मिश्कत ए हक़्क़ानिया जीवनी वारिस पाक- 3

माता-पिता का स्वर्गवास

विश्वसनीय लोगों का कहना है कि जब सरकार वारिस पाक की उम्र अभी तीन वर्ष भी पूरी नहीं हुई थी कि आपके पिता मान्यवर क़ुरबान अली शाह साहब का स्वर्गवास हो गया और कुछ ही दिनों पश्चात आपकी माता जी भी परलोक सिधार गयीं ।

यह यतीमी अर्थात माता पिता का न रहना जनाब रसूले ख़ुदा मुहम्मद साहब से आपको वरासतन मिली है।

इसके बाद आपकी दादी साहिबा आपका पालन पोषण करने लगीं आपके आदरणीय चचा जनाब सैय्यद मोकर्रम अली साहब, आपके वैद्यानिक वली थे। अपनी अवलाद से अधिक आपकी देखभाल करते थे। कभी सरकार वारिस पाक इन घटनाओं को आंशिक रूप में या सीख के अवसर पर ब्यान करते थे आपका कथन है कि जब मैं दो वर्ष का था या इससे कुछ अधिक, मेरे माता पिता का स्वर्गवास हो गया किन्तु ख़ुदा अपने बन्दों का रक्षक और निगाहबान होता है तथा वह इतना मेहरबान, दयालू है जितना कि माता-पिता भी नहीं। ईश्वर बिना माँ-बाप के बच्चों का पालन पोषण स्वयं करता है। अतः ख़ुदा पर ही भरोसा करना चाहिये।

शिक्षा तथा पठन-पाठन

हुजूर वारिस पाक जब ५ वर्ष की आयु को पहुंचे तो रस्म, रिवाज के अनुसार बिस्मिल्लाह के बाद आप मकतब में बिठाये गये। आपकी तीव्र और विलक्षण बुद्धि तथा प्रतिभा को देखकर गुरूजन अचम्भित हो जाते थे। सभी छात्र तथा अध्यापक आपका सम्मान और आदर करते थे। घर से मकतब तक आप कुरआन शरीफ सिर पर रख कर जाते। फिर उसी भाँति सिर पर रखकर घर लौटते थे। आपकी तीव्र बुद्धि तथा स्मरणशक्ति की यह दशा थी कि आप ने दो वर्ष में ही क़ुरआन स्मरण और कंठस्थ कर लिया। उस समय आप केवल सात वर्ष के थे। आप की पढ़ाई लिखाई केवल मकतब तक सीमित रही। घर पर कभी किताब नहीं पढ़ते वरन् किसी फ़िक्र या विचार में विभोर हो जाते थे और यूँही चिन्तन-मनन में डूबे रहते थे। यही वह समय था जब कि आपकी दादी साहिबा की छाया भो सिर से उठ गई । इसके पश्चात् हाजी ख़ादिम अली शाह साहब आपको लखनऊ ले (७)

गये और वहाँ फिर एक मौलवी साहब के यहाँ पढ़ने के लिए कर दिया गया। यहाँ भी आपकी प्रखर बुद्धि की यह दशा थी कि मौलवी साहब जब एक दो शब्द बतलाते तो आप पूरा पृष्ठ ही सुना देते।

मौलवी रौनक अली साहब निवासी पैंते पुर जिलासीतापुर लिखते हैं कि मेरे नाना हकीम रहमत अली फ़िरंगी महल में आपके मकतब के साथी थे, उनका कहना है कि बालावस्था में ही प्रकाशपुंज वारिस पाक से ऐसी विलक्षण और अद्भुत बातें प्रकट होती रहती थीं कि सभी लोग अचम्भे में पड़ जाते थे। एक दिन मकतब के मौलवी साहब ने हज़रत ख़ादिम अली शाह से कहा कि हज़रत आपने .एक शेर मेरे हवाले कर दिया है। इनसे विचित्र और अद्भुत कारनामें इतनी कम उम्र में प्रकट होते हैं जो बड़े सिद्ध-सन्तों और महात्माओं में भी नहीं देखे जाते हैं। साहबजादे पढ़े-पढ़ाये जन्म लिये हैं। मेरी राय में इनको अधिक शिक्षा देने की आवश्यकता नहीं है ।

हज़रत ख़ादिम अली शाह महान ऋषि थे और साथ ही शाह अब्दुल अजीज़ साहब देहलवी से हदीस और फिका की शिक्षा पाये थे। कुछ ही समय तक सरकार को अपने पास रखा। शेख हुसेन अली साहब जो सादा मऊ जिला बाराबंकी के नवाब थे उनका कहना है कि एक बार आपके उस्ताद मौलवी इमाम अली साहब उर्फ शाह अब्दुल मुनइम शाह देवा शरीफ़ में आये तो वारिस पाक खुद उनसे मिलने गए, मौलवी साहब आपको देखकर खड़े हो गये। सरकार ने कहा मौलवी साहब आप हमारे उस्ताद, पिता तुल्य हैं। मौलवी साहब ने कहा उस समय हम जो थे सो थे, अब आप ही हमारे पिता की जगह पर है। हमें वह समय याद है जब आपने एक बार मुझे घूर कर देखा तो मुझे तीन दिन बुखार रहा जब हमने खादिम अलीशाह महोदय से कहा कि शाहबजादा तो पैदाईशी वली है तो शाह साहब ने कहा आपको चाहिए कि उनको प्यार और स्नेह से शिक्षा दें। फिर जब मैं साहबजादा से पाठ सुनाने को कहता आप हमारे सामने पुस्तक रख देते और पूरा पाठ सुना देते थे जिसमें कोई ग़लती नहीं होती। सारांश यह है कि आप बहुत ही अल्पकाल में तमाम पाठ्य पुस्तकों के अच्छे ज्ञाता हो गए। श्र

आपका ज्ञान ईश्वरीय देन है। बड़े से बड़ा ज्ञानी अथवा पण्डित जो भी । आपके सामने आया सबने आपकी योग्यता और स्मरणशक्ति को स्वीकार किया और आपकी महान योग्यता के समक्ष नतमस्तक हुआ। अधिकांश देखा गया कि पाठ लेने के पश्चात् आप जंगल मैदान की ओर चले जाते थे और पूरा समय एकान्त में व्यतीत हो जाता था। जब आपकी उम्र दस वर्ष के लगभग हुई तब आपके स्वतन्त्र मन और मस्तिष्क ने इसको भी स्वीकार नहीं किया और आप सम्पूर्ण सम्बन्धों को तोड़कर तन-मन से भगवान की बाद में संलग्न हो गए।

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