मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक-12

तवक्कल –

तवक्कल का अर्थ है अल्लाह पर भरोसा करना और उसके अतिरिक्त सबसे बे परवाह होना। स्तग़ना का अर्थ होता है कि भगवान के सिवा किसी की परवाह न करना। हुजूर वारिस पाक आरम्भ से ही बड़े स्वतंत्र विचार के थे और बड़ी घनी तबियत के थे । वास्तव में किसी वस्तु से गरज नहीं थी। आप नज़राना नहीं पसन्द करते थे। रुपया, पैसा, दिरहम, दिनार नहीं लेते थे। सौगात स्वीकार करते थे और वह भी उसी समय उपस्थित जनों में बंटवा देते थे। अमीर और रईस लोग नकदी आप पर निछावर करके गरीबों को स्वयं बांट देते थे। विशेष महत्व की बात यह है कि आपने किसी प्रकार का रुपया पैसा कभी अपने पुनीत हाथ से छुआ तक नहीं, न अपने पास रखा। आपने कभी खाने-पीने का कोई प्रबन्ध नहीं किया, घरद्वार, बिस्तर, कम्बल, ओढ़ना, बिछौना कुछ भी अपने पास नहीं रखा। ज़रूरत की चीज़ों से भी बेफिक्र रहते थे। किसी को बिस्तर उठाकर दे दिया, किसी को कम्बल, किसी को चादर बांट दिया करते थे। हकीकत यह थी कि जरूरी सामानों की भी कोई चिन्ता नहीं रखते थे। केवल एक एहराम (पीला वस्त्र) आपके पवित्र शरीर पर होता था, वह भी किसी दूसरे व्यक्ति का दिया हुआ होता था जो लोग बदलवाने के लिए लाते थे। जब कोई एहराम आपको लाता था। आप उसे शरीर पर डालते और उतारा हुआ उसी समय किसी को दे दिया जाता था, चाहे वह कितना ही बहुमूल्य हो। आप उसे सदैव के लिए छोड़ देते थे। धनी-मानी, राजा-महाराजा

मूल्यवान चादरें, जामादारें तथा अन्य अमूल्य वस्तुऐं उपहार में भेजते किन्तु आप अपने लिए किसी को पसन्द नहीं करते थे। हाँ, बांटने से बहुत खुश रहते थे। अत: आपकी प्रसन्नता हेतु धनी मानी लोग उपहार लाते और दीन दुखियों में बांटकर आनन्दित होते थे। चारों ओर यह बात फैली हुई थी जो जिस इरादे से अथवा जिस ख्याल से जाता था, आपके दानशील दरबार से उसको वही प्रदान होता था। शेख निहालुद्दीन साहब, निवासी कुरसी, जिला- बाराबंकी के हैं, ब्यान करते हैं कि एक समय की बात है कि मैं सरकार वारिस पाक के दरबार में हाज़िर था, वहीं पर एक रईस साहब हुजूर की सेवा में एक फ़र्द (चादर) तैयार कराके लाये। उनके साथ उनका ख़ान्सामा भी था जिसकी नीयत फ़र्द पर लगी थी। रईस साहब ने आपके चरणों में वह फ़र्द अर्पित कर दिया। हुजूर बहुत आनन्दित और ख़ुश हुए। उसी समय फ़र्द ओढ़कर बैठ गये। दो-चार मिनट बाद वह रईस चरण स्पर्श कर चले गये। तत्पश्चात् ही उनका खान्सामा अपने हाथ की बनाई हुई मिठाई लाकर हुजूर के सम्मुख पेश किया। आपने उसका उपहार स्वीकार कर बंटवा दिया और खान्सामा को अमीर की चादर जो ओढ़े हुए थे प्रदान कर दिया। इस प्रकार की घटनायें बहुधा होती रहती थीं किन्तु कोई सवाली कभी खाली हाथ नहीं लौटता । आपके सेवक उसको इतना देते कि उसकी ज़रूरत से अधिक हो जाता था। हुजूर स्वयं आज़ाद मिज़ाज़ और संसार से विरक्त थे। उनकी विशेषता की

एक अलग शान है किन्तु अपने गुलामों को भी यही हिदायत थी और हिदायत ही तक नहीं बल्कि उनकी कड़ी पकड़ होती थी। गुलाब शाह साहब आपके फ़कीरों में थे। आगरा में रहते थे। हाफिज़ गुलाब शाह वारसी पानी फूंक कर दे देते थे। पानी पीने वाला निरोग हो जाता था। आपके यहाँ जवान-बूढ़ों और बच्चों की भीड़ लगी रहती थी। दरवाजे पर रोगियों-दुखियों का तांता बना रहता था। आठ दस भिश्ती पानी लिए खड़े रहते थे तथा कुम्हार टोकरों में मिट्टी के कूज़े (बट्टे) लिए बेचते रहते थे। संयोगवश कलक्टर साहब बहादुर की पत्नी को प्रसव पीड़ा आरंभ हुई दो चार दिन इसी कष्ट और परेशानी में बीत गये। डाक्टर भी परेशान हो गये। लोगों ने जिलाधीश महोदय से कहा यहाँ पर एक फकीर रहते हैं वह प्रत्येक रोग के लिए पानी फूंक कर देते हैं। कलक्टर महोदय ने पानी मंगाकर प्रयोग कराया। बच्चा पैदा हुआ। कलक्टर महोदय बड़े अधिकारियों से प्रयत्न करके पांच हजार वार्षिक आमदनी के एक मौजे की सनद बनवाकर तहसीलदार साहब द्वारा भेजवाया। हाफिज़ गुलाब शाह लेने में सोचने लगे और इस मामले से सम्बन्धित एक प्रार्थना

पत्र सरकार वारिस पाक की सेवा में भेजा कि जो आपकी आज्ञा हो किया जाय। आपने गुलाब शाह को आदेश किया कि गुलाब शाह खुद ही इनकार कर देना जरूरी था जो खुदा सम्पूर्ण रोगों को दूर कर सकता है। वह भूख-प्यास का कष्ट भी निवारण कर सकता है। जो लालच में घिर जाये वह हमारा नहीं है। गुलाब शाह ने सनद लेने से इनकार कर दिया। कलक्टर साहब टदास हो उठे और कुछ सोच समझकर हाफिज़ साहब के मकान से लगी हुई एक मस्जिद का निर्माण करा दिया। एक बार आपने कहा ‘बड़ी फ़कीरी यह है कि हाथ न फैलाये किसी के आगे।’ हाजी अवघट शाह ने पूछा कि यदि कोई बिना मांगे दे तो क्या करें? तो आपने कहा ‘यदि बिना मांगे दे तो ले लो।’ इस आदेश से यह विदित है कि नज़राना, भेंट इत्यादि जो बुजुर्गों के यहां चलता है जायज़ और उचित है। किन्तु इसको भी अपने लिए उचित नहीं मानते थे। आपकी दृष्टि का मूल किसी के आगे हाथ न फैलाना था। आपका कहना है ‘आज कल तौहीद (अद्वैत्व) टके सेर हैं। भीख मांगते हैं, बड़ी चीज़ यह है कि मर जाए किसी के आगे हाध न पसारे । तौहीद (ईश्वर को एक मानना और एक जानना) की प्रतिष्ठा आजकल नहीं है।’

हुजूर की नज़र संसारिक वैभव से परे रही और हमेशा इसके पाबन्द रहे। कभी भी जुबान से खाना-पीना और इससे सम्बन्धित वस्तुओं को कभी नहीं मांगा और न इच्छा व्यक्त की। आपके सेवक दैनिक अनिवार्य वस्तुओं को समयानुसार हुजूर के सम्मुख पेश कर देते तो आप स्वीकार कर लेते थे। एक बार आपके कुछ सेवकों ने आप पर निछावर किया हुआ कुछ रुपया एकत्रित किया था। इसपर आपने बहुत डाँटा और रोका। लोगों ने उज्न किया और बहाना बनाया तो आप यह दोहा गुनगुनाने लगे :

गुरु से कंपट मित्र से चोरी |

कि होइहें निर्धन कि होइहें कोढ़ी || आप दो वस्तुओं को अपने पास रखते थे। मिट्टी के ढेले पवित्रता (तहारत) के लिए और खरिका दाँत साफ करने के लिए। जब कभी गर्मी के दिनों में आपके सोने के लिए बिछौना बाहर लोग लगा देते थे और रात में वर्षा आ जाती तो आप केवल मिट्टी के ढेले (क्लूख) और खरिका लेकर अन्दर चले जाते थे। कहा जा सकता है कि हुजूर की दृष्टि में जीवन यापन करने के लिए दो ही वस्तुयें अनिवार्य थी। ‘व अलल्लाहे फ़लयतावक्कलिलू मूमेनून’ अर्थात् ईमान वालों को चाहिये कि केवल ईश्वर पर भरोसा करें तथा निर्भर रहें।

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