मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक-35

हकीम मुबारक हुसेन के शिष्य होने की घटना

हकीम मुबारक हुसेन साहब, अरबी, फारसी के साहित्यकार और कवि थे तसव्वफ आध्यात्म में कुछ पुस्तकें भी आप ने लिखी हैं। अपनी एहराम धारण करने की बात उन्होंने स्वयं लिखा है। जब मेरी आयु बत्तीस वर्ष होगी, मुझे तहबन्द प्राप्त हुआ। मैं नक्शबन्द सिलसिले में मुरीद था। जब तक मौलाना सैय्यद फखरूद्दीन अली अहमद, हकीम बादशाह जीवित रहे मैं उनकी संगत में रहता था। उनके शरीर त्याग के पश्चात् मैं पटना रहने लगा। उसी जमाने में हाजी वारिस पाक अजीमाबाद आये हुए थे। मैं भी सेवा में उपस्थित हुआ और दो तीन दिन हुजूर की सोहबत में रहा। कलकत्ता जाने पर मेरे एक रिश्तेदार ने कहा कि यहाँ एक फकीर रहते हैं उन से मिलो। अतः मैं उस दरवेश से मिला। उन्होंने मुझे देखकर कहा ‘गर न बूदे जाते हक अन्दर बजूद। आबो गिलारा कै मलक करदे सजूद’ शाह साहब ने आगे कहा ‘तुम ने बहुत देर की, फिर मिल के जाना। मैं अपने स्थान पर आया खा पीकर सो रहा। स्वप्न में देखता हूँ वही शाह साहब जगा रहे हैं। इसी प्रकार तीन बार सोया और स्वप्न देखा। प्रातः एक मित्र के साथ मैं शाह साहब के पास पहुंचा, उन्होंने ‘देखते ही कहा ‘रात खूब सोये हो।’ फिर यह कह कर कि तलाश करो, बिदा कर दिया। घबराहट बढ़ने लगी अजीमाबाद आकर दूसरे दिन उस जमाने के बुजूर्गों से मिलने हेतु चल पड़ा। सर्व प्रथम देवा शरीफ पहुंचा, ज्ञात हुआ हजरत वारिस पाक सहाली चले गये हैं। सहाली पहुंचकर सरकार का कदम स्पर्श किया। आ मुस्कुरा कर कहा ‘आ गये! अच्छा जाओ मजे करो।’ मैं हट कर बैठ गया। ज
मेरी पुन: बुलाहट हुई हाजिर हुआ। सरकार ने कहा ‘जाओ, जाओ! यहाँ दोई (दो होने का भाव) की गुंजाईश नहीं है।’ ‘तुम शिष्य हो चुके हो, जाओ उसी को करो।’ यह सुन कर मैंने सोचा अच्छा! अपना भाग्य यहाँ न सही कहीं और सही किन्तु जो प्रश्न मेरे हृदय में छिपा है उसका उत्तर जब तक न मिलेगा मैं न जाऊंगा। फिर हज़रत ने तलब किया दो तीन बातों का जवाब मिला तथा आदेश हुआ ‘अच्छा जाओ! एक सप्ताह दस दिन में अजीमाबाद आऊंगा तो तुमसे मिलूंगा ।’

मैं बिदा होकर इलाहाबाद आया कुछ फकीरों से मिला सबने कहा दृढ़ रहो ! घबराने की जरूरत नहीं है। फिर मैं अपने पीर (गुरू) के घर जाकर उनके पुत्र उत्तराधिकारी मौलाना मसीहुद्दीन साहब से कहा कि हमारे पीर मुर्शिद ने जबसे शरीर त्याग दिया है। मेरी दशा सोचनीय है। आप मेरी सहायता करें। उन्होंने कहा कहाँ तुम्हारे ऊपर हज़रत वारिस पाक की दृष्टि तो नहीं पड़ गयी है। मैंने कहा कि हजरत के पास से आ रहा हूँ। उपरोक्त मौलवी साहब ने कहा कि इस समय उनके बराबर कौन है ? उचित है, जहाँ तुम्हारा हिस्सा हो प्रयत्न करो। फिर सीधा अजीमाबाद आया एक सप्ताह पश्चात् हजरत सैय्यद वारिस पाक अजीमाबाद पधारें। मैं उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। आपने फिर वही शब्द कहा ‘जाओ, जाओ।’ मैंने एक कविता साकीनामा लिखकर प्रस्तुत किया। आपने खुश होकर कहा ‘तू अजली शायर है।’ (तुम जन्मजात कवि हो) फिर आपने एक होली की फर्माइश किया। होली लिखकर प्रस्तुत हुई। दो तीन दिन बाद आप सीवान के लिये चले मैं भी साथ हो लिया। सीवान स्टेशन पर मेरी दशा विचित्र हो गई। सरकार की पूरी दया मुझ पर थी। मैंने जो देखा सो देखा कहने में नहीं आ सकता। पुनः मैं हजरत के साथ गोरखपुर तक चला गया। दो तीन मास पश्चात् फिर मैं फतहपुर में कदम बोस हुआ और एक मसनवी (कविता) लिखकर हुजूर के सम्मुख उपस्थित हुआ। सरकार बहुत आनन्दित हुए फिर आपके हुक्म से एक सिजरा अरबी भाषा में लिखा! हुजूर के साथ देवा शरीफ तक गया। देवा शरीफ से वापसी के पश्चात् अब मेरा मन खोया सा रहने लगा। मैलाना ने भी रूमी की तर्ज़ में एक मसनवी लिखा जिसमें अपनी एक रात की घटना है। मैंने स्वप्न देखा कि मुझे लोग पीले रंग का कफन पहनाते हैं फिर लोग मेरा जनाज़ा लिये जाते हैं। मुझे आवाज़ सुनाई पड़ी, पानी लाओ! जब मैं पानी लेकर गया तो देखा मेरा अपना जनाज़ा है। मैं हुजूर के पास पहुंचकर बहुत रोया। इसी दशा में हुजूर ने मुझे गले लगा लिया। मैंने एक तहबन्द तैयार कराकर सैय्यद मारूफ शाह और बेनजीर शाह इत्यादि के साथ हुजूर
की ख़िदमत में हाजिर किया। हुजूर ने अपना एहराम मुझ को प्रदान किया। उस समय मेरा सपना साकार हो गया। मेरा नाम अब्दुल आद शाह रखा। इससे विदित है कि हुजूर वारिस पाक दूसरे लोगों के चेलों को जल्दी अपना शिष्य नहीं बनाते थे। जब मुबारक हुसेन साहब ने अपने गुरू के उत्तराधिकारी से स्वीकृत ले लिया तब हजरत ने उनको शिष्य बनाया। आप कविता में अपना उपनाम तहैयुर रखते थे। आपकी फारसी कवितायें फारसी भाषा में अधिक जनप्रिय हैं। अतः लिखना व्यर्थ सा जान पड़ता है।

अब्दुल आद शाह साहब वारसी एक साहबे निसबत फकीर गुजरे हैं। आपके शरीर त्यागने की घटना बड़ी रोचक है। हाजी अवघट शाह साहब वारसी लिखते हैं कि जब आप बीमार हुए उस समय आप देवा शरीफ में थे। नवाब अब्दुश्शकूर साहब, धर्मपुर, बुलन्द शाहर ने हजरत वारिस पाक से प्रार्थना किया कि यदि आदेश हो तो मैं आपने घर ले जाकर इनकी दवा-दारू करूं। आपने कहा ‘तुम्हारे भाई हैं तुम्हें अख्तियार है।’ नवाब साहब द्वारा शाह साहब धर्मपुर लाये गये। डाक्टरों ने सहमत हो जीवन से निराशा प्रकट कर दिया। आद शाह साहब जहाँ ठहराये गये थे वहीं इनसे विरोध रखने वाले एक मौलवी साहब भी किसी दूसरे मकान में रहते थे दूसरे दिन लगभग 3 बजे सैय्यद अब्दुल आद शाह का सवाल हो गया। हक़ीमों और वैद्यों ने नब्ज (नाड़ी) देखकर घोषित कर दिया कि आप जीवन से रहित हो चुके हैं किन्तु मौलवी साहब अपनी ख्याली विरोध के कारण रोगावस्था में भी आद शाह साहब से नहीं मिले। सैय्यद अब्दुल आद शाह के हृदय से एक स्वर उठने लगा जो धीरे-धीरे इतना ऊँचा हुआ कि स्वर साफ-साफ ‘अल्लाह, अल्लाह’ सुनाई देने लगा। आवाज फैलते-फैलते मौलवी साहब तक पहुंची। नवाब साहब यह देखकर हुज़ूर हाजी साहब को जवाबी तार दिया। सरकार वारिस पाक ने तार पाकर हाजी अवघट शाह से कहा जवाब दे दो ‘सुपरदम व तु मायए खेसरा’ ( मैंने अपनी पूंजी तेरे हवाले कर दिया) तार का जवाब पाकर नवाब साहब ने आद शाह के निकट जोर से सुनाया। आवाज बन्द हो गयी। 23 जिलहिज्जा 1321 हिजरी को आवाज 3 बजे दिन से सात बजे रात तक चार घंटे बराबर चलती रही। आए नवाब साहब के बाग में दफन हुए। रियासत की ओर से प्रत्येक वर्ष आपका उर्स होता है। से

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