
इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मदीने से सामरा तलबी
हुकूमत की तरफ़ से इमाम अली नक़ी (अ.स.) की मदीने से सामरा में तलबी और रास्ते का अहम वाकि़या
मोतावक्किल 232 हिजरी में ख़लीफ़ा हुआ और उसने 236 हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र के साथ पहली बार बेअदबी की लेकिन उसमें पूरी कामयाबी न हासिल होने पर अपने फि़तरी बुग़ज़ की वजह से जो आले मौहम्मद स. के साथ था वह हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जा हुआ। मुतावक्किल 243 हिजरी मे इमाम नक़ी (अ.स.) को सताने की तरफ़ मुतावज्जे हुआ और इसने हाकिमे मदीना अब्दुल्ला बिन मौहम्मद को ख़ुफि़या हुक्म दे कर भेजा कि फ़रज़न्दे रसूल इमाम अली नक़ी (अ.स.) को सताने में कोई दक़ीक़ा फ़रो गुज़ाश्त न करे। चुनान्चे इसने हुकूमत के मन्शा के मुताबिक़ पूरी तवज्जा और पूरे इन्हेमाक के साथ अपना काम शुरू कर दिया। ख़ुद जिस क़दर सता सका उसने सताया और आपके खि़लाफ़ रिकार्ड के लिये मोतावक्किल को शिकायत भेजनी शुरू की।
अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि इमाम अली नक़ी (अ.स.) को यह मालूम हो गया कि हाकिमे मदीना ने आपके खि़लाफ़ रेशा दवानाइयां शुरू कर दी हैं और इस सिलसिले में इसने मोतावक्किल को आपकी शिकायत भेजनी शुरू कर दी हैं तो आपने भी एक तफ़सीली ख़त लिखा जिसमें हाकिमें मदीना की बे एतिदाली और ज़ुल्म आफ़रीनी का ख़ास तौर से जि़क्र किया। मोतावक्किल ने आपका ख़त पढ़ कर आपको इसके जवाब में लिखा के आप हमारे पास चले आएं। इसमें हाकिमें मदीना के अमल की माज़ेरत भी थी , यानी जो कुछ वह कर रहा है अच्छा नहीं करता , हम इसकी तरफ़ से माज़ेरत ख्वाह हैं मतलब यह था कि इसी बहाने से उन्हें सामरा बुला लें। ख़त मे उसने इतना नरम लहजा इख़्तेयार किया था जो एक बादशाह की तरफ़ से नहीं हुआ करता , यह सब हीला साज़ी थी और ग़रज़ महज़ यह थी कि आप मदीना छोड़ कर सामरा पहुंच जायें।
(नुरूल अबसार सफ़ा 149 )
अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि मुतावक्किल ने यह भी लिखा था कि मैं आपकी ख़ातिर से अब्दुल्ला इब्ने मौहम्मद को माजूल कर के इसकी जगह पर मौहम्मद बिन फ़ज़ल को मुक़र्रर कर रहा हूं।
(जिलाउल उयून सफ़ा 292 )
अल्लामा अरबली लिखते हैं कि मुतावक्किल ने सिर्फ़ यही नही किया कि अली नक़ी (अ.स.) को ख़त लिखा हो कि आप सामरा चले आइये बल्कि इसने तीन सौ का लश्कर यहिया इब्ने हरसमा की क़यादत में मदीना भेज कर उन्हें बुलाना चाहा यहिया इब्ने हरसमा का बयान है कि मैं हुक्मे मुतावक्किल पा कर इमाम (अ.स.) को लाने के लिये ब इरादा मदीना मुनव्वरा रवाना हो गया , मेरे हमराह तीन सौ का लश्कर था और इसमें एक कातिब भी था जो इमामिया मज़हब रखता था। हम लोग अपने रास्ते पर जा रहे थे और इस कोशिश में थे कि किसी तरह जल्द से जल्द मदीना पहुंच कर इमाम (अ.स.) को ले आऐ और मुतावक्किल के सामने पेश करें। हमराह जो एक शिया कातिब था उससे एक लश्कर के अफ़सर से रास्ते भर मज़हबी मनाज़रा होता रहा। यहां तक कि हम लोग एक अज़ीमुश्शान वादी में पहुंचे , जिसके इर्द गिर्द मीलों कोई आबादी न थी और वह ऐसी जगह थी जहां से इन्सान का मुश्किल से गुज़र होता था बिल्कुल जंगल और खुश्क सहरा था। जब हमारा लश्कर वहां पहुंचा तो उस अफ़सर ने जिसका नाम शादी था और जो कातिब से मनाज़रा करता चला आ रहा था। कहने लगा ऐ कातिब तुम्हारे इमाम हज़रत अली (अ.स.) का यह क़ौल है कि दुनिया की कोई ऐसी वादी न होगी जिसमें क़ब्र न हो या अनक़रीब क़ब्र न बन जाए। कातिब ने कहा बेशक हमारे इमाम (अ.स.) ग़ालिब कुल्ले ग़ालिब का यही इरशाद है। इसने कहाः बताओ इस ज़मीन पर किस की क़ब्र है ? या किस की क़ब्र बन सकती है। तुम्हारे इमाम यूं ही की दिया करते हैं। इब्ने हरसमा का कहना है कि मैं चूंकि हश्वी ख़्याल का था लेहाज़ा जब यह बातें हमने सुनीं तो हम सब हंस पड़े और कातिब शर्मिन्दा हो गया। ग़रज़ कि लश्कर बढ़ता रहा और उसी दिन मदीना पहुंच गया। वारिदे मदीना होने के बाद मैंने मुतावक्किल का ख़त इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में पेश किया। इमाम (अ.स.) उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर लश्कर पर नज़र डाली और समझ गये कि दाल में कुछ काला है। आपने फ़रमाया ऐ इब्ने हरसमा चलने को तैय्यार हूं लेकिन एक दो रोज़ की मोहलस ज़रूरी है। मैंने अर्ज़ कि हुज़ूर ख़ुशी से जब हुक्म हो फ़रमायें मैं हाजि़र हो जाऊं और रवानगी हो जाए। इब्ने हरसमा का बयान है कि इमाम (अ.स.) ने मेरे सामने मुलाज़ेमीन को से कहा कि दरज़ी को बुला दो और उससे कहो कि मुझे सामरा जाना है लेहाज़ा रास्ते के लिये गर्म कपड़े टोपियां जल्दी से तैय्यार कर दे। मैं वहां से रूख़सत हो कर अपने क़याम गाह पर पहुंचा और रास्ते भर यह सोचता रहा कि इमामीया कैसे बेवकूफ़ हैं कि एक शख़्स को इमाम मानते हैं जिसे माज़ा अल्लाह यह तक तमीज़ नहीं है कि यह गर्मी का ज़माना है या जाड़े का। इतनी शदीद गर्मी में जाड़े के कपड़े सिलवा रहे हैं और उसे हमराह ले जाना चाहते हैं। अलग़रज़ मैं दूसरे दिन इनकी खि़दमत में हाजि़र हुआ तो देखा कि जाड़े के बहुत से कपड़े सिले हुए रखे हैं और आप सामाने सफ़र दुरूस्त फ़रमा रहे हैं और आप अपने मुलाज़ेमीन से कहते जाते हैं देखो कुलाह बारानी और बरसाती वग़ैरा रहने न पाए। सब साथ मे बांध दो। इसके बाद मुझे कहा ऐ याहिया इब्ने हरसमा जाओ तुम भी अपना सामान दुरूस्त करो ताकि मुनासिब वक़्त में रवांगी हो जाए। मैं वहां से निहायत बद दिल वापस आया। दिल में सोचता था कि उन्हें क्या हो गया कि इस शदीद गर्मी के ज़माने में सर्दी और बरसात का सामान हमराह ले रहे हैं और मुझे भी हुक्म देते हैं कि तुम भी इस कि़स्म के सामान हमराह ले लो। मुख़्तसर यह कि सामाने सफ़र दुरूस्त हो गया और रवानगी हो गई। मेरा लश्कर इमाम (अ.स.) को घेरे में लिए हुए जा रहा था कि नागाह इसी वादी में जा पहुंचे , जिसके मुतअल्लिक़ कातिब इमामिया और अफ़सर शाही में यह गुफ़तगू हुई थी कि यहां पर किसकी क़ब्र है या होगी। इस वादी में पहुंचना था कि क़यामत आ गई , बादल गरजने लगे , बिजली चमकने लगी और दोपहर के वक़्त इस क़दर तारीकी छाई कि एक दूसरे को देख न सकता था , यहां तक कि बारिश शुरू हुई और ऐसी मुसलाधार बारिश हुई कि उमर भर न देखी थी इमाम (अ.स.) ने आसार के पैदा होते ही मुलाज़मीन को हुक्म दिया कि बरसाती और बारानी टोपीयां पहन लो और एक बरसाती याहिया इब्ने हरसमा और एक कातिब को दे दो। ग़रज़ कि खूब बारिश हुई हवा इतनी ठन्डी चली कि जान के लाले पड़ गए। जब बारिश थमी और और बादल छटे तो मैंने देखा कि अस्सी अफ़राद मेरी फ़ौज के हलाक हो गऐं हैं। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ याहिया इब्ने हरसमा अपने मुर्दो को दफ़न करो और यह जान लो कि ख़ुदाए ताला हम चुनी पुरमी गिरवान्द बक़ा राज़ेक़बूर इस तरह ख़ुदा वन्दे आलम हर बुक़्क़ाए अर्ज़ को क़ब्रों से पुर करता है , इसी लिए मेरे जद नामदार हज़रत अली (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया है कि ज़मीन का काई टुकड़ा ऐसा न होगा जिसमें कब़्र न बनी हो। ‘‘यह सुन कर मैं अपने घोड़े से उतर पड़ा और इमाम (अ.स.) के क़रीब जा कर पा बोस हुआ और उनकी खि़दमत मे अर्ज़ की मौला मैं आज आपके सामने मुसलमान होता हुँ यह कह कर मैंने इस तरह कलमा पढ़ा अशअदो अन ला इलाहा इल्ल्लाह व अशअदो अन मौहम्मद अबदहू व इनकुम ख़ुलाफ़ा अला फ़ीअर हैना ’’ और यक़ीन कर लिया कि यही हज़रत ख़ुदा की ज़मीन पर ख़लीफ़ा हैं और दिल में सोचने लगा कि अगर इमाम (अ.स.) ने जाड़े और बरसात का सामान न लिया होता और अगर मुझे न दिया होता तो मेरा क्या हशर होता। फिर वहां से रवाना हो कर अस्कर पहुंचा और आपकी इमामत का क़ाएल रह कर जि़न्दा रहा और ताहयात आपके जद्दे नामदार का कलमा पढ़ता रहा।
(कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 124 )
अल्लामा जामी और अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि दो सौ से ज़ाएद अफ़राद आपको अपने घेरे में लिये हुए सामरा पहुंचे। वहां आपके क़याम का कोई इन्तेज़ाम नहीं किया गया था और हुक्म था कि मुतावक्किल का कि इन्हें फ़क़ीरो के ठहराने की जगह उतारा जाए चुनान्चे आपको ख़नुल सालेआ में उतारा गया वह जगह बदतरीन थी वहां शुरफ़ा नही जाया करते थे। एक दिन सालेहा बिन सईद नामी एक शख़ जो आपके मानने वाले थे आपकी खि़दमत में हाजि़र हुए और कहने लगे मौला यह लोग आपकी क़दरो मन्जि़लत पर पर्दा डाल रहे हैं और नूरे ख़ुदा को छुपाने की किस क़दर कोशिश करते हैं कहा हुज़ूर की ज़ाते अक़दस और कहा यह क़याम गाह। हज़रत ने फ़रमायाः ऐ सालेह तुम दिल तंग न हो मैं उसकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई का ख़्वाहां और उनकी करम गुस्तरी का जोया हूं , ख़ुदा वन्दे आलम ने आले मौहम्मद स. को जो दर्जा दिया है और जो मुक़ाम अता फ़रमाया है उसे कोई छीन नहीं सकता। ऐ सालेह बिन सईद मैं तुम्हे ख़ुश करने के लिये बताना चाहता हूं कि तुम मुझे इस मुक़ाम पर देख कर परेशान न हो ख़ुदा वन्दे आलम ने यहां भी मेरे लिये बेहिश्त जैसा बन्दो बस्त फ़रमाया है यह कह कर आपने उंगली से इशारा किया और सालेह की नज़र में बेहतरीन बाग़ बेहतरीन नहर वगै़रह नज़र आने लगीं। सालेह का बयान है कि यह देख कर मुझे क़दरे तसल्ली हो गई।
(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 208, नूरूल अबसार सफ़ा 150 )

