
दरगाह हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी
ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी जो की सुल्तान इल्तुतमिश के दौर में हिन्दुस्तान आये थे, इनका असल नाम बख्तियार ही था कुतुबुद्दीन इनका लक़ब था और काकी का लक़ब इन्हे जनता ने दे दिया था दरसल इसके पीछे भी एक कहानी है, और वो ये है की इंतहाई ग़ुरबत के बावजूद उन्होंने अपनी बीवी को मकामी दुकानदार से क्रेडिट पर सामान लेने को मना किया था इसके बजाय उन्होंने अपनी बीवी से कहा था की जब भी तुम्हें जरुरत हो घर के एक कोने से काक (एक किस्म की रोटी) उठा लो। इसके बाद उनकी बीवी ने देखा की जब भी उन्हें जरुरत पड़ती है तो मोजिज़ाना तौर पर काक नमूदार हो जाती है। जब कुछ दिन गुजर गए तो दुकानदार ने सोचा कि कहीं ख्वाजा साहब उससे नाराज हो कर तो क्रेडिट लेना बंद नहीं कर दिए। चुनांचा एक दिन दुकानदार की बीवी ने ख्वाजा साहब की बीवी से इस बारे में पूछा तो ख्वाजा साहेब की बीवी ने काक वाले मोजिज़ें के बारे में उन्हें बता दिया। उस दिन से काक तो आना बंद हो गए लेकिन लोग उन्हें काकी के नाम से जानने लगे।
एक जाने-माने बुजुर्ग होने के नाते ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने लोगों पर बड़ा ग़लबा पाया उन्होंने उस वक्त की हुकूमत के साथ नॉन इंवोल्मेंट की पॉलिसी जारी रखी। यह जुनूबी एशिया में चिश्ती बुजुर्गों का रिवायती तरीका था। क्यूंकि वो ये महसूस करते थे की हुक्मरानों और हुकूमत के साथ उनका ताअल्लुक़ दुनियावी मुआमलात की तरफ उनके जेहन को मोड़ देगा।
उनकी ज़िन्दगी में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश उनकी बहुत इज्जत करते थे। ऐसा कहा जाता है की ईंटों से बनी दुनिया की सबसे ऊँची मीनार (कुतुब मीनार) का काम मुकम्मल कराने के बाद सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे इनके नाम पर ही रखा था। उस समय इसे क़ुतुब साहिब की लाठ भी कहा जाता था। ये लोधी खानदान के भी पसंदीदा सूफी संत थे जिन्होंने 1451 से 1526 तक दिल्ली सल्तनत पर हुक्मरानी किया था।
इनकी अहमियत आज तक बरक़रार है इसका अंजादा इस तारीखी वाक़ये से भी लगाया का सकता है, की जब महात्मा गांधी ने 1948 में दिल्ली में अपना आखिरी आमरण अनशन शुरू किया, जिसमें सभी सांप्रदायिक हिंसा को हमेशा के लिए ख़त्म करने को कहा गया, तो सभी संप्रदायों के नेताओं ने उन्हें उपवास समाप्त करने के लिए दबाव डाला। उपवास खत्म करने के लिए गांधी जी ने जो छह शर्तें रखीं उनमें से एक यह थी कि हिंदुओं और सिखों को प्रायश्चित के रूप में ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह की मरम्मत करनी चाहिए, जिसे सांप्रदायिक दंगों के दौरान नुकसान पहुंचा था।
ख्वाजा बख्तियार काकी की वफ़ात के बाद जब उनकी वसीयत पढ़ी गयी थी तो उसमे इस बात पर जोर दिया गया था की सिर्फ वही शख्स उनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ा सकता है जिसने कभी हराम काम न किया हो, और न ही कभी नमाजे असर की सुन्नत को छोड़ा हो। वसीयत पढ़ने के बाद महफ़िल में एक ख़ामोशी तारी हो गयी क्यूंकि तक़रीबन हर किसी ने वसीयत में लिखी बातों पर अमल नहीं किया था, आखिर में नम आँखों के साथ सुल्तान इल्तुमिश जमात से बाहर आये और बोले मैं अपने आप को (inner self) सब पर जाहिर जाहिर नहीं करना चाहता था लेकिन ख्वाजा बख्तियार काकी की मर्जी यही चाहती है बिलआख़िर सुल्तान इल्तुतमिश ने ही इनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ाई क्यूंकि वह वाहिद शख्स थे जिन्होंने ख्वाजा बख्तियार काकी की वसीयत में लिखी बातों पर अमल किया था।

