अर-रहीकुल मख़्तूम  पार्ट 67

3. रजीअ का हादसा

इसी साल 04 हि० के सफ़र महीने में अल्लाह के रसूल सल्ल० के पास अज्ल और क़ारा के कुछ लोग हाज़िर हुए और ज़िक्र किया कि उनके अन्दर इस्लाम की कुछ चर्चा है, इसलिए आप उनके साथ कुछ लोगों को दीन सिखाने और कुरआन पढ़ाने के लिए रवाना फ़रमा दें।

आपने इब्ने इस्हाक़ के अनुसार 6 लोगों को और सहीह बुखारी की रिवायत के मुताबिक़ दस लोगों को रवाना फ़रमाया और इब्ने इस्हाक़ के अनुसार मुर्सद बिन अबी मुर्सद ग़नवी को और सहीह बुखारी की रिवायत के मुताबिक़ आसिम बिन उमर बिन खत्ताब के नाना हज़रत आसिम बिन साबित को उनका अमीर मुक़र्रर फ़रमाया ।

जब ये लोग राबिग़ और जद्दा के बीच क़बीला हुज़ैल के रजीअ नामी एक चश्मे पर पहुंचे, तो उन पर अल और क़ारा के उक्त लोगों ने क़बीला हुज़ैल की एक शाखा बनू लह्यान को चढ़ा दिया और बनू लह्यान के कई सौ तीरंदाज़ उनके पीछे लग गए और पद-चिह्नों को देख-देखकर उन्हें जा लिया। ये सहाबा किराम एक टीले पर चढ़ गए।

बनू लह्यान ने उन्हें घेर लिया और कहा, तुम्हारे लिए वचन है कि अगर हमारे पास उतर आओ, तो हम तुम्हारे किसी आदमी को क़त्ल नहीं करेंगे ।

हज़रत आसिम ने उतरने से इंकार कर दिया और अपने साथियों समेत उनसे लड़ाई शुरू कर दी। सात आदमी शहीद हो गए और सिर्फ़ तीन आदमी हज़रत खुबैब, जैद बिन दस्ना और एक और सहाबी बाक़ी बचे ।

अब फिर बनू लह्यान ने अपना वचन दोहराया और उस पर तीनों सहाबी उनके पास उतर कर आए, लेकिन उन्होंने क़ाबू पाते ही वचन भंग कर दिया और उन्हें अपनी कमानों की तांत से बांध लिया ।

इस पर तीसरे सहाबी ने यह कहते हुए कि पहली बार ही वचन भंग कर दिया गया है, उनके साथ जाने से इंकार कर दिया। उन्होंने खींच घसीट कर ले जाने की कोशिश की, लेकिन कामियाब न हुए, तो उन्हें क़त्ल कर दिया। हज़रत

1. ज़ादुल मआद, 2/109, इब्ने हिशाम 2/619, 620

खुबैब और ज़ैद रज़ि० को ले जाकर बेच दिया। इन दोनों सहाबा ने बद्र के दिन मक्का के सरदारों को क़त्ल किया था।

हज़रत खुबैब रज़ि० कुछ दिनों मक्का वालों की क़ैद में रहे। फिर मक्का वालों ने उनके क़त्ल का इरादा किया और उन्हें हरम से बाहर तनअम ले गए। जब सूली पर चढ़ाना चाहा, तो उन्होंने फ़रमाया, मुझे छोड़ दो, ज़रा दो रक्अत नमाज़ पढ़ लूं ।

मुश्रिकों ने छोड़ दिया और आपने दो रक्अत नमाज़ पढ़ी। जब सलाम फेर चुके तो फ़रमाया, खुदा की क़सम ! अगर तुम लोग यह न कहते कि जो कुछ कर रहा हूं, घबराहट की वजह से कर रहा हूं, तो मैं नमाज़ और कुछ लम्बी करता । इसके बाद फ़रमाया, ऐ अल्लाह ! इन्हें एक-एक करके गिन ले, फिर इन्हें बिखेरकर मारना और इनमें से किसी एक को बाक़ी न छोड़ना, फिर ये पद पढ़े-

‘लोग मेरे चारों ओर गिरोह दर गिरोह जमा हो गए हैं, अपने क़बीलों को चढ़ा लाए हैं और बहुत बड़ी भीड़ जमा कर रखी है। अपने बेटों और औरतों को भी बुला लाए हैं और मुझे एक लम्बे मज़बूत तने के क़रीब कर दिया गया है। मैं अपनी बे-वतनी और बेकसी की शिकायत और अपनी क़त्लगाह के पास गिरोहों की जमा की हुई आफ़तों की फ़रियाद अल्लाह ही से कर रहा हूं।’

‘ऐ अर्श वाले ! मेरे खिलाफ़ दुश्मनों के जो इरादे हैं, उस पर मुझे सब दे । इन्होंने मुझे बोटी-बोटी कर दिया है और मेरी खुराक बुरी हो गई है। इन्होंने मुझे कुन अपनाने को कहा है, हालांकि मौत इससे कमतर और आसान है।’

‘मेरी आंखें आंसू के बिना उमंड आईं। मैं मुसलमान मारा जाऊं तो मुझे परवाह नहीं कि अल्लाह की राह में किस पहलू पर क़त्ल हूंगा। यह तो अल्लाह की ज़ात के लिए है और वह चाहे तो बोटी-बोटी किए हुए अंगों के जोड़-जोड़ में बरकत दे ।’

इसके बाद अबू सुफ़ियान ने हज़रत खुबैब से कहा, क्या तुम्हें यह बात पसन्द आएगी, कि (तुम्हारे बदले) मुहम्मद (सल्ल०) हमारे पास होते, हम उनकी गरदन मारते और तुम अपने बाल-बच्चों में रहते ?

उन्होंने कहा, नहीं ! अल्लाह की क़सम ! मुझे तो यह भी गवारा नहीं कि मैं अपने बाल-बच्चों में रहूं और (इसके बदले) मुहम्मद सल्ल० को, जहां आप हैं, वहीं रहते हुए कांटा चुभ जाए और वह आपको तक्लीफ़ दे ।

इसके बाद मुश्रिकों ने उन्हें सूली पर लटका दिया और उनकी लाश की निगरानी के लिए आदमी मुक़र्रर कर दिए। लेकिन हज़रत अम्र बिन उमैया जुमरी

रज़ियल्लाहु अन्हु तशरीफ़ लाए और रात में झांसा देकर लाश उठा ले गए और उसे दफ़न कर दिया ।

हज़रत खुबैब का हत्यारा उक्बा बिन हारिस था। हज़रत खुबैब ने उसके बाप हारिस को बद्र की लड़ाई में क़त्ल किया था।

सहीह बुखारी की रिवायत है कि हज़रत खुबैब पहले बुजुर्ग हैं, जिन्होंने क़त्ल के मौके पर दो रक्अत नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा जारी किया। उन्हें क़ैद में देखा गया कि वह अंगूर के गुच्छे खा रहे थे, हालांकि उन दिनों मक्के में खजूर भी नहीं मिलती थी।

दूसरे सहाबी जो इस घटना में गिरफ़्तार हुए थे, यानी हज़रत ज़ैद बिन दसना, उन्हें सफ़वान बिन उमैया ने खरीद कर अपने बाप के बदले क़त्ल कर दिया।

कुरैश ने इस मक़सद के लिए भी आदमी भेजे कि हज़रत आसिम के जिस्म का कोई टुकड़ा लाएं, जिससे उन्हें पहचाना जा सके, क्योंकि उन्होंने बद्र की लड़ाई में कुरैश के किसी बड़े आदमी को क़त्ल किया था, लेकिन अल्लाह ने उन पर भिड़ों का झुंड भेज दया, जिसने कुरैश के आदमियों से उनकी लाश की हिफ़ाज़त की और ये लोग उनका कोई हिस्सा हासिल करने पर कुदरत न पा सके ।

वास्तव में हज़रत आसिम रज़ि० ने अल्लाह से यह अहद व पैमान कर रखा था कि न उन्हें कोई मुश्कि छुएगा, न वे किसी मुश्कि को छुएंगे। बाद में जब हज़रत उमर रज़ि० को यह घटना मालूम हुई, तो फ़रमाया करते थे कि अल्लाह मोमिन बन्दे की हिफ़ाज़त उसकी वफ़ात के बाद भी करता है, जैसे उसकी ज़िंदगी में करता है। 1

Leave a comment