
Mishkat Shareef




The 4 Classic Stages of Sufism:
1. Shari‘ah (الشريعة) – The Law
Meaning: The outer path; divine rules and ethical conduct based on the Qur’an and Sunnah.
Goal: Submission and obedience to Allah.
Practices:
1) Praying 5 times a day
2) Fasting in Ramadan
3) Giving zakat
4) Avoiding haram
👉 Focus: Action and discipline
“Shari‘ah is the body. Without it, there is no foundation.”
2. Tariqah (الطريقة) – The Path
Meaning: The inner spiritual path to Allah through discipline, purification, and devotion.
Goal: To purify the nafs (ego/self) and draw closer to Allah.
Practices:
1) Following a spiritual guide (Shaykh)
2) Dhikr (remembrance of Allah)
3) Muraqabah (meditation and inner watchfulness)
4) Sufi rituals and litanies (awrad)
👉 Focus: Heart and soul
“Tariqah is the heart. Without it, actions are hollow.”
3. Ma‘rifah (المعرفة) – Gnosis / Divine Knowing
Meaning: True knowledge of Allah that comes through spiritual unveiling (kashf), not books.
Goal: To recognize Allah in all things with spiritual insight.
Characteristics:
1) Deep intuition
2) Inner certainty (yaqīn)
3) Moments of divine witnessing (mushahadah)
👉Focus: Enlightenment and vision of truth
“Ma‘rifah is the eye of the soul that sees what is hidden.”
4. Haqiqah (الحقيقة) – The Truth / Reality
Meaning: The ultimate reality; witnessing Allah as the only real existence (La ilaha illa Hu).
Goal: Complete annihilation in Allah (fana’) and subsistence through Him (baqa’).
State of Being:
1) Total surrender
2) Love without condition
3) Oneness with Divine Will
👉 Focus: Unity of existence (Wahdat al-Wujood)
“Haqiqah is the soul’s return to its source.”
Bonus Stage (Sometimes Mentioned):
5. ‘Ubūdiyyah (العبودية) – Servanthood
The deepest realization: After all knowledge and nearness, the Sufi realizes they are nothing but a servant (‘abd) of the Divine.
The Journey in a Sufi Saying:
“The Shari‘ah is like a candle. The Tariqah is its flame. The Ma‘rifah is the light. The Haqiqah is the vision it gives.”
شہزاد امیر (سید اشرفی)

अज्ञानी समाज की कुछ झलकियां
अरब प्रायद्वीप की राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों के जान लेने के बाद अब यहां की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक स्थिति की संक्षिप्त रूप-रेखा पेश की जा रही है।
सामाजिक स्थिति
अरब आबादी अनेक वर्गों पर सम्मिलित थी और हर वर्ग की स्थिति एक दूसरे से बहुत ज़्यादा भिन्न थी । चुनांचे उच्च वर्ग में मर्द-औरत का ताल्लुक़ अच्छा-भला प्रगतिवादी था । औरत को बहुत स्वतंत्रता प्राप्त थी, उसकी बात मानी जाती थी और उसका इतना सम्मान और इतनी सुरक्षा मिली हुई थी कि इस राह में तलवारें निकल पड़ती थीं और खून की नदियां बह जाती थीं। आदमी जब अपनी कृपाओं और वीरताओं पर, जिसे अरब में ऊंचा स्थान प्राप्त था, अपनी प्रशंसा करना चाहता तो आम तौर पर औरत ही को सम्बोधित करता, कभी-कभी औरत चाहती तो क़बीलों को समझौते के लिए इकट्ठा कर देती और चाहती तो उनके बीच लड़ाई और रक्तपात के शोले भड़का देती, लेकिन इन सबके बावजूद, बिना किसी विवाद के मर्द ही को परिवार का मुखिया माना जाता और उसकी बात निर्णायक हुआ करती थी। इस वर्ग में मर्द और औरत का ताल्लुक़ निकाह के ज़रिए ही क़ायम होता था और यह निकाह औरत के वली (अभिभावक) की निगरानी में किया जाता था। औरत को यह हक़ न था कि वली के बिना अपने तौर पर निकाह कर ले।
एक ओर उच्च वर्ग का यह हाल था तो दूसरी ओर दूसरे वर्गों में मर्द व औरत के मेल-मिलाप की और भी कई शक्लें थीं, जिन्हें बदकारी, बेहयाई और ज़िनाकारी के अलावा कोई और नाम नहीं दिया जा सकता ।
हज़रत आइशा रज़ि० का बयान है कि अज्ञानता युग में विवाह की चार शक्लें थीं-
एक. तो वही शक्ल थी, जो आज भी लोगों में पाई जाती है कि एक आदमी दूसरे आदमी को उसकी निगरानी में पल रही लड़की के लिए निकाह का पैग़ाम देता, फिर मंजूरी के बाद मह देकर उससे निकाह कर लेता ।
दूसरी शक्ल यह थी कि औरत जब हैज़ (माहवारी) से पाक होती, तो उसका शौहर कहता कि अमुक व्यक्ति के पास पैग़ाम भेजकर उससे उसका गुप्तांग प्राप्त करो (अर्थात जिना कराओ) और शौहर खुद उससे अलग-थलग रहता और उसके क़रीब न जाता, यहां तक कि स्पष्ट हो जाता कि जिस व्यक्ति से गुप्तांग
प्राप्त किया गया था (अर्थात जिना कराया था उससे हमल (गर्भ) ठहर गया है। जब हमल ठहर जाता तो उसके बाद अगर शौहर चाहता तो उस औरत के पास जाता। ऐसा इसलिए किया जाता था कि लड़का सज्जन और गुणों वाला पैदा हो। इस निकाह को निकाह इस्तबजाअ कहा जाता था (और इसी को भारत में नियोग कहते हैं) ।
निकाह की तीसरी शक्ल यह थी कि दस आदमियों से कम की एक टीम इकट्ठा होती थी, सब के सब एक ही औरत के पास जाते और बदकारी करते | जब वह औरत गर्भवती हो जाती और बच्चा पैदा होता तो बच्चा जनने के कुछ दिनों बाद वह औरत सबको बुला भेजती और सबको आना पड़ता। मजाल न थी कि कोई न आए। इसके बाद वह औरत कहती कि आप लोगों का जो मामला था, वह तो आप लोग जानते ही हैं और अब मेरे गर्भ से बच्चा पैदा हुआ है और ऐ फ़्लां ! यह तुम्हारा बेटा है। वह औरत उनमें से जिसका नाम चाहती, ले लेती और वह उसका लड़का मान लिया जाता ।
चौथा निकाह यह था कि बहुत से लोग इकट्ठा होते और किसी औरत के पास जाते। वह अपने पास किसी आने वाले से इंकार न करती। ये रंडियां होती थीं, जो अपने दरवाज़ों पर झंडियां गाड़े रखती थीं, ताकि यह निशानी का काम दे और जो इनके पास जाना चाहे, बे-धड़क चला जाए। जब ऐसी औरत गर्भवती होती और बच्चा पैदा होता, तो सब के सब उसके पास जमा हो जाते और क्रियाफ़ा शनास (अन्दाज़ा लगाने वाले) को बुलाते। क्रियाफ़ा शनास अपनी राय के मुताबिक़ उस लड़के को किसी भी व्यक्ति से जोड़ देता, फिर यह उसी से जुड़ जाता और उसी का लड़का कहलाता। वह इससे इंकार न कर सकता था—जब अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्ल० को नबी की हैसियत से भेजा, तो अज्ञानता के सारे विवाह निरस्त कर दिए, सिर्फ़ इस्लामी निकाह बाक़ी रहा, जो आज चल रहा है।
अरब में मर्द-औरत के मेल-जोल की कुछ शक्लें ऐसी भी थीं जो तलवार की धार और नेज़े की नोंक पर वजूद में आती थीं, अर्थात क़बीलेवार लड़ाइयों में विजयी क़बीला विजित क़बीले की औरतों को क़ैद करके अपने हरम में दाखिल कर लेता था, लेकिन ऐसी औरतों से पैदा होने वाली सन्तान पूरी ज़िंदगी शर्म महसूस करती थी ।
अज्ञानता-काल में बिना किसी हदबन्दी के अनेक बीवियों का रखना भी एक
1. सहीह बुखारी, किताबुन्निकाह, बाब मन क़ा-ल ला निका-ह इल्ला बिवली 2/769 व अबू दाऊद, बाब वुजूहुन्निकाह
जानी-पहचानी बात थी। लोग ऐसी दो औरतें भी निकाह में रख लेते थे जो आपस में सगी बहनें होती थीं। बाप के तलाक़ देने या वफ़ात पाने के बाद बेटा अपनी सौतेली मां से भी निकाह कर लेता था। तलाक़ देने और रुजू करने अधिकार मर्द को हासिल था और उसकी कोई सीमा न थी, यहां तक कि इस्लाम ने उनकी सीमा निश्चित कर दी।
ज़िनाकारी तमाम वर्गों में चरम सीमा को पहुंची हुई थी। कोई वर्ग या इंसानों की कोई क़िस्म इसका अपवाद न थी। अलबत्ता कुछ मर्द और कुछ औरतें ऐसी ज़रूर थीं जिन्हें अपनी बड़ाई का एहसास उस बुराई के कीचड़ में लत-पथ होने से रोके रखता था। फिर आज़ाद औरतों का हाल लौडियों के मुक़ाबले में ज़्यादा बेहतर था। असल मुसीबतें लौंडियां ही थीं और ऐसा लगता है कि अज्ञानियों का अधिसंख्य इस बुराई में लिप्त होने से कोई संकोच भी नहीं महसूस करता था, चुनांचे सुनने अबू दाऊद आदि में रिवायत है कि एक बार एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल० ! अमुक व्यक्ति मेरा बेटा है। मैंने अज्ञानता युग में इसकी मां से जिना किया था। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया, इस्लाम में ऐसे दावे की कोई गुंजाइश नहीं, अज्ञानता की बात खत्म हो गई, अब तो लड़का उसी का होगा, जिसकी बीवी या लौंडी हो और ज़िनाकार के लिए पत्थर है और हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास रज़ि० और अब्द बिन ज़मआ के दर्मियान ज़मआ की लौंडी के बेटेअब्दुर्रहमान बिन ज़मआ के बारे में जो झगड़ा पेश आया था, वह भी जानापहचाना और मालूम है । 2
अज्ञानता-युग में बाप-बेटे का ताल्लुक़ भी अनेक प्रकार का था। कुछ तो ऐसे थे, जो कहते थे-
‘हमारी सन्तान हमारे कलेजे हैं, जो धरती पर चलते-फिरते हैं।’
लेकिन दूसरी ओर कुछ ऐसे भी थे जो लड़कियों को रुसवाई और खर्च के डर से ज़िंदा ज़मीन में गाड़ देते थे और बच्चों को भुखमरी के भय से मार डालते थे । ३ लेकिन यह कहना कठिन है कि यह ज़ुल्म बड़े पैमाने पर चल रहा था,
अबू दाऊद नुसखुल मुराजअः बादत्ततलीक़ातिस्सलास, साथ ही कुतुबे तफ़्सीर
1. ‘अत्तलाकु मर्रतान’ 2. सहीह बुखारी 2/999, 1065, अबू दाऊद अल-वलदु लिल फ़राश, मुस्नद अहमद 2/206 3. कुरआन मजीद : 6/101-16/58, 59-17/31-81/8
क्योंकि वे अपने शत्रु से अपनी रक्षा के लिए दूसरों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा सन्तान की ज़रूरत महसूस करते थे और इसका एहसास भी रखते थे |
जहां तक सगे भाइयों, चचेरे भाइयों और कुंबे-क़बीले के लोगों के आपसी ताल्लुक़ात का मामला है, तो ये अच्छे भले पक्के और मज़बूत थे, क्योंकि अरब के लोग क़बीलेवार पक्षपात ही के सहारे जीते और उसी के लिए मरते थे । क़बीले के भीतर आपसी सहयोग और सामूहिकता की भावना पूरी तरह काम कर रही होती थी, जिसे पक्षपाती भावना और अधिक जगाए रखती थी। सच तो यह है कि क़ौमी लगाव और रिश्ते-नाते का ताल्लुक़ ही उनकी सामूहिक व्यवस्था की बुनियाद थी। वे लोग इस कहावत के शब्दों पर पूरी तरह अमल कर रहे थे कि ‘अपने भाई की मदद करो, चाहे वह ज़ालिम हो या मज्लूम’ इस कहावत के अर्थ में अभी वह सुधार नहीं हुआ था जो बाद में इस्लाम द्वारा किया गया अर्थात ज़ालिम की मदद यह है कि उसे ज़ुल्म से रोका जाए, अलबत्ता बुज़ुर्गी और सरदारी में एक दूसरे से आगे निकल जाने की भावना बहुत बार एक ही व्यक्ति से वजूद में आने वाले क़बीलों के बीच लड़ाई की वजह बन जाया करती थी, जैसा कि औस व ख़ज़रज, अबस व जुबयान और बिक्र व तग़लब आदि की घटनाओं में देखा जा सकता है।
1 जहां तक विभिन्न क़बीलों के एक दूसरे से ताल्लुक़ात का मामला है, तो ये. पूरी तरह खंडित थे । क़बीलों की सारी ताक़त एक दूसरे के खिलाफ़ लड़ने में ख़त्म हो रही थी, अलबत्ता दीन और अंधविश्वास की मिलावट से तैयार हुए कुछ रस्म व रिवाज और आदतों की वजह से कभी-कभी लड़ाई की गर्मी और तेज़ी में कमी आ जाती थी और कुछ हालात में समझौते और ताबेदारी के नियमों पर विभिन्न क़बीले इकट्ठे हो जाते थे। इनके अलावा हराम महीने उनके जीवन के लिए और रोज़ी-रोटी हासिल करने में पूरी तरह सहायक थे क्योंकि अरब उनके सम्माननीय होने पर बहुत ध्यान देते थे। अबू रजा अतारदी कहते हैं कि जब रजब का महीना आ जाता तो हम कहते कि यह नेज़े की अनियां उतारने वाला है। चुनांचे हम कोई नेज़ा न छोड़ते, जिसमें धारदार बरछी होती, मगर हम वह बरछी निकाल लेते। और कोई तीर न छोड़ते, जिसमें धारदार फल होता, मगर उसे भी निकाल लेते और रजब भर उसे कहीं डालकर पड़ा छोड़ देते। इसी तरह हराम के बाक़ी महीनों में भी।
1. बुखारी हदीस न० 4376, 2. फ़हुल बारी 8/91