मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक- 8

भ्रमण के संक्षिप्त समाचार

पन्द्रह वर्ष की उम्र में हुजूर पाक ने हज का इरादा किया। लोगों ने अल्पायु का ध्यान रखकर हुजूर को रास्ते की कठिनाईयों तथा यात्रा के कष्टों का स्मरण कराया किन्तु आपके उच्च विचार सुदृढ़ साहस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। क्योंकि आपका ईश्वर प्रेम और उस पर आस्था प्रबल और बलिष्ट थी । सर्वप्रथम आप हज़रत ख़ादिम अली शाह के मज़ार पर पहुँचकर फ़ातिहा पढ़ा और उपस्थित लोगों से मिलकर सबको सन्तोष दिलाते हुए यात्रा आरम्भ कर दिया। रास्ते में समयानुसार रुकते-रुकाते आप अजमेर पहुँचे । यह समय चूंकि ख़्वाजा गरीब नवाज़ के ‘उर्स’ का था। अतः आप मज़ार शरीफ़ पर पहुँचकर तवाफ़ (पंच भवरा) किए तथा कौव्वाली की मजलिस में सम्मिलित हुए। आपकी उपस्थिति से पूरी महफ़िल में एक विशेष दशा उत्पन्न हो गई। जब लोग अपनी पूर्व अवस्था पर आ गये तो सबने उठकर आपको घेर लिया और चरण चूमने लगे। बहुत से व्यक्ति आपके शिष्य हुए और पूरे अजमेर में लोगों की जुबान पर आप ही की चर्चा रही।

अजमेर शरीफ़ से आप नागौर पहुंचे, वहाँ मौलवी हुसैन साहब के मकान पर मेहमान रहे। हुसेन बख्श साहब ने आपके हाथ पर बैय्यत लिया। आपने हुसेन बख्श साहब को वैय्यत लेने की आज्ञा भी दी। फिर आप शहर पीराने पट्टन, अहमदाबाद और भक्कर होते हुए बम्बई पहुँचे। लगभग दो सप्ताह यहाँ रुके। वहाँ विख्यात व्यापारी सेठ यांकूब अली खाँ तथा यूसुफ़ जकरिया इत्यादि ने एक गिरोह के साथ आपके हाथ अपने हाथों में ग्रहण कर शिष्य हुए। इसके बाद आप जहाज़ में सवार हुए और निचली श्रेणी में अपनी आसनी जमाई। उस समय आपकी यह दशा थी कि आप तीसरे दिन भोजन ग्रहण करते थे सो भी बहुत थोड़ा सा : आप भगवान आश्रित थे अपने साथ कुछ खाने पीने की सामग्री भी नहीं रखते थे। बिना खाए पिए आप को सात दिन बीत गए। अचानक यह चलता हुआ जहाज़ रुक गया। जहाज में एक धर्मात्मा व्यापारी मुहम्मद ज्याउद्दीन साहब को स्वप्न में सरकारे में मदीना रसूले ख़ुदा का दर्शन हुआ, और आपने निर्देश किया कि स्वयं खाते हो और पड़ोसी का ख्याल नहीं रखते। उक्त ताजिर बहुत दानी थे। उन्होंने सोचा हो सकता है कि खोजने में सफलता न मिले। इसलिये पूरे जहाज के यात्रियों की दावत कर दी। भाँति-भाँति का भोजन तैयार कराया, जब सब लोग खा-पी चुके तो व्यापारी महोदय ने स्वयं जहाज की हर श्रेणी में खोजना आरम्भ किया। जहाज़ की निचली श्रेणी में पहुँचकर आपको एक कोने में बैठा हुआ पाया। दौड़ कर कदमों में गिर पड़े और वहीं भोजन मंगवा कर प्रस्तुत किया। आपने दो-चार लुकमा लिया। जब व्यापारी ज्याउद्दीन साहब अपने स्थान पर आये, जहाज अपने आप चलने लगा। उस दिन से जहाज में जब तक आप रहे खाना तैयार होने पर सर्वप्रथम आपके सामने जाता । हुजूर वारिस पाक उस समय तीसरे दिन भोजन ग्रहण करते। आपकी यात्राओं का हाल पूरा-पूरा बिल्कुल नहीं मालूम हो सका। आपकी जीवनी लिखने वालों ने भी दो चार बातों के अतिरिक्त कुछ लिख नहीं पाये हैं, क्योंकि सरकार वारिस पाक के जीवन का अधिकांश भाग भ्रमण और यात्रा में व्यतीत हुआ। किन्तु जो कुछ भी लिखा गया है वह या तो आंखों देखा है या पुराने बुजुर्गों की कही हुई बातें हैं। कभी भी सरकार ने अपने चाहने वालों को सफर की बातें बताई नहीं हैं और यदि कभी कुछ समयानुसार कहा भी है तो बहुत ही कम शब्दों में मौलवी रौनक अली साहब वारसी रज्जाकी पैंतेपुरी जिनको दरबार वारसी में गौरव प्राप्त है। लिखते हैं कि मैंने अपने पिता की डायरी में देखा है और दूसरे आदरणीय बुजुर्गों सुना है कि सरकार वारिस पाक ने सत्तरह हज किये हैं और लगातार बारह वर्ष की यात्रा में अरब, ईरान, हज्जाज, ईराक, मिस्र और शाम देशों में भ्रमण करते रहे। इसमें दस बार हज किये है। वहाँ की वापसी के बाद सात बार भारत से हज करने गये हैं। जिसमें तीन स्थल मार्गों से काबुल होकर और दो बार इंजन से चलने वाले तथा दो बार पालवाले जहाज़ से ये यात्रायें भिन्न-भिन्न स्थानों, कभी अजमेर, कभी मुलतान से एक हज देवा शरीफ़ से प्रस्थानित किये। से

आपने अपने सफर में तमाम पवित्र स्थानों का दर्शन किया है। सहस्त्रों आप से गुरुमुख हुए हैं। इसी सफर में जब आप कुस्तुनतुनिया पधारे हैं तब तुर्की के सुल्तान स्वर्गीय अब्दुल मजीद खाँ आप से मुरीद हुए हैं। इनके मुरीद होने की घटना इस प्रकार है कि एक दिन हुजूर जब अब्दुल्लाह के मकान पर रुके हुए थे तो अब्दुल्लाह ने आप से कहा कि यदि हुजूर सुल्तानी बाग़ की सैर को चलें तो कुछ आपका मन बहलाव हो जाये। अब्दुल्लाह की प्रार्थना पर हुजूर सैर के लिये तैयार हो गये। जिस समय हुजूर बाग़ में थे संयोग से उसी समय सुल्तान ने भी पदार्पण किया और सरकार वारिस पाक को देखते ही अत्यंत प्रभावित हुए। एक सप्ताह तक हुजूर की सेवासत्कार में लगे रहे। ख़ुद भी हुजूर के हाथ पर बैय्यत लिये और साथ ही बहुत से तुर्क भी गुरूमुख हुए। मौलवी हुसेन अली साहब वारसी लिखते हैं कि हमने खुद सरकार वारिस पाक से ये बात सुनी है। जिससे मालूम होता है कि सुल्तान को सरकारे मदीना ने ख्वाब में हुजूर की सूरत दिखाया था। अत: सुल्तान ने देखते ही सरकार को पहचान लिया था। बातचीत के दौरान हुजूर ने कहा था कि हमने सुल्तान के महल से एक डोर लटका दी थी उसी को एक साथ बहुत से तुर्क पकड़ लेते थे और बैय्यत हो जाते थे। आपने रूस, जर्मन तथा फ्रांस इत्यादि देशों की भी यात्रा की है। यह कहना अनुचित होगा कि हुजूर ने उस जमाने में जितनी यात्रायें की हैं किसी बुजुर्ग की उतनी सुनने में नहीं आई है। अधिकांश यात्रियों तथा भ्रमणकारियों से वर्णित है कि उन्होंने आपके फ़कीरों अथवा संतों को जंगल पहाड़ियों बियाबानों और अन्य देशों में देखा है जो घोर तपस्या में लगे हुए हैं। –

अमानत सौंपना

पुस्तक ‘तोहफतुल असफिया’ के रचयिता तथा अन्य बुजुर्गों से वर्णित है कि जब प्रथम बार मक्का गये तो एक मस्त फकीर से आपकी भेंट हुई जो आपकी प्रतिक्षा में थे। उन्होंने आपको हृदय से लगाया और जो धरोहर उनके पास थी उसे आपको सौंप दिया। इसके बाद आपकी जांघों पर सर रखकर परमात्मा में विलीन हो गये। उनके सम्बन्ध में आप कहते हैं कि उनकी लाश हरे रंग का पक्षी होकर हवा में उड़ गयी और मैं जंगल में फिरता रहा। मौलवी रौनक अली वारसी रज्जाकी पैंतेपुरी लिखते हैं कि एक बुजुर्ग बैतुल्लाह में आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे । वह आप से मिलते ही ख़ुदा को प्यारे हो गये। बुजुर्गों का विचार है कि वह अवैसिया के अमानतदार थे जिसको उन्होंने हुजूर को सौंप दी।

Hazrat Imam Hasan Askari AlahisSalam part 1

Hazrat Imam Hasan Askari

Name, Lineage and Title

Hazrat Hasan bin Ali bin Muhammad bin Ali Raza was the eleventh of the twelve Imams.

His lineage is Abul Muhammad, and his title was Zaki. Khalis and Siraj were his other titles. Like his holy father, he was known with the title, Askari.

Name of Holy Mother

His holy mother’s name was Sosan. She had other names also.

Holy Wife’s Name

Hazrat Askari named his wife as ‘Hadith.’

Holy Birth

He was born in Medina Munavvara during Hijri 231. Some have written Hijri 232.

Holy Demise

He left this finite world during Hijri 260. He is buried beside his father. To Improve the source of Livelihood

Hazrat Muhammad bin Ali bin Ibrahim bin Musa bin Jafar has described, “The sources of my livelihood were lost. My father told me to

serve Hazrat Muhammad, for; his generosity was known among the people. I asked my father, ‘Do you know him?’ He said, ‘No. I do not know him nor about his knowledge. I have never met him.’ Hence, we got ready for the journey with our belongings. On the way, my father told me, ‘I need some money. If he gives me five hundred dirhams, I will spend two hundred dirhams for clothes, two hundred dirhams for household material and with the rest of the amount, i.e. one hundred dirhams, I will buy miscellaneous things.’ In my heart, I thought, ‘It is possible that you may give me three hundred dirhams. If so, I will spend one hundred dirhams on clothes, one hundred on other miscellaneous things and with the rest of the amount, I will buy a mule and go to Kohistan.’ Then, when we went to his holy house before we spoke anything, a slave came out and said, ‘Ali-bin-Ibrahim and his son, Muhammad, may come in.’ we went inside and offered Salams. He responded to our greetings and said, ‘O’ Ali, who prevented you from coming here till today?’ My father humbly said, ‘Huzur, I feel very much ashamed in coming to your service in this position. After that, when we came out, his slave followed us. He gave a bag, containing five hundred Dirhams, to my father and said, ‘There are five hundred Dirhams in the bag, two hundred for clothes, two hundred for food-grains and one hundred for sundry expenses.’ Then, he gave me another bag and said, “There are three hundred Dirhams in this bag, out of which, one hundred are for clothes, one hundred for household material and one hundred for buying a mule. And, it will be better for you not to go towards Kohistan. Instead, you can go somewhere else.’

He also indicated the other place. I decided to go towards that direction, where I made a marriage, and on the same day I got two thousand dirhams.”

पानी की मशक

पानी की मशक

गजवए यरमूक में बहुत से सहाबी शहीद हुए थे। जिस वक़्त शहीद हजरात नीमजा धूप में खून में पड़े लोट रहे थे। हज़रत इब्ने हुजैफा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु पानी की मशक कांधे पर उठाकर जख्मियों को पानी पिलाने के लिये तशरीफ़ ले चले। एक तरफ से आवाज़ आयी अल-अतश, अल-अतश (प्यास) प्यास!) हज़रत इब्ने हुज़ैफा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु ने यह आवाज सुनी तो दौड़कर वहीं पहुंचे देखा कि एक जख्मी मुसलमान प्यास के मारे नीम (आधी) जान हो रहा है चाहा कि उनके हलक़ में पानी डालें फौरन मुंह अपना जख्मी ने बंद कर लिया और यह कहाः ऐ अल्लाह के बंदे! मुझसे भी ज्यादा एक ज़ख़्मी मुसलमान प्यासा आगे पड़ा है। पहले उसे पानी पिलाओ तब मुझे पानी पिलाओ । इब्ने हुज़ैफा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु दूसरे जख्मी के पास पहुंचे। चाहा कि उन्हें पानी पिलायें उस ख़ुदा के बंदे ने भी पानी पीने से इंकार कर दिया। यह फरमाया कि मुझसे ज़्यादा एक और मुसलमान भाई प्यासा अल-अतश, अल-अतश पुकार रहा है पहले उसे पानी पिलाओ हज़रत हुज़ैफा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु उस तीसरे की ख़िदमत में पहुंचे मगर वहां तक पहुंचने न पाए थे कि वह प्यास से विसाल फ़रमा गये दौड़कर वापस आए तो देखा कि दूसरे प्यासे भी अल्लाह के घर तशरीफ ले गये। यहां से भागे और अव्वल ज़ख़्मी के पास आए तो इतने अरसे में वह प्यासे भी हौज़े कौसर पर पहुंच चुके थे।

(रूहुल – ब्यान जिल्द ४, सफा २८६) सबक : सहाबए किराम रज़ियल्लाहु तआला अन्हुम ने आख़िर दम तक अपने मुसलमान भाईयों की हमदर्दी तर्क न फ़रमाई और हमें इस बात का दर्स दिया कि मुसलमान अपने मुसलमान भाई का हमेशा ख़्याल रखें।