अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 51

इनमें और अरबों में शादी-ब्याह के रिश्ते भी क़ायम हो गए थे, लेकिन इन सबके बावजूद उनका नस्ली पक्षपात बहाल था और वे अरबों में मिले न थे, बल्कि अपनी इसराईली-यहूदी -राष्ट्रीयता पर गर्व करते थे और अरबों को बहुत ही समझते थे, यहां तक कि उन्हें उम्मी (अपढ़) समझते थे, जिसका मतलब तुच्छ उनके नज़दीक यह था, बुद्ध, जंगली, नीच, दलित और अछूत
उनका विश्वास था कि अरबों का माल उनके लिए जायज़ है, जैसे चाहें खाएं, चुनांचे इर्शाद है—

‘उन्होंने कहा, हम पर उम्मियों के मामले में कोई राह नहीं।’

(375)

यानी उम्मियों का माल खाने में हमारी कोई पकड़ नहीं।

इन यहूदियों में अपने दीन के प्रचार के लिए कोई सरगर्मी नहीं पाई जाती थी। ले-देकर उनके पास दीन की जो पूंजी रह गई थी, वह थी फ़ालगिरी (शकुन-अपशकुन मालूम करना), जादू और झाड़-फूंक वग़ैरह। इन्हीं चीज़ों की वजह से वे अपने आपको इल्म और फ़ज़्ल का मालिक और रूहानी नेता और पेशवा समझते थे।

1 यहूदियों को धन कमाने की कला आती थी । अन्न, खजूर, शराब और कपड़े का कारोबार उन्हीं के हाथ में था। ये लोग अनाज, कपड़ा और शराब आयात करते थे और खजूर निर्यात करते थे। इसके अलावा भी उनके बहुत-से काम थे, जिनमें वे सरगर्म रहते थे । वे अपने कारोबारी माल में अरबों से दो गुना-तीन गुना लाभ लेते थे और इसी पर बस न करते थे, बल्कि वे ब्याज का काम भी करते थे । इसलिए वे अरब शेखों और सरदारों को सूदी क़र्ज़ के तौर पर बड़ी-बड़ी रक़में देते थे, जिन्हें ये सरदार नाम कमाने के लिए अपनी प्रशंसा करने वाले कवियों आदि पर बिल्कुल व्यर्थ और बेदरेग़ खर्च कर देते थे। F

इधर यहूदी इन रक़मों के बदले इन सरदारों से उनकी ज़मीनें, खेतियां और बाग़ वग़ैरह गिरवी रखवा लेते थे और कुछ साल बीतते-बीतते उनके मालिक बन बैठते थे ।

ये लोग फूट डालने, षड्यंत्र रचने और लड़ाई-झगड़े की आग भड़काने में भी बड़े माहिर थे। ऐसी चालाकी से पड़ोसी क़बीलों में दुश्मनी के बीज बोते और एक को दूसरे के खिलाफ भड़काते थे कि उन क़बीलों को एहसास तक न होता । इसके बाद इन क़बीलों में आपस की लड़ाई होती रहती और अगर किसी तरह लड़ाई की यह आग ठंडी दिखाई देती, तो यहूदियों की छिपी चालें फिर हरकत में आ जातीं और लड़ाई फिर भड़क उठती।

कमाल यह था कि ये लोग क़बीलों को लड़ा-भिड़ाकर चुपचाप किनारे बैठे रहते और अरबों की तबाही का तमाशा देखते, अलबत्ता भारी-भरकम सूदी क़र्ज़ देते रहते, ताकि पूंजी की कमी की वजह से लड़ाई बन्द न होने पाए और इस तरह वे दोहरा नफा कमाते रहते। एक ओर अपने यहूदी जत्थे को बचाए रखते और दूसरी ओर सूद का बाज़ार ठंडा न पड़ने देते, बल्कि सूद दर सूद के ज़रिए बड़ी-बड़ी दौलत कमाते ।

यसरिब में इन यहूदियों के तीन मशहूर क़बीले थे-

1. बनू क़ैनुलाअ-ये खज़रज के मित्र थे और इनकी आबादी मदीने के अन्दर ही थी।

2. बनू नज़ीर-

3. बनू कुरैज़ा- ये दोनों क़बीले औस के मित्र थे और इन दोनों की आबादी मदीने के बाहरी हिस्से में थी।

एक मुद्दत से यही क़बीले औस व खज़रज के बीच लड़ाई के शोले भड़का रहे थे, और बुआस की लड़ाई में अपने-अपने मित्रों के साथ खुद भी शरीक हुए थे ।

स्वाभाविक बात है कि इन यहूदियों से इसके अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि ये इस्लाम को द्वेष और वैर-भाव से देखें, क्योंकि पैग़म्बर इनकी नस्ल के न थे कि उनके नस्ली पक्षपात को, जो उनके मनोविज्ञान और मनोवृत्ति का अटूट अंग बना हुआ था, शान्ति मिलती ।

फिर इस्लाम की दावत एक भली दावत थी, जो टूटे दिलों को जोड़ती थी, द्वेष और वैर की आग को बुझाती थी। तमाम मामलों में अमानतदारी बरतने और पाक और हलाल माल खाने की पाबन्द बनाती थी ।

इसका मतलब यह था कि अब यसरिब के क़बीले आपस में जुड़ जाएंगे, और ऐसी स्थिति में अनिवार्य रूप से वे यहूदियों की पकड़ से आज़ाद हो जाएंगे और उनकी कारोबारी चालें ढीली पड़ जाएंगी। वे उस सूदी दौलत से महरूम हो जाएंगे, जिस पर उनकी मालदारी की चक्की धूम रही थी, बल्कि यह भी डर था कि कहीं ये क़बीले जाग कर अपने हिसाब में उन सूदी मालों को भी न दाखिल कर लें जिन्हें यहूदियों ने उनसे बे-मुआवज़ा हासिल किया था और इस तरह उन ज़मीनों और बाग़ों को वापस न ले लें जिन्हें सूद के नाम पर यहूदियों ने हाथिया लिया था ।

जब से यहूदियों को मालूम हुआ था कि इस्लामी दावत यसरिब में अपनी जगह बनाना चाहती है, तभी से उन्होंने इन सारी बातों को अपने हिसाब में दाखिल कर रखा था। इसीलिए यसरिब में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि

उन्होंने कहा, ‘हां, ख़ुदा की क़सम !’

पिता ने कहा, हां।

चचा ने कहा, तो अब आपके मन में उनके बारे में क्या इरादे हैं ? पिता ने कहा : ‘दुश्मनी, खुदा की क़सम, जब तक ज़िंदा रहूंगा।” इसी की गवाही सहीह बुखारी की इस रिवायत से भी मिलती है, जिसमें हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु के मुसलमान होने की घटना बयान की गई है। वह एक बहुत ही ऊंचे यहूदी विद्वान थे। आपको जब बनू नज्जार में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आने की ख़बर मिली, तो वह आपकी सेवा में बिना देर किए हाज़िर हुए और कुछ सवाल किए, जिन्हें सिर्फ नबी ही जानता है और जब नबी की ओर से उनके जवाब सुने, तो वहीं उसी वक़्त मुसलमान हो गए, फिर आपसे कहा-

व सललम के आने के वक़्त ही से यहूदियों को इस्लाम और मुसलमानों से बड़ी दुश्मनी हो गई थी। अगरचे वे उसको प्रकट करने का साहस एक लम्बी मुद्दत बाद कर सके। इस स्थिति का बहुत साफ़-साफ़ पता इब्ने इस्हाक़ की बयान की हुई एक घटना से चलता है।

उनका बयान है कि मुझे उम्मुल मोमिनीन हज़रत सफ़िया बिन्त हुइ बिन अखतब रज़ियल्लाहु अन्हा से यह रिवायत मिली है कि उन्होंने फ़रमाया, मैं अपने पिता और चचा अबू यासिर की निगाह में अपने बाप की सबसे चहेती औलाद थी। मैं चचा और बाप से जब कभी उनकी किसी भी औलाद के साथ मिलती, तो वे उसके बजाए मुझे ही उठाते।

जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तशरीफ़ लाए और क़बा में बनू अम्र बिन औफ़ के यहां उतरे, तो मेरे पिता हुइ बिन अख़तब और मेरे चचा अबू यासिर आपकी सेवा में सुबह तड़के हाज़िर हुए और सूरज डूबने के वक़्त वापस आए। बिल्कुल थके-मांदे, गिरते-पड़ते, लड़खड़ाती चाल चलते हुए। मैंने पहले की तरह चहक कर उनकी ओर दौड़ लगाई, लेकिन उन्हें इतना दुख था कि खुदा की क़सम, दोनों में से किसी ने मेरी ओर तवज्जोह न दी और मैंने अपने चचा को सुना, वह मेरे पिता हुइ बिन अख़तब से कह रहे थे— ‘क्या यह वही हैं?’

चचा ने कहा, ‘आप उन्हें ठीक-ठीक पहचान रहे हैं ?”

इब्ने हिशाम 1/51819

‘यहूदी एक बोहतान लगाने वाली क़ौम है। अगर उन्हें इससे पहले कि आप कुछ मालूम करें, मेरे इस्लाम लाने का पता लग गया, तो वे आपके पास मुझ पर बोहतान गढ़ेंगे।’

इसलिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यहूदियों को बुला भेजा, वे आए (और उधर अब्दुल्लाह बिन सलाम घर के अन्दर छिप गए थे), तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पूछा कि अब्दुल्लाह बिन सलाम तुम्हारे अन्दर कैसे आदमी हैं?

उन्होंने कहा, हमारे सबसे बड़े विद्वान हैं और सबसे बड़े विद्वान के बेटे हैं। हमारे सबसे अच्छे आदमी हैं और सबसे अच्छे आदमी के बेटे हैं।

एक रिवायत के शब्द ये हैं कि हमारे सरदार हैं और हमारे सरदार के बेटे हैं। और एक दूसरी रिवायत के शब्द ये हैं कि हमारे सब से अच्छे आदमी हैं और सबसे अच्छे आदमी के बेटे हैं और हम में सबसे अफ़ज़ल हैं और सबसे अफ़ज़ल आदमी के बेटे हैं।

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया, अच्छा यह बताओ, अगर अब्दुल्लाह मुसलमान हो जाएं तो ?

यहूदियों ने दो या तीन बार कहा, अल्लाह उनको इससे बचाए रखे ।

इसके बाद हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम निकले और फ़रमाया-

‘अश्हदु अल-ला इला-ह इल्लल्लाह व अश्हदु अन-न मुहम्मदर रसूलुल्लाह’ (मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं और मैं गवाही देता हूं कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं ।)

इतना सुनना था कि यहूदी बोल पड़े-

‘यह हमारा सबसे बुरा आदमी है और सबसे बुरे आदमी का बेटा है।’ और (उसी वक़्त उनकी बुराइयां शुरू कर दीं।

एक रिवायत में है कि इस पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ियल्लाहु अन्हु ने फ़रमाया—

‘ऐ यहूदियो ! अल्लाह से डरो। उस अल्लाह की क़सम, जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, तुम लोग जानते हो कि आप अल्लाह के रसूल हैं और आप हक़ लेकर तशरीफ़ लाए हैं।’

लेकिन यहूदियों ने कहा कि तुम झूठ कहते हो।’

सहीह बुखारी 1/459, 556, 561

यह पहला तर्जुबा था जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यहूदियों के बारे में हासिल हुआ और मदीने में दाखिले के पहले ही दिन हासिल हुआ।

यहां तक जो कुछ लिखा गया है, यह मदीने के अन्दरूनी हालात से मुताल्लिक़ था । मदीने के बाहरी हिस्से में वे लोग थे जो कुरैश के धर्म का साथ देते थे और कुरैश मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन थे। वे दस साल तक, जबकि मुसलमान उनके मातहत थे, आतंक फैलाने, धमकी देने और तंग करने के तमाम हथकंडे इस्तेमाल कर चुके थे । तरह-तरह की सख्तियां और ज़ुल्म कर चुके थे । संगठित और विस्तृत प्रचार और बड़े ही आज़माइशी मनोवैज्ञानिक हथियारों को इस्तेमाल में ला चुके थे, फिर जब मुसलमानों ने मदीना हिजरत की, तो कुरैश ने उनकी ज़मीनें, मकान, और माल व दौलत सब कुछ ज़ब्त कर लिया और मुसलमानों और उनके घरवालों के दर्मियान रुकावट बनकर खड़े हो गए, बल्कि जिसको पा सके, क़ैद करके तरह-तरह की पीड़ाएं दी, फिर इसी पर बस न किया, बल्कि प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को क़त्ल करने और आपकी दावत को जड़-बुनियाद से उखाड़ने के लिए भयानक साज़िशें कीं और उसे अमली जामा पहनाने के लिए अपनी सारी क्षमताएं लगा दीं।

इसके बाद भी जब मुसलमान किसी तरह बच-बचाकर कोई पांच सौ किलोमीटर दूर मदीना के भू-भाग पर जा पहुंचे, तो कुरैश ने अपनी साख का फ़ायदा उठाते हुए घिनौना सियासी किरदार अंजाम दिया, यानी ये चूंकि हरम के रहने वाले और बैतुल्लाह के पड़ोसी थे और उसकी वजह से उन्हें अरबों के दर्मियान दीनी क्रियादत और दुन्यवी स्टेट का पद मिला हुआ था, इसलिए उन्होंने अरब प्रायद्वीप के दूसरे मुश्किों को भड़का और वरग़ला कर मदीने का लगभग पूरा बाईकाट करा दिया, जिसकी वजह से मदीना में आनेवाली चीज़ें बहुत थोड़ी-सी रह गई, जबकि वहां मुहाजिर शरणार्थियों की तायदाद हर दिन बढ़ती जा रही थी।

सच तो यह है कि मक्का के इन सरकशों और मुसलमानों के इस नए वतन के दर्मियान लड़ाई की हालत पैदा हो चुकी थी और यह बड़ी ही मूर्खता की बात है कि इस झगड़े का आरोप मुसलमानों के सर डाला जाए।

मुसलमानों को हक़ पहुंचता था कि जिस तरह उनके माल ज़ब्त किए गए थे, उसी तरह वे भी उन सरकशों के माल ज़ब्त करें, जिस तरह उन्हें सताया गया था, उसी तरह वे भी उन सरकशों को सताएं और जिस तरह मुसलमानों की

जिंदगियों के आगे रुकावटें खड़ी की गई थी, उसी तरह मुसलमान भी इन सरकशों के आगे रुकावटें खड़ी करें और इन सरकशों को ‘जैसे को तैसा’ वाला बदला दें, ताकि उन्हें मुसलमानों को तबाह करने और जड़ से उखाड़ने का रास्ता न मिल सके।

ये थे वे विवाद और समस्याएं जिनसे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मदीना तशरीफ़ लाने के बाद, रसूल, रहबर, रहनुमा और इमाम की हैसियत से सामना करना था।

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इन तमाम समस्याओं के बारे में मदीना में पैग़म्बरों वाला किरदार और सरदारी की भूमिका निभाई और जो क़ौम रहमत, नमीं या सख्ती और कड़ाई की हक़दार थी, उसके साथ वही व्यवहार किया और इसमें कोई सन्देह नहीं कि रहमत और मुहब्बत का पहलू सख्ती और कड़ाई पर छाया हुआ था, यहां तक कि कुछ ही वर्षों में पूरी बागडोर इस्लाम और मुसलमानों के हाथ में आ गई।

अगले पृष्ठों में इन्हीं बातों का विस्तृत विवेचन पाठकों के सामने लाया जाएगा।

Human comprise of 8 layers

Did you know that humans are not only combination of Ruh (soul) and Jism (body) but comprise of eight distinct layers.”

I would first like to clarify the word “Realm” In spiritual or philosophical context: “Realm” refers to a layer or part of reality, especially when speaking about the different aspects of the human being (like body, soul, mind, ego, etc.) or about different worlds (like this life, the afterlife, the unseen, etc.).

Examples:
Physical realm: The material world we see and touch.

The spiritual realm: The unseen world of souls, angels and divine connection.

Realm of the heart: The inner world of emotions and spiritual perception.

Realm of intellect: Where thoughts, logic and understanding operate.

So when we say “realms of the human body” we mean the different levels or layers of the human being, each with a specific purpose physical, emotional, mental and spiritual.

Below is a breakdown of the different “bodies” or entities associated with a human being.

1. The Physical Body (Jism/Badan): Material, temporary, made of earth.
• Function: The vehicle or container for the soul in the physical world.
• Purpose: To act as the instrument of obedience (or disobedience). Through it, we perform Salah, fast, speak, move and engage with the world.
• End: Returns to dust after death. But on the Day of Judgment, it will be resurrected.

2. The Soul (Rūḥ): Divine command (amr), from the unseen world (Alam al-Amr).
• Qur’an Reference: “And they ask you about the soul. Say: The soul is from the command of my Lord…”(Surah Al-Isra, 17:85)
• Function: The life force it animates the body.
• Purpose: To seek nearness to Allah ﷻ, to worship and to rise in spiritual stations.
• End: Does not die; it transitions between stages (dunya → barzakh → akhirah → jannah/jahannam).

3. The Nafs (Self / Ego / Inner Self): Spiritual psyche that inclines towards desires or higher consciousness.
• Types: Nafs al-Ammarah: The commanding self calls to evil. Nafs al-Lawwamah: The self-reproaching self feels guilt after sin. Nafs al-Mutma’innah: The peaceful self content with Allah.
Function: Drives desires, emotions, ambition must be purified through tazkiyah (spiritual discipline).
Purpose: It’s either the greatest barrier or the closest bridge to Allah ﷻ.

4. Himzād (Spiritual Twin / Qareen): Created with every human generally understood as a companion jinn.
• Hadith Reference: “Every one of you has been assigned a companion from the jinn.” (Sahih Muslim)
• Function: Whispers, tempts and mirrors the human’s actions and desires.
• Note: With purification and remembrance (dhikr), it can be subdued or even brought under control. The Prophet ﷺ’s Himzad embraced Islam.
• End: Will testify about the person’s life on the Day of Judgment.

5. Kirāman Kātibīn – Recording Angels: Two noble angels assigned to every human being.
• Function: Right Angel: Records good deeds, Left Angel: Records bad deeds.
• Qur’an Reference: “When the two receivers receive (him), seated on the right and on the left not a word does he utter but there is a watcher by him ready (to record).” (Surah Qaf, 50:17-18)
• End: Present till death; records presented on Judgment Day.

6. Mala’ikah (Guardian Angels / Protectors): Additional angels sent to guard and support believers, especially those who are close to Allah.
• Qur’an Reference: “For each (person), there are angels in succession, before and behind him. They guard him by the command of Allah. (Surah Ar-Ra’d, 13:11)
• Function: Protection from unseen harms. Bringing calm in prayer and dhikr. Carrying du’as to the heavens.

7. Qalb (Spiritual Heart): The seat of iman (faith), spiritual perception, and connection with Allah.
• Function: Receives divine light (noor), Reflects sincerity, humility, love of Allah, etc.
• Purpose: A purified heart becomes a mirror to the divine.
• Qur’an Reference: “The Day when neither wealth nor children will benefit, except one who comes to Allah with a sound heart.” (Surah Ash-Shu’ara, 26:88-89)

8. The ʿAql is the divine gift that distinguishes human beings from animals the faculty of reason, reflection and moral discernment. It is through the ʿAql that we understand truth, recognize guidance and make choices between good and evil. It enables us to reflect on the signs of Allah in creation and allows us to think beyond the present to contemplate the consequences of our actions.

Purpose: The ʿAql is not just to reason, but to awaken to truth. It is the inner witness that will one day recall everything from the original divine promise to every choice we made.

اللّٰهُمَّ وَفِّقْنَا لِطَاعَتِكَ، وَاجْعَلْ كُلَّ جَوَارِحِنَا وَذَوَاتِنَا وَأَرْوَاحِنَا سَبَبًا فِي نَجَاتِنَا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ
O Allah, grant us strength to obey You, and make all the realms within us our body, soul, heart, mind, and spirit means for our success in this world and the Hereafter. Āmīn.