़रत जुनैद खम ठोंक कर ललकारते हुए आगे बढ़े सचमुच कुश्ती लड़ने के अंदाज़ में थोड़ी देर पैंतरा बदलते रहे। सारा मजमा नतीजे के इंतिज़ार में साकत व खामोश नज़र जमाए देखता रहा। चंद ही लम्हे के बाद हज़रत जुनैद ने बिजली की तेजी के साथ एक दाओ चलाया। दूसरे ही लम्हे जुनैद चारों खाने चित थे और सीने पर सैय्यदा का एक नहीफ व नातवाँ शहजादा फतह का परचम लहरा रहा था।
हैरत का तिलसम टूटते ही मजमा ने नहीफ व नातवाँ सैयद को गोद में उठा लिया मैदान का फातेह अब सिरों से गुज़र रहा था और हर तरफ से इनाम व इकराम की बारिश हो रही थी। शाम तक फतह का जुलूस सारे शहर में गश्त करता रहा। रात होने से पहले एक गुमनाम सैयद खुलअत व इनामात का बेश बहा जखीरा जंगल में अपनी पनाहगाह की तरफ लौटं चुका था।
हज़रत जुनैद अखाड़े में इसी शान से चित लेटे हुए थे। अब किसी को हमदर्दी उनकी जात से नहीं रह गई थी हर शख्स उन्हें पाएं हिकारत से ठुकराता और मलामत करता हुआ गुज़र रहा था। उम्र भर मदरह व सताइश का खिराज वसूल करने वाला आज ज़हर में बुझे हुए तानों और तौहीन आमेज़ कलमात से मसरूर शाद हो रहा था।
हुजूम ख़तम हो जाने के बाद ही उठे और शाहराम् आम से गुज़रते हुए अपने दौलत खाने पर तश्रीफ ले गए। आज की शिकस्त
की जिल्लतों का सरवरान की रूह पर एक खुमार की तरह छा गया था। उम्र भर की फातिहाना मुसर्रतें वह अपनी नंगी पीठ के निशानात पर बिखेर आते थे।
हज़रत जुनैद की पुरनम आंखों पर नींद का एक हल्का सा झोंका आया और वह ख़ाकदान गीती से बहुत दूर एक दूसरी दुनिया में पहुंच गए। आलम बेखुदी में हज़रत जुनैद, सुल्तान कौनेन कदमों से लिपट गए। सरकारे दो आलम ने रहमतों के हुजूम में मुस्कुराते हुए फरमायाः के
जुनैद ! उठो कयामत से पहले अपने नसीबे की सरफराज़ियों का नज़ारा कर लो। नबी जादों के नामों के लिए शिकस्त की जिल्लतों का इनाम तक कर्ज़ नहीं रखा जाएगा। सर उठाओ! तुम्हारे लिए फतह व करामत की दस्तार लेकर आया हूँ। आज से तुम्हें इरफान व तक़रीब की सबसे ऊँची बिसात पर फाइज़ कियागया। तजल्लियात की बारिश में अपनी नंगी पीठ को गुबार और चेहरे के • गर्दन का निशान धो डालो। अब तुम्हारे रुखे ताबाँ में खाकदान गीती ही के नहीं आलमे कुद्दस के रहने वाले भी अपना मुंह देखेंगे। दरबार यज़दानी से गिरोह औलिया की सरवरी का ऐजाज़ तुम्हें मुबारक हो । ” इन कलमात से सरफराज़ फरमाने के बाद सरकार मुस्तफा ने हज़रत जुनैद को सीने से लगाया। इस आलम कैफ बार में अपने शहजादों के जान निसार परवाने को क्या अता फरमाया उसकी तफ्सील नहीं मालूम हो सकी। जानने वाले बस इतना ही जान सके कि सुबह को जब हज़रत जुनैद की आंख खुली तो पेशानी की मौजों में नूर की किरन लहरा रही थी। आंखों से इश्क व इरफान की शराब के पैमाने झलक रहे थे, दिल की अंजुमन तजलियात का गहवारा बन चुकी थीं, लबों के जुंबिश पर कारकुनान कजा व केंद्र के पहरे बिठा दिये गए थे, रौब व शहूद की सारी कायनात शफाफ आईने की तरह तार नज़र की गिरफ्त में आ गई थी। नफ्स-नफ्स में इश्क व यकीन की दहकती हुई चिंगारी फूट रही थी, नज़र नज़र में दिलों की
तसखीर का सहरे हिलाल अंगड़ाई ले रहा था। ख़्वाब की बात बादे सबा ने घर-घर पहुंचा दी थीं, तुलूअ सहर से पहले ही हज़रत जुनैद के दरवाज़े पर दुरवैशियों की भीड़ जमा हो गई थी। जूंही बाहर तशरीफ लाए खिराजे अकीदत के लिए हज़ारों गर्दनें झुक गईं, बादशाह बगदाद ने अपने सर का ताज उतार कर कदमों में डाल दिया। सारा शहर हैरत व पशेमानी के आलम में सर झुकाए खड़ा था। मुस्कुराते हुए एक बार नज़र उठाई और हैबत से लरज़ते हुए दिलों को सुकून बख़्श दिया। पास ही किसी गोशे से आवाज़ आई। “गिरोह औलिया की सरवरी का ऐजाज़ मुबारक हो। ” मुंह फैर कर देखा तो वही नहीफ व नज़ार आल रसूल फर्त खुशी से मुस्कुरा रहा था। सारी फिज़ा “सैयदुल ताईफा” (सूफिया की जमाअत के सरदार) की मुबारकबाद से गूंज उठी। (अलिफ व जंजीर अज़ अल्लामा अरशदुल कादरी अलै. स. 81) (जैनुल बरकात)
यह कहानी नहीं हकीकृत है और हकीकृत आशना वह ही हो सकते हैं जिनके दिल में आले रसूल की मुहब्बत की चिंगारी सुलग रही है।