मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक-17

पवित्र और दोष रहित विशेषतायें

जिस प्रकार आपका सौन्दर्य और रूप मोहक और हृदय को आनन्दित करता था। उसी प्रकार दूसरी विशेषताओं से भी आप सुसज्जित थे। आपका सरापा अद्वैत्य का दर्पण था और खुदा की एकताई का आईना था। जो समक्ष आता वह अचंभित होकर अद्वैत्य के रंग में डूब जाता । आपकी सभा का एक छोटा करिश्मा था कि अधिक लोगों के एकत्र होते हुए भी सभी का हृदय एक रंग में रंग जाता और एक ही ख्याल तथा समान विचार के दृष्टिगोचर होते थे। ईश्वर ने आपके शरीर को यह भी विशेषता प्रदान किया था कि कभी-कभी आपके पुनीत शरीर का पूर्णतः ज्ञान नहीं होता था और दर्शक दंग रह जाते थे। इस बात से यह प्रत्यक्ष है कि आपका पुनीत शरीर पूर्णत: प्रकाश पुँज था।

बहुधा सेवा में उपस्थित रहने वाले हाफिज रहमत अली साहब निवासी मटवारा, खैरात अली साहब पैंतेपुरी, मियाँ भूरे शाह इत्यादि ने भी इसकी गवाही दी है तथा मौलवी रौनक अली साहब रज्जाकी-वारसी लिखते हैं कि मेरे पिता शाह मकसूद अली रह० अलैह और हकीम रहमत अली साहब पैंतेपुरी जो आपके सहपाठी थे ब्यान करते हैं कि हुजूर के पवित्र पैर दबाते समय आपका पवित्र शरीर ज्ञात नहीं होता था। मारूफ शाह साहब वारसी किबला लिखते हैं कि मेरी बड़ी बहन ने जो हुजूर से बैय्यत थीं एक बार मुझसे कहा कि ऐसा संयोग होता है कि जब हुजूर के पाँव दबाने का इरादा होता है तो आपके पुनीत शरीर का पता ही नहीं चलता है। इस कथन के कारण उत्सुकतावश अनुभव किया। रात के समय मैंने जाकर वारिस पाक के बिस्तरे के पायताने सोता और रात के समय पद चप्पी की गरज से जाकर आपके पदस्पर्श किया किन्तु आप का पवित्र अंग न पाकर ठीठका और विस्मयभूति होकर अपनी जगह जा लेटा तथा चारों ओर देख भालकर यह सोचने लगा कि अंततः आप क्या हो गये? इसी विचार में था कि आपने पुकारा “मारूफ शाह सोते हो।” इस निर्देश पर मैं पहुँचकर पाँव चप्पी में लग जाता तथा आप भिन्न-भिन्न स्थानों की घटनाओं का वर्णन करने लगते ।

मौलवी रौनक अली साहब वारसी रज्जाकी लिखते हैं कि मियाँ नियामत अली शाह साहब वारसी निवासी ग्राम सहारा का ब्यान है कि हुजूर जमाना अलालत के बाद और पालकी की सवारी के पहले जब पैदल चलते तो कमजोरी के कारण थक जाते। चलने में अधिक कष्ट होने लगता था। उस समय उपस्थित सेवक आपको एक चादर पर लिटाते और चादर के कोनों को पकड़ लेते थे। बिना किसी हिचक आपको लिए चले जाते थे। ले जाने वालों को आपके शरीर के भार का ज्ञान नहीं होता था और बात की बात में दूरी समाप्त हो जाती थी। नियामत अली शाह साहब का कहना है कि देवा शरीफ से कुरसी तक मैं भी सेवा में सम्मिलित था। आपका शरीर पुष्प की भाँति हलका था ।

पुस्तक ऐनुल यकीन में है :- एक बार सरकार वारिस पाक हाफिज रमजान अली साहब के मकान पर विराजमान थे। आप में विश्वास रखले वालों की एक भीड़ लगी हुई थी। हाफिज साहब ने बातचीत के बीच कहना आरंभ किया। हमने सुना है कि सैय्यद शाह अब्दुर्रज्जाक साहब की कमर से पटका निकल गया था किन्तु यह बात कुछ समझ में नहीं आती। आप ने फरमाया ‘हमारी कमर में एक मजबूत चादर बांध कर खींचो।’ आदेश का पालन किया गया और बंधी बंधाई चादर बाहर निकल आई। सभी लोग अचंभित हो गये। यहीं तक यह बात नहीं रही वरन् हुजूर जिस चीज से जो काम लेना चाहते थे उस वस्तु से वह कार्य प्रगट हो जाता था। लकड़ी से भी रूमाल निकल आने की एक घटना निम्नांकित है : –
मौलवी अहमद हुसेन साहब वारसी का कथन है कि एक समय मेरे मकान पर
हजरत अब्दुर्रज्जाक रह० बांसवी की इस घटना की चर्चा हो रहीं थी कि आपकी कमर से पटका निकल जाता था। हुजूर पाक मकान से बाहर निकल आये और उन लोगों के शंकित कथन को सुनकर कहा “यह क्या बकवास है। आशिकों को अल्लाह की ओर से हर हाल में एक हाल होता है। वह हर वस्तु तथा प्रत्येक प्राणी से जो चाहे करा दें। तमाम विशेषतायें माशूक अर्थात् भगवान में विलीन हो जाती हैं। उसमें खो जाने ही को ‘वसाल’ मिल जाना कहते हैं और ‘ख़ुदी’ अपने आप से बाहर हो जाना ही कमाल हैं। आशिक जब इस सीमा को पंहुंचते हैं तो अपने अस्तित्व को नष्ट कर देते हैं। इसका उदाहारण यह है कि जब सूर्य आकाश पर चमकता है तो तारे प्राणियों की दृष्टि से छुप जाते हैं जिस प्रकार तारिकाओं का होना आकाश पर है उसी भांति आशिक का होना माशूक में है जैसा कि है ‘मनकाना लिल्लाहे कानल्लाहो लहू’ अर्थ है – जो अल्लाह का हुआ, अल्लाह उसका हो गया। आशिक-माशूक एक हो जाते हैं। फिर इसमें अनोखेपन की कौन सी बात है ? वह ख़ुदा अपने आशिकों की तमाम खूबियाँ समेट लेता है।’ इन बातों पर कुछ समय तक सभी चुप रहे और सभी के ऊपर एक रोब छाया हुआ रहा। तत्पश्चात् हुजूर कस्बा मसौली को चले गये। मसौली में शेख मज़हर अली के मकान पर ठहरे । मौलवी अहमद हुसेन साहब अंकित करते हैं कि कुछ दिनों बाद जब किसी को इस घटूना का ख्याल तक नहीं था। एक दिन हज़रत वारिस पाक ने एक छड़ी जो कुबड़ी की तरह थी उस पर सफेद रूमाल बंधा था। शेख मज़हर किदवई को देकर कहा ‘यह गोरख धन्धा है। इस रूमाल को कुबड़ी से खींच लो। गाँठ वैसी ही रहेगी तथा रूमाल लकड़ी से अलग हो जायेगा ।’ आदेश की पूर्ति की गई वास्तव में ऐसा ही हुआ। मज़हर अली किदवई आपकी सेवा में रहते-रहते निर्भीक हो चुके थे। अन्होंने कहा यह सेवक इस लकड़ी से तसल्ली नहीं पा रहा है। मैं खुद अपने हाथ से गाँठ लगाऊंगा और फिर निकल जाये तो अवश्य विश्वास हो जायेगा । हुजूर ने स्वीकार किया किदवाई साहब ने अपने हाथ से मजबूत गिरह लगाई । कुबड़ी हुजूर वारिस हाथ में रही। किदवई ने रूमाल खिंचा और वह कुबड़ी से साफ बाहर हो गया। प्रत्येक व्यक्ति जो वहाँ उपस्थित था अचम्भे में पड़ गया । हुजूर वारिस पाक मुस्कुराते हुए
अपने बिस्तरे पर चले गये और कहा कि हमने अरब में एक उस्ताद से सीखा है। हम और किदवई वहाँ से अलग होकर सोचने लगे तो समझ में आया कि कमर से पटका निकल जाने का जवाब
सैय्यद हामिद अली शाह कादिरी चिश्ती, निवासी साड़ी, जिला हरदोई कहते है कि शेख अजमत अली शाह से हमने सुना है कि वह एक बार हुजूर के साथ थे। उन्होंने देखा था कि वर्षा के कारण चारों ओर पानी भरा था। मौज़ा कोरसत के मुकाम पर रास्ते में पानी अधिक था। आपने मुझे आदेश किया तुम हम को गोद में उठा लो। मैं हैरान हो गया कि हुजूर के इतने बड़े शरीर को कैसे संभाल सकूंगा। पर आदेश का पालन अनिवार्य है। इरादा किया देखा तो हुजूर पाक को देखते ही अचम्भे से भर उठा और ऐसा जान पड़ा कि एक छ: मास का बालक गोद में है और मैं हुजूर को लिये हुए आसानी से पार हो गया। आपका पुनीत शरीर देखने में तो शरीर अवश्य दिखाई देता था परन्तु वास्तव में आदमी के ढाँचे का एक आईना था। जिसमें ईश्वरीय रूप तथा विशेषतायें दिखाई देती थीं।

अपने चेलों के अतिरिक्त अन्य सिलसिलों के भी बुजुर्ग तथा सम्मानित लोगों के निरीक्षण में भी आया है। जैसा कि शाह नजीरूल हसन साहब कबा फतेहपूरी जो अपने समय के बुजुर्ग और नामवर हैं। एक पत्र में लिखते है- हज़रत हाजी साहब की शान श्रेष्ट और उच्च है। तौहीद के सागर में विलीन है । अपने निरीक्षण में केवल एक घटना आई और पर्याप्त है। देवा शरीफ में मुसाफहे का संयोग हुआ बसन्त ऋतु थी। सभी बसन्ती वस्त्रधारी थे। हज़रत हाजी साहब भी इसी रंग में थे । हाथ मिलाने के समय उनका दाहिना हाथ फकीर के दोनों हाथों के बीच था। मानों अपने हो हाथ थे जो एक दूसरे से मिले हुए थे। इनके हाथ का अंशमात्र भी मालूम नहीं होता था। यह दशा केवल दो मिनट तक थी। मौलाना कहते हैं जो कुछ निरीक्षण किया वह कलम से प्रकट नहीं किया जा सकता है। जिन महान लोगों को हुजूर पाक की संगति का सम्मान प्राप्त हुआ है वे सभी सरकार वारिस पाक की खूबियों का इकरार करते हैं, समर्थन देते हैं।

सरकार वारिस पाक सर्वदा नंगे पाँव रहते थे किन्तु कभी कमलवत चरण धूल धुसरित नहीं होते। अधिकांश लोग जो आपको देखे हैं, वह ऐसा कहते हैं कि आप के पद भूमि पर पड़ते हुए नहीं दिखाई पड़ते थे। हुजूर वारिस पाक के पवित्र चरणों की कोमलता अनगिनत लोगों ने देखा है। यहाँ तक कि लोगों ने रास्ते को कीचड़ मयी करके आप का इम्तेहान भी लिया है।

मौलाना शाह अब्दुल कादिर साहब, सूबा बिहार, अपनी देखी हुई घटना ब्यान फरमाते हैं। सन् १८८९ ई० की बात है जब वारिस पाक हकीम ज्याउल हसन

साहब निवासी भिसवाँ के मकान पर पधारे थे। उक्त हकीम साहब के दरवाज़े पर पानी गिरने के कारण कीचड़ हो गई थी जिसको हकीम साहब नहीं जानते थे। हुजूर वारिस पाक की पालकी उसी स्थान पर रखी गई जहाँ कीचड़ थी। आप पालकी से उतरे और कीचड़ से होते हुए मकान की ऊपरी मंजिल पर चले गये। फर्श पर बैठ गये किन्तु आपके पाँव में कीचड़ का अंशमात्र भी कहीं न लगा था और न फर्श पर कोई धब्बा पड़ा था।

मुंशी समद मस्त खाँ फजली, निवासी गंज मुरादाबाद जिला- उन्नाव अपनी आँखों देखी लिखते हैं। गंज मुरादाबाद में जिस मकान पर आप विद्यमान थे वहाँ महफिल की गरज़ से फर्श बिछाया जाता था। विशेषतः सफेद चांदनी अवश्य बिछती थी और उस फर्श पर आप तशरीफ रखते थे। यद्यपि आप नंगे पाँव होते थे। तथापि फर्श पर कहीं भी कोई धब्बा नहीं दिखाई पड़ता था।

शाह मुहम्मद रजीउद्दीन साहब मुतवल्ली (उत्तराधिकारी, प्रबन्धकर्ता) दरगाह शरीफ अवूल अला साहब लिखते हैं कि मैं अपने एक रिश्तेदार के यहां बाराबंकी में था, मुहर्रम का महीना था, वर्षा हो रही थी। मैंने देखा कि हुजूर वारिस पाक लोगों की एक भीड़ के साथ अपने एक धार्मिक चेले के वहाँ जा रहे थे। मैं भी उनके साथ हो लिया, उस समय वर्षा के कारण सड़क पर कीचड़ बन गई थी। सभी लोगों के पैर जूते में भी गन्दे और मैले हो रहे थे । हुजूर वारिस पाक अपनी प्रथा के अनुसार नंगे पाँव चलकर मुरीद के सुसज्जित कमरे के फर्श पर जाकर बैठे। हमने देखा कि आपके पैर साफ थे। पाँव में कीचड़ का चिन्ह भी कहीं न था और न फर्श की बिछी हुई सफेद चादर पर कोई धब्बा ही पड़ा था।

मौलाना हाजी कारी अहमद मुखतार साहब मेरठी जिनको नक्शबन्दिया, चिश्तिया और कादिरीया से खिलाफत तथा सनद प्राप्त है का लिखना है कि जब मैं दूसरी बार दरबार वारसी में हाज़िर हुआ तो मैंने देखा कि हज़रत हाजी साहब किबला फिनिस से उतर कर नंगे पाँव छिड़काव की गई जमीन से पधारे किन्तु आप के पांवों में धूल-मिट्टी का आंशिक प्रभाव भी नहीं था। मौलाना हाजी शाह अबू मुहम्मद अली हसन साहब अशरफी अल जीलानी किछौछा शरीफ द्वारा लिखित है कि मैंने हाजी साहब को नंगे पाँव ईदगाह में जाते हुए कई बार देखा है। आपके पाँव मुबारक में धूल गर्द नहीं जमती और न उनके पद चिन्ह ही फर्श पर उभरते थे। ऐसी घटनायें आये दिन हजारों लाखों लोगों को दृष्टिगोचर हुई है। यह बात एक खुली. निशानी थी जो प्रत्येक समय नजरों से गुजरती थी।
मीर आरिफ अली साहब रईस बरौदा जो इमामिया मज़हब रखते थे। वह ब्यान करते थे कि एक बार हुजूर वारिस पाक मेरे घर पधारे तो आप पैरों में जूता या खड़ाऊँ जैसी कोई वस्तु नहीं थी। रास्ते में धूल, मिट्टी, कीचड़ और पानी सब कुछ था पर आप के पुनीत पदों में कीचड़ – मिट्टी कुछ भी न लगा था। आपके चरण धूल-धुसरित भी नहीं थे। आप बिछी हुई चाँदनी पर बेहिचक पधारे पर फर्श पर कोई धब्बा नहीं आया। आरिफ अली साहब कहते हैं कि इसके पूर्व भी हमने यह सुना था किन्तु मुझे यकीन नहीं आया। जब अपनी आंखो से देखा तो मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। इसी भांति मौलवी हामिद हुसेन कादिरी बरेलवी लिखते है कि यह घटना स्वयं उनके बुजुर्ग शाह निजामुद्दीन साहब बरेलवी ने अतिप्रेम से लिखा है। आप का जीवन संसार के संबन्धों तथा धार्मिक बुराईयों से पाक था। भाग्यशाली हैं वे लोग जिनके हाथों और होंठों ने आपके पद स्पर्श किये हैं। शैदा मियाँ वारसी के शब्दों में –

सिर यहाँ जिस ने झुकाया वह नेक अन्जाम ।

दीन-दुनिया के सभी बन गये बिगड़े हुए काम ॥ अपने पैरू की भी रहबरी करते हैं मुदाम । अब कदम चूम ले शैदा कि सरापा है तमाम् ॥ कोई दुनिया में तअल्ली से न मुमताज़ हुआ । सर यहाँ तू ने झूकाया तो सर-फराज़ हुआ ॥

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