आराबी का घोड़ा


हुजूर सरवरे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक आराबी से घोड़ा ख़रीदा। वह बेचकर मुकर गया और गवाह मांगा। जो मुसलमान आता आराबी को झिड़कता कि ख़राबी हो तेरे लिए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हक़ के सिवा क्या फ़रमायेंगे । हर मुसलमान यही कहता मगर गवाही कोई न देता इसलिये कि किसी के सामने यह वाक़िया न हुआ था। इतने में हज़रत खुज़ैमा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु आ गये और गुफ्तगू सुनकर बोलेः मैं गवाही देता हूं कि तूने अपना घोड़ा हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हाथ बेचा है। हुजूर सरवरे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमायाः ऐ खुजैमा तुम मौजूद थे ही नहीं। फिर तुमने गवाही कैसे दी? अर्ज़ कियाः या रसूलल्लाह आप हमें आसमान की ख़बरें सुनाते हैं और हम बगैर देखे आपकी ज़बाने हक़ तर्जमान पर यकीन करके इनकी तसदीक करते है। फिर यह खबर जो ज़मीन की है इसकी तसदीक क्यों न करें? हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत खुमैज़ा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु का यह जवाब सुनकर बहुत खुश हुए और इसके इनाम में हज़रत खुज़ैमा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु की गवाही दो मर्दों के बराबर फरमा दी। फ़रमाया खुज़ैमा जिस किसी के नफा व नुकसान की गवाही दे एक इन्हीं की गवाही काफी है।

( अबू – दाऊद जिल्द २, सफा ३४१)

सबक़ : सहाबए किराम ने हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हर इरशाद की तसदीक की और उनका ईमान था कि ज़बाने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से जो इरशाद होता है हक़ ही होता है। इस ज़बान से कभी खिलाफे वाक़िया निकल ही नहीं सकता। फिर अगर कोई शख़्स अल्लाह तआला ही के मुतअल्लिक यूं कहने लगे कि वह झूठ भी बोल सकता है तो वह किस केंद्र ज़ालिम और झूठा है। यह भी मालूम हुआ कि हमारे हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुख़्तार और अहकामे शरीअत के मालिक हैं। किसी हुक्म से जिसे छूट देना चाहें, दे लें। चुनांचे कुरआन का हुक्म है कि “अपने में दो आदिल को गवाह कर लो।” इस हुक्मे कुरआन से हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने खुज़ैमा रज़ियल्लाहु तआला अन्हु को मुस्तसना फ्रमा दिया। ने उनकी अकेले ही गवाही को दो मर्दों की गवाही के बराबर फरमा दिया। साबित हुआ कि हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम शारेअ (शरीअत बनाने वाले) मालिक व मुख़्तार हैं।

मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक-10

तसलीम’ शब्द का अर्थ है कि ईश्वर की ओर से दुखः, भूख जो कुछ भी मिले सन्तोष सहित उसको स्वीकार करना और ‘रजा’ शब्द का अर्थ है कि प्रत्येक दुखों-सुखों और कष्ट आराम में प्रसन्न रहना तथा शिकायत का कोई शब्द जुबान पर न लाना। हुजूर वारिस पाक की तपस्या में तसलीम व रज़ा का विशेष गौरव तथा महत्व झलकता है। आप सरापा तसलीम व रजा के प्रतीक थे। अन्य वरासतों की भाँति ये वरासत भी आपको अपने पूर्वजों से प्राप्त हुई। यह ख़ास वरासत हजरत इमाम हुसेन अलैहिस्सलाम का है। सरकार वारिस पाक स्वयं अपने मुखार बिन्दु से वर्णन करते हैं ‘तसलीम और रजा बीबी फ़ातमा और दोनों साहबजादों का
हिस्सा है।’ यह भी कहा है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने ख़ुदा की एक रज़ा के लिए सारे परिवार को कर्बला के मैदान में शहीद करा दिया। कोई इस आशिकी के रहस्य को क्या समझ सकता है ? यह बात बहुत ही नाजुक है।

– एक साधारण तारीफ़ आपके तसलीम रज़ा की यह है कि कोई भी व्यक्ति आपके पवित्र मुख से कभी भी कोई शिकायत नहीं सुना है। यहाँ तक की बीमारी में भी न रोग का नाम किसी ने सुना है और न दर्द अथवा कष्ट की बात, न सर्दी की शिकायत, न गर्मी की कमी-बेसी की बात ही जुबान पर आयी है। इससे यह सिद्ध होता है कि आपकी सम्पूर्ण इच्छायें ख़ुदा की ख़ुशी के लिए विलीन हो गयी थीं।

मौलवी नादिर हुसेन साहंब लिखते हैं कि मैं आठ बजे हुजूर के पैर दबा रहा था आपने कहा ‘नादिर हुसेन इस समय हवा ठंडी चलती है।’ मैंने उत्तर दिया ‘जी हाँ!’ पास ही बैठे तुराब अली शाह ने नम्रता से कहा ‘दाता! दिन को ऐसी गर्मी पड़ती है कि सम्पूर्ण धान की फसल भस्म हो गयी है।’ यह सुनकर आपने कहा ‘तुम क्या जानो माशूक का दिया हुआ कष्ट दुर्लभ होता है।’ इसके बाद ही वर्षा हुई और बची हुई फसल बहुत ही अच्छी हुई और रबी की फसल में भी ख़ूब गल्ला पैदा हुआ।

हाजी अवघट शाह कहते हैं कि प्लेग के समय डाक्टर ने घर छोड़ने के लिए अधिक प्रयत्न किया किन्तु आपने घर नहीं छोड़ा। यहाँ तक की अन्तिम बेला में भी जब आप रोग से पूर्णरूपेण-ग्रस्त थे, वैद्य, हकीमों के हाल पूछने पर यही उत्तर देते थे कि बहुत अच्छा हूँ। यह सब बातें सिद्ध करती हैं कि आप पूरी तरह जीवन के हर पक्ष से रज़ा-तसलीम के पाबन्द थे। आप कहते थे कि जो तुमसे मोहब्बत करें, उससे तुम मोहब्बत करो, न किसी के लिए दुआ करो न बद्दुआ अर्थात् न आशीर्वाद दो न श्राप । तुम रज़ा- तसलीम के बन्दे रहो। आप रज़ा-तसलीम में इस क़दर डूबे हुए थे कि न दुआ के लिए हाथ उठे न बद्दुआ के लिए। क्योंकि अपने को ईश्वर के हवाले कर देना और जो विधि-विधान हो उसे बिना मीनमेख के स्वीकार करना ही बन्दगी की शान है। तसलीम-रज़ा की व्याख्या आपने इस प्रकार की है ‘तसलीम-रज़ा जब है कि बुराई को भी भलाई समझ ले। कष्ट, आशिक और माशूक का भेद है।’ आप कहा करते थे कि माशूक का तरसाना, पर्दा करना और सख़्ती करना ही उसकी दया और कृपा है। सारांश यह है कि आपकी नज़र में न कष्ट, कष्ट था और न सुख, सुख था। आप तंत्र-मंत्र, झाड़ फूंक को पसन्द नहीं करते थे और प्रत्येक को ख़ुदा के हवाले कर देते थे।

(१८) एक बार की बात है कि सैय्यद सरफुद्दीन साहब, बैरिस्टर, पटना हुजूर के साथ गोरखपुर में मुंशी सफ़दर हुसेन साहब जज के यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन मुंशी साहब अपने बेटों का ख़त जो इंग्लैण्ड से आया हुआ था, लिए हुए हज़रत की सेवा में पहुंचे और प्रार्थना किया कि हुजूर हमारे लड़कों का बैरिस्टरी में अन्तिम परीक्षा है। उनकी मंशा यह थी कि हुजूर परीक्षा में सफलता के निमित्त दुआ करें किन्तु हुजूर बिल्कुल चुप रहे। मुंशी सफदर हुसेन साहब दुखी मन से बाहर आकर सैय्यद सरफुद्दीन साहब से कहने लगे कि हमारे हुजूर का दरबार निराला है, न किसी की इच्छा स्वीकार की जाती है और न किसी के लिए दुआ की जाती है। अभी यह शिकायत मिश्रित बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि हुजूर का सेवक दौड़ा हुआ आया और कहा कि बैरिस्टर साहब और जज महोदय को हुजूर ने बुलाया है। हज़रत ने सैय्यद सरफुद्दीन साहब को सम्बोधित करते हुए कहा ‘बैरिस्टर सुनो! एक समय मैं बग़दाद में था। एक आदमी ने आकर कहा कि एक औरत पर जिन आता है। आप चल करके उतार दें। मैंने कहा भाई मैं झाड़-फूंक, गण्डा, तावीज़ कुछ भी नहीं करता हूँ। मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ। मैं वहां जाकर क्या करूंगा? किन्तु वह न माना और मजबूर होकर मुझे जाना ही पड़ा। उसके मकान पर जहां वह आसेब की मारी स्त्री थी। उस पर उस समय भी जिन चढ़ा हुआ था। मैंने जिन से पूछा तुम इस औरत पर क्यों आते हो? उसने उत्तर दिया कि मैं इस स्त्री का सच्चा आशिक हूँ। मैंने कहा कि क्या यह भी जानते हो कि सच्चा आशिक किसको कहते हैं? देखो, सच्चा आशिक वह है जो माशूक की मर्जी को चाहे और सुई की नोक बराबर भी उसके उल्टा न करे। तुम उस औरत के आशिक बनते हो और उसकी मर्जी के विरूद्ध करते हो। उसकी खुशी इसमें है कि तुम उसके ऊपर न आओ। जिन ने कहा कि अच्छा आज से मैं यहां न आया करूंगा। समझे, बैरिस्टर समझे! अच्छा जाओ