
हराम की गई है। न इन पर सवारी की जा सकती है, न सामान लादा जा सकता है) और कुछ चौपाए ऐसे हैं, जिन पर ये लोग अल्लाह पर झूठ गढ़ते हुएअल्लाह का नाम नहीं लेते।’ (6:138)
6. इन्हीं जानवरों में बहीरा, साइबा, वसीला और हामी थे |
हज़रत सईद बिन मुसय्यिब का बयान है कि बहीरा वह जानवर है, जिसका दूध बुतों के लिए खास कर लिया जाता था और उसे कोई न दूहता था और साइबा वह जानवर है जिसे अपने माबूदों के नाम पर छोड़ते, इस पर कोई चीज़ लादी न जाती थी। वसीला उस जवान ऊंटनी को कहा जाता है जो पहली बार की पैदाइश में मादा बच्चा जनती, फिर दूसरी बार की पैदाइश में भी मादा बच्चा ही जनती । चुनांचे उसे इसलिए बुतों के नाम पर छोड़ दिया जाता कि उसने एक मादा बच्चे को दूसरे मादा बच्चे से जोड़ दिया। दोनों के बीच में कोई नर बच्चा पैदा न हुआ। हामी उस नर ऊंट को कहते जो गिनती की कुछ जुफ्तियां करता (यानी दस ऊंटनियां) जब यह अपनी ज़ुफ़्तियां पूरी कर लेता और हर एक से मादा बच्चा पैदा हो जाता, तो उसे बुतों के लिए छोड़ देते और लादने से माफ़ रखते, चुनांचे उस पर कोई चीज़ लादी न जाती और उसे हामी कहते ।1
इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि बहीरा साइबा की बच्ची को कहा जाता है और साइबा उस ऊंटनी को कहा जाता है जिससे दस बार लगातार मादा बच्चे पैदा हों, बीच में कोई नर न पैदा हो। ऐसी ऊंटनी को आज़ाद छोड़ दिया जाता था, उस पर सवारी नहीं की जाती थी. उसके बाल नहीं काटे जाते थे और मेहमान के सिवा कोई उसका दूध नहीं पीता था। उसके बाद यह ऊंटनी, जो मादा जनती, उसका कान चीर दिया जाता और उसे भी उसकी मां के साथ आज़ाद छोड़ दिया जाता, उस पर सवारी न की जाती, उसका बाल न काटा जाता और मेहमान के सिवा कोई उसका दूध न पीता । यही बहीरा है और इसकी मां साइबा है
वसीला उस बकरी को कहा जाता था जो पांच बार बराबर दो-दो मादा बच्चे जनती। (अर्थात् पांच बार में दस मादा बच्चे हों) बीच में कोई नर न पैदा होता। इस बकरी को इसलिए वसीला कहा जाता था कि वह सारे मादा बच्चों को एक दूसरे से जोड़ देती थी। इसके बाद उस बकरी से जो बच्चे पैदा होते, उन्हें सिर्फ़ मर्द खा सकते थे, औरतें नहीं खा सकती थीं, अलबत्ता अगर कोई बच्चा मुर्दा पैदा होता तो उसको मर्द-औरत सभी खा सकते थे ।
1. सहीह बुखारी हदीस न० 4623, फ़हुल बारी 8/133, इब्ने हिब्बान 8/53 (ब्रेकेट का वाक्य इब्ने हिब्बान का है)
हामी उस नर ऊंट को कहते थे, जिसके सहवास से लगातार दस मादा बच्चे पैदा होते, बीच में कोई नर न पैदा होता। ऐसे ऊंट की पीठ मज़बूत कर दी जाती थी, न उस पर सवारी की जाती थी, न उसका बाल काटा जाता था, बल्कि उसे ऊंटों के रेवड़ में जोड़ा खाने के लिए आज़ाद छोड़ दिया जाता था और इसके सिवा उससे कोई दूसरा फ़ायदा न उठाया जाता था। अज्ञानता-युग की बुत परस्ती के इन तरीक़ों का खंडन करते हुए अल्लाह ने फ़रमाया-
‘अल्लाह ने न कोई बहीरा, न कोई साइबा, न कोई वसीला और न कोई हामी बनाया है, लेकिन जिन लोगों ने कुक्फ्फ़ किया, वे अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं और उनमें से अक्सर अक़्ल नहीं रखते।’ (5 : 103)
एक दूसरी जगह फ़रमाया-
‘इन (मुश्किो) ने कहा कि इन चौपायों के पेट में जो कुछ है, वह खालिस हमारे मर्दों के लिए है और हमारी औरतों पर हराम है। अलबत्ता अगर वह मुर्दा हो, तो उसमें मर्द औरत सब शरीक हैं।’ (6: 139)
चौपायों की ऊपर लिखी गई क़िस्में अर्थात बहीरा, साइबा आदि के कुछ दूसरे अर्थ भी बयान किए गए हैं, जो इब्ने इसहाक़ की उल्लिखित व्याख्या से कुछ भिन्न हैं।
हज़रत सईद बिन मुसय्यिब रह० का बयान गुज़र चुका है कि ये जानवर उनके तागूतों (ख़ुदा के सरकशों) के लिए थे सहीह बुखारी व मुस्लिम में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया कि मैंने अम्र बिन आमिर लुही खुज़ाई को देखा कि वह जहन्नम में अपनी आंतें घसीट रहा था। क्योंकि यह पहला आदमी था जिसने दीने इब्राहीमी को तब्दील किया, बुत गाड़े, साइबा छोड़े, बहीरा बनाए, वसीला ईजाद किया और हामी मुक़र्रर किए।
1. सीरत इब्ने हिशाम 1/89, 90
2. सहीह बुखारी, 1/499
3. सहीह बुखारी हदीस न० 1212, फत्हुल बारी 3/98, हदीस न० 3521, फ़हुल बारी 6/633, हदीस न० 4623, फ़हुल बारी 8/132
4. इसे हाफ़िज़ ने फ़हुल बारी 6/634 में इब्ने इस्हाक़ से नक़ल किया है। इसी तरह कल्बी ने अस्नाम में और इब्ने हबीब ने अल मुनमिक़ में दर्ज किया है। इसका कुछ हिस्सा सहीह बुखारी में मरफूअन मौजूद है, कुछ को हाफ़िज ने सहीह मुस्लिम की तरफ़ अबू सालेह अन् अबी हुरैरह की रिवायत से मंसूब किया है। देखिए फत्हुल बारी 8/285,
अरब अपने बुतों के साथ यह सब कुछ इस श्रद्धा के साथ करते थे कि ये बुत उन्हें अल्लाह से क़रीब कर देंगे और अल्लाह के हुज़ूर उनकी सिफ़ारिश कर देंगे। चुनांचे कुरआन मजीद में बताया गया है कि मुश्कि कहते थे-
‘हम उनकी पूजा केवल इसलिए कर रहे हैं कि वे हमें अल्लाह के क़रीब कर दें।’ (39:3)
‘ये मुश्कि अल्लाह के सिवा उनकी पूजा करते हैं जो उन्हें न फ़ायदा पहुंचा सकें, न नुक्सान और कहते हैं कि ये अल्लाह के पास हमारे सिफ़ारिशी हैं।’ (10: 18)
अरब के मुश्कि ‘अज़लाम’ अर्थात फ़ाल (शकुन) के तीर भी इस्तेमाल करते थे। (अज़लाम, ज़लम का बहुवचन है और ज़लम उस तीर को कहते हैं, जिसमें पर न लगे हों) फ़ाल निकालने के लिए इस्तेमाल होने वाले ये तीर तीन प्रकार के होते थे—
एक वे जिन पर केवल ‘हां’ या ‘नहीं’ लिखा होता था। इस प्रकार के तीर यात्रा और विवाह आदि जैसे कामों के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। अगर फ़ाल में ‘हां’ निकलता तो चाहा गया काम कर डाला जाता, अगर ‘नहीं’ निकलता तो साल भर के लिए स्थगित कर दिया जाता और अगले साल फिर फ़ाल निकाला जाता ।
फ़ाल निकालने वाले तीरों का दूसरा प्रकार वह था जिन पर पानी और दियत आदि अंकित होते थे ।
और तीसरा प्रकार वह था, जिस पर यह अंकित होता था कि ‘तुम में से है’ या ‘तुम्हारे अलावा से है’ या ‘मिला हुआ है’। इन तीरों का काम यह था कि जब किसी के नसब (वंश) में सन्देह होता तो उसे एक सौ ऊंटों सहित हुबल के पास ले जाते। ऊंटों को तीर वाले महन्त के हवाले करते और वह तमाम तीरों को एक साथ मिलाकर घुमाता, झिंझोड़ता, फिर एक तीर निकालता। अब अगर यह निकलता कि ‘तुम में से है, तो वह उनके क़बीले का एक प्रतिष्ठित व्यक्ति मान लिया जाता और अगर यह निकलता कि ‘तुम्हारे अलावा से है’ तो ‘हलीफ़’ (मित्र) माना जाता और अगर यह निकलता कि ‘मिला हुआ है’ तो उनके अन्दर अपनी हैसियत बाक़ी रखता, न क़बीले का व्यक्ति माना जाता, न हलीफ़ । ‘
इसी से मिलता-जुलता एक रिवाज मुश्रिकों में जुआ खेलने और जुए के तीर इस्तेमाल करने का था । इसी तीर की निशानदेही पर वे जुए का ऊंट ज़िब्ह करके उसका मांस बांटते थे।
1. फ़त्हुल बारी 8/277, इब्ने हिशाम 1/152, 153,
इसका तरीक़ा यह था कि जुआ खेलने वा एक ऊंट उधार खरीदते और ज़िब्ह करके उसे दस या अठाईस हिस्सों में बांट देते, फिर तीरों से कुरआ निकालते। किसी तीर पर जीत का निशान बना होता और कोई तीर बे-निशान होता। जिसके नाम पर जीत के निशान वाला तीर निकलता, वह तो कामियाब माना जाता और अपना हिस्सा लेता और जिसके नाम पर बे-निशान तीर निकलता, उसे क़ीमत देनी पड़ती ।
अरब के मुश्कि काहिनों, अर्राफ़ों और नजूमियों (ज्योतिषियों) की खबरों में भी आस्था रखते थे ।
काहिन उसे कहते हैं जो आने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी करे और छिपे रहस्यों को जानने का दावा करे। कुछ काहिनों का यह भी दावा था कि एक जिन्न उनके क़ब्ज़े में है, जो उन्हें ख़बरें पहुंचाता रहता है और कुछ काहिन कहते थे कि उन्हें ऐसा विवेक दिया गया है, जिससे वे ग़ैब का पता लगा लेते हैं।
कुछ इस बात के दावेदार थे कि जो आदमी उनसे कोई बात पूछने आता है, उसके कहने-करने से या उसकी हालत से, कुछ कारणों के ज़रिए वे घटना स्थल का पता लगा लेते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति को अर्राफ़ कहा जाता था, जैसे वह व्यक्ति जो चोरी के माल चोरी की जगह और गुमशुदा जानवर आदि का पता-ठिकाना बताता ।
नजूमी उसे कहते हैं जो तारों पर विचार करके और उनकी चाल और समय का हिसाब लगाकर पता लगाता है कि दुनिया में आगे क्या परिस्थितियां जन्म लेंगी और क्या घटनाएं घटित होंगी। इन नजूमियों की ख़बरों को मानना वास्तव में तारों पर ईमान लाना है और तारों पर ईमान लाने की एक शक्ल यह भी थी कि अरब के मुश्कि नक्षत्रों पर ईमान रखते थे और कहते थे कि हम पर फ़्लां और फ़्लां नक्षत्र से वर्षा हुई है। 3
मुश्रिकों में अपशकुन का भी रिवाज था। उसे अरबी में ‘तियरा’ कहते हैं। इसकी शक्ल यह थी कि मुश्कि किसी चिड़िया या हिरन के पास जाकर उसे भगाते थे । फिर अगर वह दाहिनी ओर भागता तो उसे अच्छाई और सफलता की
1. याकूबी ने अपने इतिहास में कुछ अंशों में मतभेद के साथ सविस्तार लिखा है, 1/259, 261
2. अल-लिसान और दूसरे शब्द-कोष
3. देखिए सहीह बुखारी, हदीस न० 846, 1038, 4771, 3041, 750 सहीह मुस्लिम मय शरह नववी : किताबुल ईमान, बाब बयान ‘क-फ़-र मन क़ा-ल मुतरुना बिन्नौइ 1/95
निशानी समझ कर अपना काम कर गुज़रते और अगर बाईं ओर भागता तो उसे अपशकुन समझ कर अपने काम से रुक जाते। इसी तरह अगर कोई चिड़िया या जानवर रास्ता काट देता तो उसे भी अपशकुन समझते ।
इसी से मिलती-जुलती एक हरकत यह भी थी कि मुश्कि खरगोश के टखने की हड्डी लटकाते थे और कुछ दिनों, महीनों, जानवरों, घरों और औरतों को अपशकुन समझते थे । बीमारियों की छूत के क़ायल थे और आत्मा के उल्लू बन जाने में विश्वास करते थे अर्थात् उनकी आस्था थी कि जब तक जिसकी हत्या की गई है, उसकी हत्या का बदला न लिया जाए, उसे शान्ति नहीं मिलती और उसकी आत्मा उल्लू बनकर निर्जन स्थानों पर घूमती रहती है और ‘प्यास-प्यास’ या ‘मुझे पिलाओ, मुझे पिलाओ’ की आवाज़ लगाती रहती है। जब उसका बदला ले लिया जाता है, तो उसे राहत और शान्ति मिल जाती है।
दीने इब्राहीमी में कुरैश की गढ़ी नई चीज़ें
ये थे अज्ञानियों के विश्वास और काम। इसके साथ ही इनके अन्दर दीने इब्राहीमी की कुछ बची-खुची चीजें भी थीं अर्थात् उन्होंने यह दीन पूरे तौर पर नहीं छोड़ा था, चुनांचे वे बैतुल्लाह का आदर और उसकी परिक्रमा करते थे, हज व उमरा करते थे, अरफ़ात व मुज़दलफ़ा में ठहरते थे और हद्धि के जानवरों की कुर्बानी करते थे, अलबत्ता उन्होंने इस दीने इब्राहीमी में बहुत-सी नई बातें गढ़कर शामिल कर दी थीं. जैसे-
कुरैश की एक नई बात यह थी कि वे कहते थे, हम हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की सन्तान हैं, हरम की देखभाल करने वाले, बैतुल्लाह के निगरां और मक्का के रहने वाले हैं, कोई व्यक्ति हमारे पद की बराबरी का नहीं और न किसी के अधिकार हमारे अधिकार जितने हैं—और इसी कारण ये अपना नाम हुम्स (वीर और गर्मजोश) रखते थे-इसलिए हमारे लिए उचित नहीं कि हम हरम की सीमाओं से बाहर जाएं, चुनांचे हज के दौरान ये लोग अरफ़ात नहीं जाते थे और न वहां से इफ़ाज़ा करते थे, बल्कि मुज़दलफ़ा ही में ठहर कर वहीं से इफ़ाज़ा कर लेते थे । अल्लाह ने इस नई बात को सुधारते हुए फ़रमाया-
‘तुम लोग भी वहीं से इफ़ाज़ा करो, जहां से सारे लोग इफ़ाज़ा करते हैं।
(2:119)
सहीह बुखारी 2/851, 857 मय शरहें, इब्ने हिशाम 1/199, सहीह बुखारी 1/226
1. 2.

