चौदह सितारे हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स) पार्ट- 5

17322047060618166610269903296351

 

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के बाज़ करामात

वाकि़याऐ शक़ीक़ बलख़ी

अल्लामा मोहम्मद बिन तलहा शाफ़ेई लिखते हैं कि आपके करामात ऐसे हैं कि इनको देख कर अक़्लें चकरा जाती हैं मिसाल के लिए मुलाहेज़ा हों 149 हिजरी में शक़ीक़ बलख़ी हज के लिये गये। इनका बयान है कि जब मुक़ामे क़ादसिया में पहुँचा तो देखा कि एक निहायत ख़ूब सूरत जवान जिनका रंग सांवला (गन्दुम गूं) था वह एक अज़ीम मजमे में तशरीफ़ फ़रमा हैं। जिस्म उनका ज़ईफ़ है वह अपने कपड़ों के ऊपर एक कम्बल डाले हुए हैं और पैरों में जूतियाँ पहने हुए हैं। थोड़ी देर बाद वह मजमें से हट कर एक अलाहेदा मक़ाम पर जा कर बैठ गए मैंने दिल में सोचा कि यह सूफ़ी हैं और लोगों पर ज़ादे राह के लिये बार बनाना चाहते हैं मैं अभी उसको ऐसी तम्बीह करूंगा कि यह भी याद करेगा , ग़जऱ् कि मैं इनके क़रीब गया। जैसे ही मैं उनके क़रीब पहुँचा , वह बोले ऐ , शक़ीक़ बदगुमानी मत किया करो यह अच्छा शेवा नहीं है। इसके बाद वह फ़ौरन उठ कर रवाना हो गये। मैंने ख़्याल किया कि यह मामला क्या है। उन्होंने मेरा नाम ले कर मुझे मुख़ातिब किया और मेरे दिल की बात जान ली। इस वाकि़ए से मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि हो न हों यह कोई अब्दे सालेह हैं। बस यही सोच कर मैं उनकी तलाश में निकला और उनका पीछा किया , ख़्याल था कि वह मिल जाएं , मैं उनसे कुछ सवालात करूं , लेकिन न मिल सके। इनके चले जाने के बाद हम लोग भी रवाना हो हुए। चलते चलते जब हम वादिए फि़जा़ में पहुँचे तो हमने देखा कि वही जवान सालेह यहां नमाज़ में मशग़ूल हैं और उनके आज़ा व जवारे बेद की मानिन्द काँप् रहे हैं और उनकी आँखों से आँसू जारी हैं। मैं यह सोच कर उनके क़रीब गया की अब उनसे माफ़ी तलब करूँगा। जब वह नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो बोले ऐ शक़ीक़ ख़ुदा का क़ौल है कि जो तौबा करता है मैं उसे बख़्श देता हूँ। इसके बाद फिर रवाना हो गये। अब मेरे दिल में आया कि यक़ीनन यह बन्दाए आबिद कोई अबदाल हैं , क्यों कि दो बारा यह मेरे इरादे से अपनी वाक़फि़यत ज़ाहिर कर चुका है। मैंने हर चन्द फिर उनसे मिल ने की सई की लेकिन वह न मिल सके। जब मैं मंजि़ले जबाला पर पहँुचा तो देखा कि वही जवान एक कुएं की जगत पर बैठे हुए हैं , उसके बाद उन्होंने एक कूज़ा निकाल कर कुएं से पानी लेना चाहा , नागाह उनके हाथ से कूज़ा छूट कर कुऐं में गिर गया , मैंने देखा कि कूज़ा गिरने के बाद उन्होंने आसमान की तरफ़ मुँह कर के बारगाहे अहदियत में कहा मेरे पालने वाले जब मैं प्यासा होता हूँ तू ही सेराब करता है और भूखा होता हूँ तो तू ही खाना देता है , खुदाया ! इस कूज़े के अलावा मेरे पास और कोई बरतन नहीं है , मेरे मालिक! मेरा कूज़ा पूर आब बरामद कर दे। उस जवान सालेह का यह कहना था कि कुऐ का पानी बुलन्द हुआ और ऊपर तक आ गया। आपने हाथ बढ़ा कर अपना कूज़ा पानी से भरा हुआ ले लिया और वज़ू फ़रमा कर चार रकअत नमाज़ पढ़ी। उसके बाद आपने रेत की एक मुठ्ठी उठाई और पानी में डाल कर खाना शुरू किया। यह देख कर मैं अज़्र परदाज़ हुआ। मुझे भी कुछ इनायत हो मैं भूखा हूँ। आपने वही कूज़ा मेरे हवाले कर दिया जिसमें रेत भरी थी। ख़ुदा की क़सम। जब मैंने उसमे से खाया तो उसे ऐसा लज़ीज़ सत्तू पाया जैसा मैंने खाया ही न था। फिर उस सत्तू में एक ख़ास बात यह थी कि जब तक सफ़र में रहा , भूखा नहीं हुआ। इसके बाद आप नज़रों से ग़ायब हो गये। जब मैं मक्का मोअज़्ज़मा पहुँचा तो मैंने देखा कि एक बालू (रेत) के टीले के किनारे मशग़ूले नमाज़ हैं और हालत आपकी यह है कि आपकी आँखों से आँसू जारी हैं और बदन पर ख़ुशू व ख़ुज़ू के आसार नुमाया हैं आप नमाज़ ही में मशग़ूल थे कि सुबह हो गई , आपने नमाज़े सुबह अदा फ़रमाई और उससे उठ कर तवाफ़ का इरादा किया , फिर सात बार तवाफ़ करने के बाद एक मक़ाम पर ठहरे। मैंने देखा कि आपके गिर्द बेशुमार हज़रात हैं और सब बेइन्तेहां ताज़ीम व तकरीम कर रहे हैं। मैं चुंकि एक ही सफ़र में करामात देख चुका था इस लिये मुझे बहुत ज़्यादा फि़क्र थी कि यह मालूम करूं कि यह बुज़ुर्ग कौन हैं ? चुनान्चे मैं उनके गिर्द जो लोग जमा थे उनके क़रीब गया और मैंने पूछा कि यह साहबे करामात कौन हैं , उन्होंने कहा कि यह फ़रज़न्दे रसूल हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) हैं , मैंने कहा बेशक ऐसे करामात जो मैंने देखे वह इसी घराने के लिये सज़ावार हैं।

(मतालेबुल सुऊल पृष्ठ 279, नूरूल अबसार पृष्ठ 135 व शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 193 सवाहेक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 121, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 452 )

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि शक़ीक़ इब्ने इब्राहीम बल्ख़ी का इन्तेक़ाल 190 हिजरी में हुआ था।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 59 )

इमाम शिबली लिखते हैं कि एक मरतबा ईसा मदाएनी हज के लिये गए और एक साल मक्का में रहने के बाद वह मदीना चले गये। इनका ख़्याल था कि वहां भी एक साल गुजा़रे गें , मदीना पहुँच कर उन्होंने जनाबे अबूज़र के मकान में क़याम किया। मदीने में ठहरने के बाद उन्होंने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) वहां आना जाना शुरू किया। मदाईनी का बयान है कि एक शब को बारिश हो रही थी मैं उस वक़्त इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र था। थोड़ी देर के बाद आपने फ़रमाया कि ऐ ईसा तुम फ़ौरन अपने मकान चले जाओ क्यों कि तुम्हारा मकान तुम्हारे असासे पर गिर गया है और लोग सामान निकाल रहे हैं। यह सुन कर मैं फ़ौरन मकान की तरफ़ गया , देखा कि घर गिर चुका है और लोग मकान से सामान निकाल रहे हैं। दूसरे दिन जब हाजि़र हुआ तो इमाम (अ.स.) ने पूछा कि कोई चीज़ चोरी तो नहीं गई , मैंने अजऱ् कि एक तश्त नहीं मिलता जिसमें वज़ू किया करता था। आपने फ़रमाया वह चोरी नहीं गया बल्कि इन्हेदाम मकान से क़ब्ल तुम उसे बैतुल ख़ला में रख कर भूल गये हो , तुम जाओ और मालिक की लड़की से कहो वह ला देगी। चुनान्चे मैंने ऐसा ही किया और तश्त मिल गया।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 135 )

अल्लामा जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि एक शख़्स ने एक सहाबी के हमराह 100 दीनार हुजू़र मूसा काजि़म (अ.स.) की खि़दमत में बतौरे नज़र इरसाल किया वह उसे ले कर मदीना पहुँचा , यहाँ पहुँच कर उसने सोचा कि इमाम के हाथों में इसे जाना है लेहाज़ा पाक कर लेना चाहिये। वह कहता है कि मैंने इन दीनारों को जो अमानत थे शुमार किया 99 थे। मैंने उनमें अपनी तरफ़ से एक दीनार शामिल कर के 100 पूरा कर दिया। जब मैं हज़रत की खि़दमत में हाजि़र हुआ तो आपने फ़रमाया सब दीनार ज़मीन पर डाल दो। मैंने थोली खोल कर सब ज़मीन पर निकाल दिया। आपने मेरे बताए बग़ैर इसमे से मेरा वही दीनार जो मैंने मिलाया था निकाल कर मुझे दे दिया और फ़रमाया भेजने वाले ने अदद का लेहाज़ नहीं किया बल्कि वज़न का लेहाज़ किया है जो पूरा 99 होता है।

एक शख़्स का कहना है कि मुझे अली बिन यक़तीन ने एक ख़त दे कर इमाम (अ.स.) की खि़दमत में भेजा। मैंने हज़रत की खि़दमत में पहुँच कर उनका ख़त दिया , उन्होंने उसे पढ़े बग़ैर आस्तीन से एक ख़त निकाल कर मुझे दे दिया और कहा कि उन्होंने जो कुछ लिखा है उसका यह जवाब है।

(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 195 )

अबू बसीर का कहना है कि इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) दिल की बाते जानते थे और हर सवाल का जवाब रखते थे हर जानदार की ज़बान से वाकि़फ़ थे।

(रवाहल मुस्तफ़ा पृष्ठ 162 )

अबू हमज़ा बताऐनी का कहना है कि मैं एक मरतबा हज़रत के साथ हज को जा रहा था कि रास्ते में एक शेर बरामद हुआ , उसने आपके कान में कुछ कहा , आपने उसको उसी ज़बान में जवाब दिया और वह चला गया। हमारे सवाल के जवाब में आपने फ़रमाया कि उसने अपनी शेरनी की तकलीफ़ के लिये दुआ की ख़्वाहिश की , मैंने दुआ कर दी और वह वापस चला गया।

(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 193 )

अली बिन यक़तीन इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के ख़ास असहाब में से थे। 121 हिजरी में ब मुक़ाम कूफ़ा पैदा हुए और 182 हिजरी में ब मुक़ाम बग़दाद ब उम्र 57 साल फ़ौत हुए। उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं।

(रेजाल तूसी पृष्ठ 355 प्रकाशित नजफ़ अशरफ़)

AMEERUL MOMINEEN (a.s.) NE KYON SABR KARNA GAWARA KIYA


Rasoolullah (s.a.w.a.):

*Aye Ali, yaqeenan aapko mere baad bahot mushkilaat ka saamna karna hoga. Log aapko lalkaare’nge aur aap par zulm karenge. Agar aapko ansaar o madadgaar mil jaaye’n to aap unse jang keejiyega aur unki mukhalifat keejiyega. Agar aapko madadgaar na mile’n to sabr keejiyega aur apne aap ko rok leejiyega*

*aur _‘apne aapko halakat mei na daalo’._ Kyonki yaqeenan aap mere liye waise hi hain jaise Haroon Musa ke liye the aur Haroon mei aapke liye ek namoona-e amal hai jab unhone apne bhai Musa se bayan kiya – _‘ Yaqeenan logo’n ne mujhe kamzor kar diya aur bada nazdeek tha ki wo mujhe qatl kar dete’_*

(Surah A’raaf (7): 150)

📚 Hawale :
• Tarf min al-Amba wa al-Manaqib Safha 503
• Kashf al-Yaqeen  Safha 149
• Irshad al-Quloob Jild 2  Safha 420
• Ithbaat al-Hodaat Jild 1  Safha 293-294
• Kitab al-Sulaim Jild 2  Safha 565-568
• Kamaluddin Jild 1  Safha 262-264

*Ahle Bait (as) Ke Dushmano Per Lanat, BeshUmar Lanat*

मरवान बिन हकम को पैदा होते  ही रसूलअल्लाह saws ने लानती का लक़ब दे दिया था

*आख़िर ऐसी क्या वजह थी कि जिस शख़्स मरवान बिन हकम को पैदा होते से ही रसूलअल्लाह saws ने लानती का लक़ब दे दिया था उसे मुसलमानों के तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान ने अपना दामाद बनाया*❓❓

मुलाहिज़ा फरमाए👇

فَمِنْهَا مَا حَدَّثَنَاهُ أَبُو عَبْدِ اللَّهِ مُحَمَّدُ بْنُ عَلِيِّ بْنِ عَبْدِ الْحَمِيدِ الصَّنْعَانِيُّ بِمَكَّةَ حَرَسَهَا اللَّهُ تَعَالَى، ثَنَا إِسْحَاقُ بْنُ إِبْرَاهِيمَ بْنِ عَبَّادٍ، أَنْبَأَ عَبْدُ الرَّزَّاقِ، وَحَدَّثَنَا أَبُو زَكَرِيَّا يَحْيَى بْنُ مُحَمَّدٍ الْعَنْبَرِيُّ، ثَنَا مُحَمَّدُ بْنُ عَبْدِ السَّلَامِ، ثَنَا إِسْحَاقُ بْنُ إِبْرَاهِيمَ الْحَنْظَلِيُّ، وَمُحَمَّدُ بْنُ رَافِعٍ الْقُشَيْرِيُّ، وَسَلَمَةُ بْنُ شَبِيبٍ الْمُسْتَمْلِي، قَالُوا: ثَنَا عَبْدُ الرَّزَّاقِ بْنُ هَمَّامٍ الْإِمَامُ، قَالَ: حَدَّثَنِي أَبِي، عَنْ مِينَاءَ مَوْلَى عَبْدِ الرَّحْمَنِ بْنِ عَوْفٍ، عَنْ عَبْدِ الرَّحْمَنِ بْنِ عَوْفٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ، قَالَ: كَانَ لَا يُولَدُ لِأَحَدٍ مَوْلُودٌ إِلَّا أُتِيَ بِهِ النَّبِيَّ صَلَّى اللهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، فَدَعَا لَهُ فَأُدْخِلَ عَلَيْهِ مَرْوَانُ بْنُ الْحَكَمِ، فَقَالَ: «هُوَ الْوَزَغُ بْنُ الْوَزَغِ الْمَلْعُونُ ابْنُ الْمَلْعُونِ» هَذَا حَدِيثٌ صَحِيحُ الْإِسْنَادِ، وَلَمْ يُخْرِجَاهُ “

” حضرت عبدالرحمن بن عوف رضی اللہ عنہ فرماتے ہیں : جس کسی کے ہاں بھی بچہ پیدا ہوتا ، وہ اس کو نبی اکرم ﷺ کی بارگاہ میں لاتا ، نبی اکرم ﷺ اس کے لئے دعا فرماتے ، اسی طرح مروان بن حکم کو بھی رسول اللہ ﷺ کی بارگاہ میں پیش کیا گیا ، آپ نے اس کے بارے میں فرمایا : یہ وزغ بن وزغ ( بزدل باپ کا بزدل بیٹا ) ہے ، ملعون ابن ملعون ( لعنتی باپ کا لعنتی بیٹا ) ہے ۔

Al Mustadrak Hakim#8477

तर्जुमा- हज़रत अब्दुर्रहमान इब्ने औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं : जिस किसी के यहाँ भी बच्चा पैदा होता, वो उस बच्चे को नबी करीम स्वल्लल्लाहो अलयहे व आलेही व सल्लम की बारगाह में लाता, नबी अकरम saws उस बच्चे के लिए दुआ फ़रमाते। *इस ही तरह मरवान बिन हकम को भी रसूलअल्लाह saws की बारगाह में पेश किया गया, आप ने मरवान बिन हकम (जो उस वक़्त नोमोलूद बच्चा था) के बारे में फ़रमाया : ये बुज़दिल बाप का बुज़दिल बेटा है, और ये लानती बाप का लानती बेटा है।*


🤔 रसूलअल्लाह saws की ज़बान मुबारक से कभी किसी के लिए इतने सख़्त अल्फ़ाज़ नही निकले वो जो सारे आलम के लिए रहमत बन के आये हों अगर वो ही किसी के लिए लानती लफ़्ज़ बोल दें तो आप समझ सकते हैं कि वो शख्स कम से कम मुसलमान तो नही कहलायेगा।

पर सवाल फिर भी यही है कि जब मरवान को उसके बचपन में ही लानती कहकर हुज़ूर अलैहिस्सलाम ने अपनी बारगाह से निकाल दिया था तो और ज़ाहिर सी बात है कि जिसके बारे में मदीने का हर इंसान जानता हो कि ये लानती है तो ऐसे मलऊन को मुसलमानों के तीसरे ख़लीफ़ा अपना दामाद क्यों बनाएँगे ?क्या सिर्फ़ इस वजह से की ये मरवान तीसरे ख़लीफ़ा का चचाज़ाद भाई था ? और इस मलऊन मरवान का बाप जिसका नाम हकम था इसको भी हुज़ूर ने लानती कहा है और बुज़दिल भी कहा है ये मुसलमानों के तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान का चचा था।

क्या सिर्फ़ अपनी इन रिश्तेदारियों की वजह से एक गुस्ताखे रसूल और मलऊन को एक ख़लीफ़ा अपनी बेटी दे देगा और न सिर्फ़ बेटी दे देगा बल्कि अपनी ख़िलाफ़त में बड़े बड़े औहदे जैसे अलग अलग शहरों की गवर्नर की पोस्ट तक दे देगा ❓❓

*मरवान बिन हकम का एक और कारनामा*


ये मरवान बिन हकम ने ही अशरा ए मुबश्शेरा में से एक बड़े सहाबी हज़रत तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु को भी शहीद किया था मुलाहिज़ा फरमाएँ👇
أَخْبَرَنِي مُحَمَّدُ بْنُ يَعْقُوبَ الْحَافِظُ، أَنَا مُحَمَّدُ بْنُ إِسْحَاقَ الثَّقَفِيُّ، ثَنَا عَبَّادُ بْنُ الْوَلِيدِ الْعَنَزِيُّ، ثَنَا حَبَّانُ، ثَنَا شَرِيكُ بْنُ الْحُبَابِ، حَدَّثَنِي عُتْبَةُ بْنُ صَعْصَعَةَ بْنِ الْأَحْنَفِ، عَنْ عِكْرَاشٍ قَالَ: كُنَّا نُقَاتِلُ عَلِيًّا مَعَ طَلْحَةَ وَمَعَنَا مَرْوَانُ، قَالَ: فَانْهَزَمْنَا، قَالَ: فَقَالَ مَرْوَانُ: «لَا أُدْرِكُ بِثَأْرِي بَعْدَ الْيَوْمِ مِنْ طَلْحَةَ» ، قَالَ: فَرَمَاهُ بِسَهْمٍ فَقَتَلَهُ
  [التعليق – من تلخيص الذهبي] 5589 – سكت عنه الذهبي في التلخيص

عکراش کہتے ہیں : ہم حضرت طلحہ رضی اللہ عنہ کے ہمراہ ، حضرت علی رضی اللہ عنہ کے ساتھ قتال کر رہے تھے ، ہمارے ساتھ مروان بھی تھا ، عکراش کہتے ہیں : ہمیں شکست ہو گئی ، تو مروان نے کہا : آج کے بعد مجھے طلحہ رضی اللہ عنہ سے بدلہ لینے کا موقع نہیں ملے گا ۔ یہ کہہ کر اس نے تیر مارا جس کی وجہ سے حضرت طلحہ رضی اللہ عنہ شہید ہو گئے ۔

Al Mustadrak Hakim#5589

*तर्जुमा- अक्राश कहते हैं : हम हज़रत तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु(अशरा ए मुबश्शेरा के सहाबी) के हमराह , हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु के साथ किताल (जंग) कर रहे थे, हमारे साथ मरवान भी था,अक्राश कहते हैं : हमें शिकस्त हो गई, तो मरवान ने कहा : आज के बाद मुझे तल्हा से बदला लेने का मौक़ा नही मिलेगा,ये कहकर मरवान बिन हकम ने हज़रत तल्हा को तीर मारा जिसकी वजह से हज़रत तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु शहीद हो गए।*

*(इंनलिल्लाहे व इन्ना इलयहे राजेऊन)*

अब यहाँ मेरा तमाम मुसलमानों से एक सवाल है कि अगर कोई सहाबा को उसके किसी अमल की वजह से बुरा बोलदे तो वो राफ़ज़ी और दीन से ख़ारिज हो जाता है तो अब हम उस शख़्स के बारे में क्या कहेंगे जो एक बड़े सहबीए रसूल का क़ातिल हो क्या ऐसा शख़्स जहन्नमी नही कहलायेगा ? क्या ऐसे शख़्स का भी एहतराम किया जाएगा सिर्फ़ इस बिना पर के वो तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान का भाई और दामाद है ??

*मुसलमानों ख़ुदारा इंसाफ करो,अल्लाह की बारगाह में जवाब देना है, तारीख़ में न जाने ऐसे कितने किरदार गुज़रे हैं जिन्होंने न सिर्फ़ सहाबा बल्कि रसूल के अहलेबैत तक के साथ अलग अलग मुक़ामात पर ज़ुल्म व तशद्दुद किये हैं और लोगों ने उनके चेहरे पर पर्दे डाल दिये और उनके मज़ालिम अवाम तक नही पहुँचने दिए,अगर वो सब मज़ालिम लोगों तक पहुंच जाते तो आज इस्लाम का इतना नुक़सान नही होता न ही इतने फ़िरके वजूद में आते।अब भी आप सब साहिबे अक़्ल से गुज़ारिश है कि अल्लाह और उसके रसूल अलैहिस्सलाम के वास्ते से अपनी आँखें खोलिए और तअस्सुब का चश्मा अपनी आंखों से उतार फेंकिए ताकि हम हक़ीक़त से वाकिफ़ हो जाएं और सही दीन पर अमल अंजाम दें।*🙏

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा س का घर तमाम अम्बिया के घरों से अफ़ज़ल..

🌹 हज़रत फ़ातिमा ज़हरा س का घर तमाम अम्बिया के घरों से अफ़ज़ल..
इमाम जलालुद्दीन सुयूती रह० ने ‘तफ़सीरे दुर्रे मंसूर’ में सूरह नूर (सूरह नंबर 24) की आयत नंबर 36 की तफ़सीर में लिखा है कि हज़रत मोहम्मद ﷺ ने इस आयत की तिलावत की तो एक आदमी उठा और अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह ﷺ! यह कौन से घर हैं.?
रसूल अल्लाह ﷺ ने फरमाया कि अम्बिया के घर।
फ़िर हज़रत अबू बकर उठे और हज़रत अली ع वा फ़ातिमा ज़हरा س के घर की ओर इशारा करते हुए अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह ﷺ! यह घर भी इनमें से है.??
फ़िर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा ﷺ ने फ़रमाया कि ‘यह इनमें अफ़ज़ल तरीन है’।
         – दुर्रे मंसूर, जिल्द 5, सफ़ाह नंबर 143,
                    सूरह नूर की आयत नंबर 36
      क़ुरआन मजीद की इस आयत की तफ़सीर से यह साबित हुआ कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा س और हज़रत मौला इमाम अली ع का घर अम्बियाओं के घरों से भी अफ़ज़ल है।
घरो की अफ़ज़लियत ईंट और पत्थरों से नहीं होती, बल्कि उस घर में बसने और रहने वाले अफ़ज़ल तरीन इंसानों से होती है।
जिस घर को मोहम्मद ﷺ ने नबियों के घरों से भी अफ़ज़ल कहा, उस घर में ग्यारह इमामों के  वालिद/बाप सय्यदुल औलिया हज़रत मौला इमाम अली ع, सय्यदुन-निसा हज़रत फ़ातिमा-तुज़्ज़हरा س, इमाम हसन ع और इमाम हुसैन ع रहते हैं…और इसी घर में वोह चाचा (हज़रत अबुतालिब ع) रहते थे जो बाप बनकर रिसालत की उंगली पकड़कर जवान किया..
अफ़सोस है कि पूछने वाले ने बाद में खुद इसी घर की तौहीन की और अपने आखिरी लम्हात में अफ़सोस करते रहे कि काश मैंने यह ना किया होता भले वोह हमसे जंग करते..
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा س के घर की अज़मत पर ऐहले’सुन्नत का मजीद हवाला जानने के लिए, देखें