इमाम अली नक़ी (अ.स.) का इल्मे लदुन्नी
बचपन का एक वाकि़या
यह हमारे मुसल्लेमात से है कि हमारे अइम्मा को इल्मे लदुन्नी होता है। यह खुदा की बारगाह से इल्म व हिकमत ले कर कामिल और मुकम्मिल दुनियां में तशरीफ़ लाते हैं। उन्हे किसी से इल्म हासिल करने की ज़रूरत नहीं होती है और उन्होने किसी दुनियां वाले के सामने ज़ानु ए अदब तक नहीं फ़रमाया ज़ाती इल्म व हिकमत के अलावा मज़ीद शरफ़े कमाल की तहसील अपने आबाओ अजदाद से करते रहे , यही वजह है कि इन्तेहाई कमसिनी में भी यह दुनियां के बड़े बड़े आलिमों को इल्मी शिकस्त देने में हमेशा कामियाब रहे और जब किसी ने फ़रद से माकूफ़ समझा तो ज़लील हो कर रह गया , फिर सरे ख़म तसलीम करने पर मजबूर हो गया।
अल्लामा मसूदी का बयान है कि हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) की वफ़ात के बाद इमाम अली नक़ी (अ.स.) जिनकी उस वक़्त उमर 6- 7 साल की थी मदीने में मरजए ख़लाएक़ बन गए थे , यह देख क रवह लोग जो आले मौहम्मद से दिली दुश्मनी रखते थे यह सोचने पर मजबूर हो गये कि किसी तरह इनकी मरकजि़यत को ख़त्म कर दिया जाए और कोई ऐसा मोअल्लिम इनके साथ लगा दिया जो उन्हें तालीम भी दे और इनकी अपने उसूल पर तरबीयत करने के साथ उनके पास लोगों के पहुंचने का सद्दे बाब करें। यह लोग इसी ख्याल में थे उमर बिन फ़जऱ् रहजी फ़राग़ते हज के बाद मदीना पहुंचा लोगों ने उस से अरज़ किया , बिल आखि़र हुकूमत के दबाव से ऐसा इन्तेज़ाम हो गया कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) को तालीम देने के लिए ईराक़ का सब से बड़ा आलम , आबिद अब्दुल्लाह जुनीदी माकूल मुशाहेरा पर लगाया गया यह जुनीदी आले मौहम्मद स. की दुशमनी में ख़ास शोहरत रखता था। अलग़रज़ जुनीदी के पास हुकूमत ने इमाम अली नक़ी (अ.स.) को रख दिया और जुनीदी को ख़ास तौर पर इस अमर की हिदायत कर दी कि उनके पास रवाफि़ज़ न पहुंचने पाएं। जुनीदी ने आपको क़सर सरबा में अपने पास रखा। होता यह था कि जब रात होती थी तो दरवाज़ा बन्द कर दिया जाता था और दिन में भी शियों को मिलने की इजाज़त न थी। इसी तरह आपके मानने वालों का सिलसिला मुनक़ता हो गया और आपका फ़ैज़े जारी बन्द हो गया लोग आपकी जि़यारत और आपसे इस्तेफ़ादे से महरूम हो गये। रावी का बयान है कि मैने एक दिन जुनीदी से कहा , ग़ुलाम हाशमी का क्या हाल है ? उसने निहायत बुरी सूरत बना कर कहा , उन्हें ग़ुलाम हाशमी न कहो , वह रईसे हाशमी हैं। खुदा की क़सम वह इस कमसिनी में मुझ से कहीं ज़्यादा इल्म रखते हैं। सुनो मैं अपनी पूरी कोशिश के बाद जब अदब का कोई बाब उनके सामने पेश करता हूँ तो वह उसके मुताल्लिक़ ऐसे अबवाब खोल देते हैं कि मैं हैरान रह जाता हूं। लोग समझ रहे हैं कि मैं उन्हें तालीम दे रहा हूं लेकिन खुदा की क़सम मैं उनसे तालीम हासिल कर रहा हूं। मेरे बस में यह नहीं कि मैं उन्हें पढ़ा सकूं। खुदा की क़सम वह हाफि़ज़े क़ुरआन ही नहीं वह उसकी तावील व तन्ज़ील को भी जानते हैं और मुख़तसर यह कि वह ज़मीन पर बसने वालों में सब से बेहतर और काएनात में सब से अफ़ज़ल हैं।
(असबात उल वसीयत दमतुस् साकेबा सफ़ा 121 )
आपके अहदे हयात और बादशाहाने वक़्त
आप जब 214, हिजरी में पैदा हुए तो उस वक़्त बादशहाने वक़्त मामून रशीद अब्बासी था। 218 ई 0 में मामून रशीद ने इन्तेक़ाल किया और मोतासिम ख़लीफ़ा हुआ अबुल फि़दा 227, हिजरी मे वासिक़ इब्ने मोतासिम ख़लीफ़ा बनाया गया अबुल फि़दा 232 हिजरी वासिक़ का इन्तेक़ाल हुआ और मुतावक्किल अब्बासी ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया गया। अबुल फि़दा फि़र 247 हिजरी में मुग़तसिर बिन मुतावक्किल और 248 हिजरी में मुस्तईन और 252 हिजरी में ज़ुबेर इब्ने मुतावक्किल अलमकनी व ‘‘मोताज़बिल्लाह अलत तरतीब ख़लीफ़ा बनाए गए। अबुल फि़दा दमतुस् साकेबा 254 हिजरी में मोताज़ के ज़हर देने से इमाम नक़ी (अ.स.) शहीद हुए।
(तज़किरातुल मासूमीन)
हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) का सफ़रे बग़दाद और हज़रत इमाम नक़ी (अ.स.) की वली अहदी
मामून रशीद के इन्तेक़ाल के बाद जब मोतासिम बिल्लाह ख़लीफ़ा हुआ तो उसने भी अपने अबाई किरदार को सराहा और ख़ानदानी रवये का इत्तेबा किया। उसके दिल में भी आले मौहम्मद की तरफ़ से वही जज़बात उभरे जो उसके आबाओ अजदाद के दिलों में उभर चुके थे , उसने भी चाहा कि आले मौहम्मद स. की कोई फ़र्द ज़मीन पर बाक़ी न रहे। चुनाचे उसने तख़्त नशीं हाते ही हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) को मदीने से बग़दाद तलब कर के नज़र बन्द कर दिया। इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) जो अपने आबाओ अजदाद की तरह क़यामत तक के हालात से वाकि़फ़ थे। मदीने से चलते वक़्त अपने फ़रज़न्द को अपना जां नशीन मुक़र्रर कर दिया और वह तमाम तबर्रूकात जो इमाम के पास हुआ करते हैं आपने इमाम नक़ी (अ.स.) के सिपुर्द कर दिए। मदीने मुनव्वरा से रवाना हो कर आप 9 मोहर्रमुल हराम 220 हिजरी को वारिदे बग़दाद हुए। बग़दाद मे आपको एक साल भी न गुज़रा था कि मोतसिम अब्बासी ने आपको ब तारीख़ 29 जि़क़ाद 220 हिजरी मे ज़हर से शहीद कर दिया।
(नूरूल अबसार सफ़ा 147 )
उसूल काफ़ी में है कि जब इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स.) को पहली बार मदीने से बग़दाद तलब किया गया तो रावीये ख़बर इस्माइल बिन महरान ने आपकी खि़दमत में हाजि़र हो कर कहाः मौला। आपको बुलाने वाला दुश्मने आले मौहम्मद है। कहीं ऐसा न हो कि हम बे इमाम हों जायें। आपने फ़रमाया कि हमको इल्म है तुम घबराओ नहीं इस सफ़र में ऐसा न होगा।
इस्माईल का बयान है कि जब दोबारा आपको मोतासिम ने बुलाया तो फिर मैं हाजि़र हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ कि मौला यह सफ़र कैसा रहेगा ? इस सवाल का जवाब आपने आसुओें के तार से दिया और ब चश्में नम कहा कि ऐ इस्माईल मेरे बाद अली नक़ी को अपना इमाम जानना और सब्र ज़ब्त से काम लेना।
(तज़किरातुल मासूमीन सफ़ा 217 )


