अर-रहीकुल मख़्तूम  पार्ट  1

अर-रहीकुल मख़्तूम

अरब, स्थिति और जातियां

नबी सल्ल० की सीरत को, सच तो यह है कि रब के उस पैग़ाम का व्यावहारिक प्रतिबिम्ब समझा जा सकता है, जिसे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तमाम इंसानों के सामने पेश किया था, और जिसके ज़रिए इंसान को अंधेरों से निकाल कर रोशनी में और बन्दों की बन्दगी से निकाल कर अल्लाह की बन्दगी में दाखिल कर दिया था। चूंकि इस पाक सीरत का पूर्ण चित्र सामने लाया नहीं जा सकता जब तक कि रब के उस पैग़ाम के आने से पहले के हालात और बाद के हालात की तुलना न कर ली जाए, इसलिए असल वार्ता से पहले इस अध्याय में इस्लाम से पहले की अरब जातियों और उनके विकास की स्थिति बताते हुए उन हालात का चित्रण किया जा रहा है, जिनमें अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भेजे गये थे ।

अरब की स्थिति

अरब शब्द का शाब्दिक अर्थ है मरुस्थल और बिना किसी हरियाली का भू-भाग । पुराने समय से यह शब्द अरब प्रायद्वीप और उसमें बसने वाली जातियों के लिए बोला जा रहा है।

अरब के पश्चिम में लाल सागर और सीना प्रायद्वीप है। पूरब में अरब की खाड़ी और दक्षिणी इराक़ का एक बड़ा भाग है। दक्षिण में अरब सागर है जो वास्तव में हिंद महासागर का फैलाव है। उत्तर में सीरिया और कुछ उत्तरी इराक़ है। इनमें से कुछ सीमाओं के बारे में मतभेद भी है। कुल क्षेत्रफल का अन्दाज़ा दस लाख से तेरह लाख वर्ग मील तक किया गया है।

अरब प्रायद्वीप प्राकृतिक और भौगोलिक हैसियत से बड़ा महत्व रखता है। भीतरी तौर पर यह हर चार ओर से मरुस्थल से घिरा हुआ है, जिसके कारण यह एक ऐसा सुरक्षित क़िला बन गया है कि बाहरी जातियों के लिए इस पर क़ब्ज़ा करना और अपना प्रभाव फैलाना अति कठिन है। यही वजह है कि अरब प्रायद्वीप के मध्यवर्ती क्षेत्र के रहने वाले पुराने समय से अपने तमाम मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र और स्वशासी दिखाई पड़ते हैं, हालांकि ये ऐसी दो महान शक्तियों के पड़ोसी थे कि अगर यह ठोस प्राकृतिक रुकावट न होती तो इनके हमले रोक लेना अरब निवासियों के बस की बात न थी ।

बाहरी तौर पर अरब प्रायद्वीप पुरानी दुनिया के तमाम मालूम महाद्वीपों के बीचों-बीच स्थित है और भू-भाग और समुद्र दोनों रास्तों से उनके साथ जुड़ा
हुआ है। उनका उत्तरी पश्चिमी कोना अफ़्रीक़ा महाद्वीप के लिए प्रवेश-द्वार है । उत्तरी पूर्वी कोना यूरोप की कुंजी है। पूर्वी कोना ईरान, मध्य एशिया और पूरब के द्वार खोलता है और भारत और चीन तक पहुंचाता है। इसी तरह हर महाद्वीप समुद्र के रास्ते से भी अरब प्रायद्वीप से जुड़ा हुआ है और उनके जहाज़ अरब बन्दरगाहों में प्रत्यक्ष रूप से आकर ठहरते हैं।

इस भौगोलिक स्थिति की वजह से अरब प्रायद्वीप के उत्तरी और दक्षिणी कोने विभिन्न जातियों के गढ़ और व्यापार, कला और धर्मों के आदान-प्रदान का केन्द्र रह चुके हैं।

अरब जातियां

इतिहासकारों ने नस्ली दृष्टि से अरब जातियों को तीन भागों में विभाजित किया है—

1. अरब बाइदा – यानी वे प्राचीन अरब क़बीले और जातियां, जो बिल्कुल लुप्त हो गईं और उनसे सम्बन्धित ज़रूरी जानकारियां भी अब मौजूद नहीं, जैसे आद, समूद, तस्म, जदीस, अमालिका अमीम, जरहम, हुजूरा विहार, उबैल, जासम, हज़र मौत वग़ैरह ।

2. अरब आरिबा— यानी वे अरब क़बीले, जो यारुब बिन यशजब बिन क़हतान की नस्ल से हैं। इन्हें क़हतानी अरब कहा जाता है।

3. अरब मुस्तारबा— यानी वे अरब क़बीले जो हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की नस्ल से हैं। इन्हें अदनानी अरब कहा जाता है |

अरब आरिबा यानी क़तानी अरब का मूल स्थान यमन था। यहीं इनके वंश और क़बीले विभिन्न शाखाओं में उपजे, फैले और बढ़े। इनमें से दो क़बीलों ने बड़ी ख्याति प्राप्त की ।

(क) हिमयर—जिसकी प्रसिद्ध शाखाएं ज़ैदुल जम्हूर, कुज़ाआ और सकासिक हैं।

(ख) कहलान—जिसकी प्रसिद्ध शाखाएं हमदान, अन्मार, तै, मज़हिज, किन्दा, लख्म, जुज़ाम, अज्द, औस, खज़रज और जफ़ना-सन्तान हैं, जिन्होंने आगे चलकर शाम प्रदेश के आस-पास बादशाही क़ायम की और आले ग़स्सान के नाम से प्रसिद्ध हुए।

आम कहलानी क़बीलों ने बाद में यमन छोड़ दिया और अरब प्रायद्वीप के अलग-अलग हिस्सों में फैल गए। उनके देश छोड़ने की सामान्य घटना सैले इरम
से कुछ पहले उस वक़्त घटी, जब रूमियों ने मिस्र व शाम (सीरिया) पर क़ब्ज़ा करके यमन वालों के व्यापारिक समुद्री रास्ते पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया और थल मार्ग की सुविधाएं समाप्त करके अपना दबाव इतना बढ़ा लिया कि कहलानियों का व्यापार नष्ट होकर रह गया। एक कथन यह भी है कि उन्होंने सैले इरम के बाद उस समय देश-परित्याग किया, जब व्यापार की तबाही के अलावा जीवन के दूसरे साधन भी जवाब दे गए। कुरआन से भी इसकी पुष्टि होती है 1

कुछ असंभव नहीं कि कहलानी और हिमयरी परिवारों में संघर्ष भी रहा हो और यह भी कलानियों के देश छोड़ने का एक प्रभावी कारण बना हो। इसका इशारा इससे मिलता है कि कहलानी क़बीलों ने तो देश छोड़ दिया, लेकिन हिमयरी क़बीले अपनी जगह बाक़ी रहे ।

जिन कहलानी क़बीलों ने देश छोड़ा, उनकी चार क़िस्में की जा सकती हैं-

1. अद

इन्होंने अपने सरदार इम्रान बिन अम्र मज़ीक्रिया के मश्विरे पर वतन छोड़ा। पहले तो ये यमन ही में एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते रहे और हालात का पता लगाने के लिए खोजियों को भेजते रहे, लेकिन अन्त में उत्तर का रुख किया और फिर विभिन्न शाखाएं घूमती-घुमाती अनेक जगहों पर हमेशा के लिए बस गईं। सविस्तार विवेचन इस तरह है-

सालबा बिन अम्र- इसने सबसे पहले हिजाज़ का रुख किया और सालबीया और ज़ीक़ार के बीच में बस गए। जब इसकी सन्तान बड़ी हो गई और परिवार मज़बूत हो गया तो मदीना की ओर कूच किया और उसी को अपना वतन बना लिया। इसी सालबा की नस्ल से औस और खज़रज क़बीले हैं, जो सालबा के बेटे हारिसा की सन्तान हैं।

हारिसा बिन अन यानी खुज़ाआ और उसकी सन्तान। ये लोग पहले हिजाज़ भू-भाग में घूमते-घामते मर्रज़्ज़हरान में ठहरे, फिर हरम पर धावा बोल दिया और बनू जुरहुम को निकाल कर खुद मक्का में रहने-सहने लगे।

इम्रान बिन अप्र—इसने और इसकी सन्तान ने अमान में रहना शुरू किया, इसलिए ये लोग अज़्दे अमान कहलाते हैं।

नत्र बिन अद- इससे ताल्लुक रखने वाले क़बीलों ने तिहामा में रहना शुरू किया। ये लोग अज़्दे शनूअ: कहलाते हैं।

जुफ़्ना बिन अम्र- इसने शाम देश का रुख किया और अपनी सन्तान सहित वहीं रहने-सहने लगा। यही व्यक्ति ग़स्सानी बादशाहों का मूल पुरखा है।

आले ग़स्सान इसलिए कहा जाता है कि इन लोगों ने शाम देश जाने से पहले हिजाज़ में ग़स्सान नामक एक चश्मे पर कुछ दिनों वास किया था।

दूसरे छोटे परिवार, जैसे काब बिन अम्र, हारिस बिन अम्र और औफ़ बिन अम्र ने हिजाज़ और शाम (सीरिया) हिजरत करने वाले क़बीलों का साथ पकड़ा।

देश- परित्याग करने वालों का पहला शासक मालिक बिन फम तन्नूखी था जो आले- क़हतान से था। यह अनबार में या अंबार के क़रीब रहता था। इसके बाद एक रिवायत के अनुसार इसका भाई अम्र बिन फ़म और एक दूसरी रिवायत के अनुसार जुज़ैमा बिन मालिक बिन फ़म, जिसकी उपाधि अबरश और वज्राह था, उसकी जगह शासक हुआ।

2. लख्म व जुज़ाम

इन्होंने उत्तर पूर्व का रुख किया। इन्हीं लख्मियों में नत्र बिन रबीआ था, जो हियरा के आले मुन्ज़िर बादशाहों का मूल पुरखा है।

3. बनूतै

इस क़बीले ने बनू अज्द के देश छोड़ देने के बाद उत्तर का रुख किया और अजा और सलमा नामक दो पहाड़ियों के आस-पास स्थाई रूप से बस गये, यहाँ तक कि दोनों पहाड़ियां क़बीला तै की निस्बत से मशहूर हो गईं।

4. किन्दा

ये लोग पहले बहरैन— वर्तमान अल अहसा― में बसे, लेकिन विवश होकर वहां से हज़रमौत चले गये, मगर वहां भी अमान न मिली और आखिरकार नज्द में डेरा डालना पड़ा। यहां उन लोगों ने एक ज़ोरदार हुकूमत की बुनियाद डाली, पर यह हुकूमत स्थाई न साबित हो सकी और उसके चिह्न जल्द ही मिट गये ।

कहलान के अलावा हिमयर का भी केवल एक क़बीला कुज़ाआ ऐसा है—और उसके हिमयरी होने में भी मतभेद है-जिसने यमन देश छोड़कर के इराक़ की सीमाओं में बादियतुस्समावः के अन्दर रहना-सहना शुरू किया।’

1. इन क़बीलों की और इनके देश छोड़ने की विस्तृत जानकारी के लिए देखिए, नसब माद वलयमनुल कबीर, जमहरतुन्नसब, अल-अक़्दुल फ़रीद, क़लाइदुल जमान, निहायतुल अदब, तारीखे इब्ने खल्लदून, सबहकुज़्ज़हब और अन्साब की दूसरी किताबें, साथ ही तारीखुल अरब क़ब्लल इस्लाम पर लिखी गई किताबें । देश छोड़ने की इन घटनाओं के समय और कारणों के निर्धारण में ऐतिहासिक स्रोतों के मामले में बड़ा

अरब मुस्तारबा

इनके मूल पुरखे सैयिदिना इब्राहीम अलैहिस्सलाम मूलतः इराक़ के एक नगर उर के रहने वाले थे। यह नगर फ़रात नदी के पश्चिमी तट पर कूफ़ा के क़रीब स्थित था। इसकी खुदाई के दौरान जो शिलालेख मिले हैं, उनसे उस नगर के बारे में बहुत-सी बातें सामने आई हैं और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के परिवार के कुछ विवरण और देशवासियों की धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों पर से भी परदा उठता है।

यह मालूम है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम यहां से हिजरत करके हज़ान नगर तशरीफ़ ले गए थे और फिर वहां से फ़लस्तीन जाकर उसी देश को अपनी पैग़म्बराना गतिविधियों का केन्द्र बना लिया था और दावत व तब्लीग़ (प्रचार-प्रसार) के लिए यहीं से देश के भीतर और बाहर संघर्षरत रहा करते थे । एक बार आप मिस्र तशरीफ़ ले गए। फ़िरऔन ने आपकी बीवी हज़रत सारा के बारे में सुना, तो उनके बारे में उसकी नीयत बुरी हो गई और उन्हें अपने दरबार में बुरे इरादे से बुलाया, लेकिन अल्लाह ने हज़रत सारा की दुआ के नतीजे में अनदेखे रूप से फ़िरऔन की ऐसी पकड़ की कि वह हाथ-पांव मारने और फेंकने लगा। फिर हज़रत सारा की दुआ से ठीक हो गया। तीन बार की ऐसी दशा से उसे समझ में आ गया कि हज़रत सारा अल्लाह की बहुत ख़ास और क़रीबी बन्दी हैं और वह हज़रत सारा की इस विशेषता से इतना प्रभावित हुआ कि हज़रत हाजरा को उनकी सेवा में दे दिया। फिर हज़रत सारा ने हज़रत हाजरा को हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की पत्नी के रूप में पेश कर दिया ।-2

मतभेद है। हमने विभिन्न पहलुओं पर विचार करके, जो बात ज़्यादा उचित जानी, वही लिख दी है।

1. मशहूर है कि हज़रत हाजरा लौंडी थीं, लेकिन अल्लामा मंसूरपुरी ने सविस्तार शोध कार्य करके स्वयं अस्ले किताब के हवाले से यह सिद्ध किया है कि वह लौंडी नहीं, बल्कि आज़ाद थीं और फ़िरऔन की बेटी थीं। देखिए ‘रहमतुल्लिल आलमीन’ 2/36-37। इब्ने खल्लदून, अम्र बिन आस और मित्रियों की एक वार्त्ता का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि मिस्रियों ने उनसे कहा कि हाजरा हमारे बादशाहों में से एक बादशाह की औरत थीं। हमारे और ऐन शम्स वालों के दर्मियान कई लड़ाइयां हुईं। कुछ लड़ाइयों में उन्हें विजय मिली और उन्होंने बादशाह को क़त्ल कर दिया और हाजरा को क़ैद कर लिया। यहीं से वह तुम्हारे पुरखे हज़रत इब्राहीम तक पहुंचीं। (तारीखे इब्ने खल्लदून 2/1/77)

2. वही, 2/34, घटना के विवरण के लिए देखिए सहीह बुखारी 1/484,

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