
हियरा की बादशाही
इराक़ और उसके पास-पड़ोस के क्षेत्रों पर कोरोश कबीर (खोरस या साइरस जुलकरनैन 557 ईसा पूर्व – 529 ईसा पूर्व) के ज़माने ही से फ़ारस वालों का शासन चला आ रहा था। कोई न था जो उनके मुक़ाबले में आने की जुर्रात करता, यहां तक कि सन् 326 ई०पू० में सिकन्दर मक़दूनी के दारा प्रथम को हराकर फ़ारसियों की ताक़त तोड़ दी, जिसके नतीजे में उनका देश टुकड़े-टुकड़े हो गया और अफ़रा तफ़री शुरू हो गई। यह अशान्ति सन् २३० ई० तक जारी रही और इसी दौरान क़हतानी क़बीलों ने देश छोड़कर इराक़ के एक बहुत बड़े हरे-भरे सीमावर्ती क्षेत्र में रहना-सहना शुरू कर दिया, फिर अदनानी देश छोड़ने वालों का एक रेला आया और उन्होंने लड़-भिड़कर फ़रातिया द्वीप के एक भाग को अपने रहने की जगह बना ली।
इधर 226 ई० में अर्दशीर ने जब सासानी साम्राज्य की नींव डाली, तो धीरे-धीरे फ़ारसियों की ताक़त एक बार फिर पलट आई। अर्दशीर ने फारसियों को जोड़ा और अपने देश की सीमा पर आबाद अरबों को आधीन बना लिया। इसी के नतीजे में कुज़ाआ ने शाम देश का रास्ता लिया, जबकि हियरा और अम्बार के अरब निवासियों ने टैक्स देना गवारा कर लिया।
अर्दशीर के युग में हियरा, बादियतुल इराक़ और द्वीप के रबीई और मुज़री क़बीलों पर जज़ीमतुल वज्राह का शासन था। ऐसा मालूम होता है कि अर्दशीर ने महसूस कर लिया था कि अरब निवासियों पर सीधे-सीधे शासन करना और उन्हें सीमा पर लूट-मार से रोके रखना संभव नहीं, बल्कि उनको रोके रखने की केवल एक ही शक्ल है कि खुद किसी ऐसे अरब को उनका शासक बना दिया जाए जिसे अपने कुंबे-क़बीले का समर्थन प्राप्त हो। इसका एक लाभ यह भी होगा कि ज़रूरत पड़ने पर रूमियों के ख़िलाफ़ उनसे मदद ली जा सकेगी और शाम के रूम समर्थक अरब शासकों के मुक़ाबले में इराक़ के इन अरब शासकों को खड़ा किया जा सकेगा।
हियरा के बादशाहों के पास फ़ारसी फ़ौज की एक यूनिट हमेशा रहा करती थी, जिससे ग्रामीण अरब विद्रोहियों को कुचलने का काम लिया जाता था ।
सन् 268 ई० की सीमाओं में जज़ीमा का देहावसान हो गया और अम्र बिन
लेकिन ऐतिहासिक स्रोतों में सनों आदि के सम्बन्ध में बड़े मतभेद हैं, यहां तक कि कुछ शोधकर्ताओं ने इन विवरणों को ‘पहलों की गाथा’ कहा है।
अदी बिन नत्र लखमी (सन् 268-288) उसका उत्तराधिकारी हुआ। यह लख्म क़बीले का पहला शासक था और शापुर अर्दशीर का समकालीन था। उसके बाद क़बाज़ बिन फ़ीरोज़ (448 ई०-531 ई०) के युग तक हियरा पर लख्मियों का लगातार शासन रहा । क़बाज़ के युग में मुज़दक प्रकट हुआ जो नग्नता का झंडाबरदार था । क़बाज़ और उसकी बहुत-सी प्रजा ने मुज़दक का समर्थन किया, फिर क़बाज़ ने हियरा के बादशाह मुन्ज़िर बिन माइस्समाइ (521-554 ई०) को सन्देश भेजा कि तुम भी यही तरीका अपना लो। मुन्ज़िर बड़ा स्वाभिमानी था, इन्कार कर बैठा। नतीजा यह हुआ कि क़बाज़ ने उसे पदच्युत करके उसकी जगह मुज़दकी दावत के एक पैरोकार हारिस बिन अम्र बिन हिज्र किन्दी को हियरा का शासन सौंप दिया।
क़बाज़ के बाद फ़ारस की बागडोर किसरा नौशेरवां के हाथ आई। उसे इस धर्म से सख्त नफरत थी। उसने मुज़दक और उसके समर्थकों की एक बड़ी तायदाद की हत्या करा दी। मुन्ज़िर को दोबारा हियरा का शासक बना दिया और हारिस बिन अम्र को अपने यहां बुला भेजा, लेकिन वह बनू कल्ब के इलाक़े में भाग गया और वहीं अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी।
मुन्ज़िर बिन माइस्समा के बाद नोमान बिन मुन्ज़िर (सन् 583 ई0-605 ई०) के युग तक हियरा का शासन उसी की नस्ल में चलता रहा, फिर ज़ैद बिन अदी इबादी ने किसरा से नोमान बिन मुंज़िर की झूठी शिकायत की। किसरा भड़क उठा और नोमान को अपने पास तलब किया। नोमान चुपके से बनू शैबान के सरदार हानी बिन मस्ऊद के पास पहुंचा और अपने घरवालों और माल व दौलत को उसकी अमानत में देकर किसरा के पास गया। किसरा ने उसे क़ैद कर लिया और क़ैद ही में उसका देहान्त हो गया।
इधर किसरा ने नोमान को क़ैद करने के बाद उसकी जगह इयास बिन क़बीसा ताई को हियरा का शासक बनाया और उसे हुक्म दिया कि हानी बिन मसऊद से नोमान की अमानत तलब करे, हानी स्वाभिमानी था, उसने सिर्फ़ इंकार ही नहीं किया, बल्कि लड़ाई का एलान भी कर दिया। फिर क्या था, इयास से अपने साथ किसरा की भारी सेना और मरज़बानों की जमाअत लेकर रवाना हुआ और ज़ीक़ार के मैदान में दोनों फ़रीक़ों में घमासान की लड़ाई हुई, जिसमें बनू शैबान को विजय मिली और फ़ारसियों को बुरी तरह पसपा होना पड़ा। यह पहला मौका था जब अरब ने अजम पर विजय प्राप्त की थी। यह घटना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जन्म के थोड़े ही दिनों पहले या बाद की है आपका जन्म हियरा पर इयास के शासन के आठवें महीने में हुआ
था।
इयास के बाद किसरा ने हियरा पर एक फ़ारसी शासक नियुक्त किया, लेकिन 632 ई० में लख्मियों की सत्ता फिर बहाल हुई और मुन्जिर बिन मारूर नामी इस क़बीले के एक व्यक्ति ने बागडोर संभाली, मगर अभी उसको सत्ता में आए आठ महीने ही हुए थे कि इज़रत खालिद बिन वलीद रज़ियल्लाहु अन्हु इस्लाम की भारी सेना लेकर हियरा में दाखिल हो गये ।
शाम की बादशाही
जिस ज़माने में अरब क़बीलों की हिजरत (देश-परित्याग) ज़ोरों पर थी, क़बीला कुज़ाआ की कुछ शाखाएं शाम की सीमाओं में आकर आबाद हो गईं। उनका ताल्लुक़ बनी सुलैम बिन हलवान से था और उन्हीं में की एक शाखा बनू जुजअम बिन सुलैम थी, जिसे ज़ुजाइमा के नाम से ख्याति मिली। कुज़ाआ की इस शाखा को रूमियों ने अरब मरुस्थल के बहुओं की लूटमार रोकने और फ़ारसियों के खिलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए अपना समर्थक बनाया और उसी के एक व्यक्ति के सिर पर शासन का मुकुट रख दिया। इसके बाद मुद्दतों उनका शासन रहा। उनका सबसे मशहूर बादशाह ज़ियाद बिन हयोला गुज़रा है। अन्दाज़ा किया गया है कि ज़जाइमा का शासनकाल पूरी दूसरी सदी ईसवी पर छाया रहा है, इसके बाद उस क्षेत्र में आले ग़स्सान का आगमन हुआ और ज़जाइमा का शासन जाता रहा। आले ग़स्सान ने बनू ज़ुजअम को हरा कर उनके सारे क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। यह स्थिति देखकर रूमियों ने भी आले ग़स्सान को शाम के क्षेत्र के अरब निवासियों का बादशाह मान लिया। आले ग़स्सान की राजधानी दूमतुल जन्दल थी और रूमियों के एजेंट के रूप में शाम के क्षेत्र पर उनका शासन बराबर क़ायम रहा, यहां तक कि हज़रत उमर फ़ारूक़ के खिलाफ़त-काल में सन् 13 हि० में यरमूक की लड़ाई हुई और आले ग़स्सान का अन्तिम शासक जबला बिन ऐहम मुसलमान हो गया। 2 (यद्यपि उसका गर्व इस्लामी समानता को अधिक दिनों तक सहन न कर सका और वह विधर्मी हो गया ।)
हिजाज़ की इमारत (सरदारी)
यह मालूम है कि मक्का में आबादी की शुरूआत हज़रत इस्माईल
1. मुहाज़राते खज़री 1/34, तारीखे अरजुल कुरआन 2/80-82 2. पैदाइश (बाइबिल) 25 : 17, तारीख तबरी 1/314, एक दूसरे कथनानुसार 130 साल में वफात पाई, तबरी व याकूबी 1/222
अलैहिस्सलाम से हुई। आपने 137 साल की उम्
पाई और जब तक ज़िंदा रहे, मक्का के मुखिया और बैतुल्लाह के मुतवल्ली रहे। आपके बाद आपके दो सुपुत्र -नाबित, फिर क़ैदार या क़ैदार फिर नाबित—एक के बाद एक मक्का के मुखिया हुए। इनके बाद इनके नाना मजाज़ बिन अम्र जुरहमी ने सत्ता अपने हाथ में ले ली और इस तरह मक्का की सरदारी बनू जुरहम के पास चली गई और एक समय तक उन्हीं के पास रही। हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम चूंकि (अपने पिता के साथ मिलकर) बैतुल्लाह की बुनियाद रखने वाले और उसे बनाने वाले थे, इसलिए उनकी सन्तान को एक श्रेष्ठ स्थान ज़रूर मिलता रहा, लेकिन सत्ता और अधिकार में उनका कोई हिस्सा न था । ‘
फिर दिन पर दिन और साल पर साल बीतते गए, लेकिन हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की सन्तान गुमनाम की गुमनाम ही रही, यहां तक कि बख्त नस्र के प्रकट होने से कुछ पहले बनू जुरहुम की ताक़त कमज़ोर पड़ गई और मक्का के क्षितिज पर अदनान का राजनीतिक सितारा जगमगाना शुरू हुआ। इसका प्रमाण यह है कि बख्त नत्र ने ज़ाते इर्क़ में अरबों से जो लड़ाई लड़ी थी, उसमें अरब फ़ौज का कमांडर जुरहुमी न था, बल्कि खुद अदनान था । 2
फिर बख्त नत्र ने जब सन् 587 ई०पू० में दूसरा हमला किया तो बनू अदनान भागकर यमन चले गए। उस वक़्त बनू इसराईल के नबी हज़रत यरमियाह थे। इनके शिष्य बरखया अदनान के बेटे माद को अपने साथ शाम देश ले गये और जब बख्त नत्र का ज़ोर समाप्त हुआ और माद मक्का आए तो उन्हें क़बीला जुरहुम का केवल एक व्यक्ति जरशम बिन जलहमा मिला। माद ने उसकी लड़की मआना से शादी कर ली और उसी के पेट से नज़ार पैदा हुआ
इसके बाद मक्का में जुरहुम की हालत खराब होती गई। उन्हें तंगदस्ती ने आ घेरा। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने बैतुल्लाह की ज़ियारत करने वालों पर ज्यादतियां शुरू कर दीं और खाना काबा का माल खाने से भी न झिझके। इधर बनू अदनान भीतर ही भीतर उनकी इन हरकतों पर कुढ़ते और भड़कते रहे । इसीलिए जब बनू खुज़ाआ ने मर्रज़्ज़हरान में पड़ाव किया और देखा कि बनू अदनान बनू जुरहुम से नफ़रत करते हैं, तो इसका फ़ायदा उठाते हुए एक अदनानी
1. इब्ने हिशाम 1/111-113। इब्ने हिशाम ने इस्माईल अलैहिस्सलाम की सन्तान में से सिर्फ नाबित के मुतवल्ली होने का उल्लेख किया है। 2. तारीख तबरी 1/559
3. तारीख तबरी 1/559, 561, 2/271, फ़हुल बारी 6/722 4. तारीख तबरी 2/284

