
Bage fidak maal e fay khalis Rasulullah ka Haq.





“अल्लाह की वहदानीयत (तौहीद) — मौला अली (अ) के नज़रिये से”
क़ुरआन + हदीस + ख़ुतबा
नहजुल बलाग़ा, अहले-बैत (अ) की हदीसों और क़ुरआन के आयात से है।
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■ अल्लाह की वहदानीयत — मौला अली (अ) की तौहीद
(1) तौहीद की बुनियाद — अल्लाह का एक होना
Qur’an (अरबी):
قُلْ هُوَ اللَّهُ أَحَدٌ
कहो: वह अल्लाह एक है।
यह पूरी तौहीद का सबसे पहली और सबसे ऊँची दलील है।
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(2) मौला अली (अ) का बयान — अल्लाह एक है, लेकिन संख्या की तरह नहीं
Nahjul Balagha (अरबी):
«وَاحِدٌ لَا بِعَدَدٍ»
“वह एक है—लेकिन गिनती वाले ‘एक’ की तरह नहीं।”
अर्थात अल्लाह का “एक होना” गणितिक संख्या नहीं, बल्कि “यकतानियत” है।
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(3) अल्लाह का “ला-शरीक” होना
Qur’an:
لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ
“उस जैसा कोई भी चीज़ नहीं।”
मौला अली (अ) कहते हैं:
“जो उसके जैसा कोई चीज़ समझे, उसने उसे झुठलाया।”
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(4) मौला अली (अ): “तौहीद का पहला कदम—उसका सही इरफ़ान”
Arabic (Nahjul Balagha):
«أَوَّلُ الدِّينِ مَعْرِفَتُهُ»
“दीन की शुरुआत अल्लाह की सही पहचान है।”
अर्थात सिर्फ़ “एक मान लेना” काफी नहीं; “उस जैसी कोई चीज़ नहीं” समझना जरूरी है।
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(5) अल्लाह को सीमा देना—कुफ़्र
Arabic:
«مَنْ وَصَفَ اللَّهَ فَقَدْ حَدَّهُ»
“जो अल्लाह को किसी हद में बाँध दे, उसने उसे सीमित कर दिया।”
अल्लाह किसी शक्ल, रंग, स्थान, दिशा में नहीं।
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(6) अल्लाह का “अन्नूर”—लेकिन दुनिया का रोशनी नहीं
Qur’an:
اللَّهُ نُورُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ
“अल्लाह आसमानों व ज़मीन का नूर है।”
मौला अली (अ):
“उसका नूर देखने वाली रोशनी नहीं, बल्कि हिदायत का नूर है।”
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(7) अल्लाह न पैदा हुआ, न उसने किसी को पैदा होने जैसा बनाया
Qur’an:
لَمْ يَلِدْ وَلَمْ يُولَدْ
“न वह पैदा करता है (अपने जैसा), न पैदा हुआ है।”
(8) मौला अली (अ) का तौहीद बयान — अल्लाह किसी जगह में नहीं
Arabic (Nahjul Balagha):
«لَا يُقَالُ لَهُ أَيْنَ»
“उसके बारे में ‘कहाँ है?’ नहीं पूछा जा सकता।”
क्योंकि वह हर जगह से पहले, हर स्थान का पैदा करने वाला है।
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(9) अल्लाह का “क़दीम” होना
Arabic:
«سُبْحَانَ مَنْ لَا يَزُولُ وَلاَ يَتَغَيَّرُ»
“वह पाक है जो कभी बदलता नहीं, खत्म नहीं होता।”
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(10) जिसको तुम सोचो—वह अल्लाह नहीं
Arabic:
«كُلُّ مَا تَدْرِكُهُ أَوْهَامُكُمْ فِي أَدَقِّ مَعَانِيهِ مَخْلُوقٌ مِثْلُكُمْ»
“तुम्हारी कल्पना जो भी सोच ले—वह तुम्हारी तरह एक मख़लूक है। वह अल्लाह नहीं।”
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(11) अल्लाह हर चीज़ को देखता है—लेकिन आँख से नहीं
Qur’an:
وَهُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ
“वह सुनने वाला और देखने वाला है।”
मौला अली (अ):
“वह बिना आँखों के देखता है, बिना कानों के सुनता है।”
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(12) अल्लाह का इल्म हर चीज़ पर हावी
Arabic:
«عَلِمَ مَا كَانَ وَمَا يَكُونُ»
“वह जानता है जो था, जो है और जो होने वाला है।”
यह इल्म अल्लाह का हिस्सा नहीं—उसकी ज़ात है।
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(13) अल्लाह के बारे में शक — सबसे बड़ा गुमराह
Arabic:
«شَاكٌّ فِي اللَّهِ كَافِرٌ»
“जो अल्लाह में शक करे—वह काफ़िर है।”
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(14) तौहीद का मतलब—अल्लाह को अद्वितीय मानना
Arabic:
«تَوْحِيدُهُ تَمْيِيزُهُ عَنْ خَلْقِهِ»
“तौहीद यह है कि अल्लाह को उसकी मख़लूक़ से अलग और अनोखा माना जाए।”
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(15) अल्लाह का कोई हिस्सा नहीं
Arabic:
«لَا جُزْءٌ لَهُ»
“उसका कोई हिस्सा नहीं।”
इसलिए वह शरीर, आकार, दिशा वाला नहीं।
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(16) अल्लाह के लिए समय नहीं
Arabic:
«هُوَ الَّذِي لَا يَشْمَلُهُ زَمَانٌ»
“समय उसे घेर नहीं सकता।”
वह समय का पैदा करने वाला है।
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(17) अल्लाह छुपा नहीं कि ढूँढा जाए, ज़ाहिर नहीं कि दिखे
Arabic:
«ظَاهِرٌ لَا بِرُؤْيَةٍ، بَاطِنٌ لَا بِخَفَاءٍ»
“वह ज़ाहिर है लेकिन दिखता नहीं; छुपा है लेकिन ग़ायब नहीं।”
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(18) अल्लाह के सिवा किसी में असली तौहीद नहीं
Arabic:
«الْمَعْرُوفُ مِنْهُ مَا عَرَّفَكَ نَفْسَهُ»
“अल्लाह की पहचान वही है जो उसने खुद तुम्हें बताई।”
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(19) अल्लाह की तौहीद — नबी और वली की तालीम से मिलती है
मौला अली (अ):
“अगर रसूल (स) हमें न बताते, हम अल्लाह को ना जान पाते।”
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(20) अल्लाह की मौजूदगी — हर चीज़ में उसका असर
Arabic:
«فِي كُلِّ شَيْءٍ لَهُ آيَةٌ»
“हर चीज़ में उसकी एक निशानी है।”
अर्थात दुनिया का हर ज़र्रा तौहीद की गवाही दे रहा है।
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(21) अल्लाह को देखने का मतलब — उसके असर को देखना
अली (अ):
“मैंने अपने रब को देखा—लेकिन आँखों से नहीं, दिल की रौशनी से।”
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(22) तौहीद की सबसे बड़ी दलील — उसकी कुदरत
Qur’an:
وَهُوَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
“वह हर चीज़ पर क़ादिर है।”
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(23) अल्लाह का फैसला — बिना मशवरा
Arabic:
«لَمْ يَسْتَشِرْ فِي خَلْقِهِ أَحَدًا»
“उसने अपनी मख़लूक़ को पैदा करने में किसी से मशवरा नहीं लिया।”
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(24) अल्लाह के लिए थकान, कमजोरी, आराम नहीं
Qur’an:
وَمَا مَسَّنَا مِن لُّغُوبٍ
“हमें रत्ती भर थकान नहीं पहुँची।”
अल्लाह कमजोरी से पाक है।
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(25) अल्लाह का हाथ, चेहरा — सब रूपक हैं
मौला अली (अ):
“अल्लाह के ‘हाथ’ का मतलब उसकी कुदरत है, न कि शरीर।”
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(26) तौहीद — पहली फ़र्ज़
अली (अ):
“सबसे पहला फ़र्ज़—अल्लाह को एक मानना।”
(27) तौहीद स्वीकारने वाला — दुनिया और आख़िरत का सुरक्षित
अली (अ):
“तौहीद सुरक्षित किला है; जो उसमें दाख़िल हुआ—नजात पा गया।”
(28) शिर्क — सबसे बड़ी बर्बादी
Qur’an:
إِنَّ الشِّرْكَ لَظُلْمٌ عَظِيمٌ
“शिर्क बड़ा जुल्म है।”
अली (अ):
“शिर्क ज़रा सा भी हो—ईमान को मिटा देता है।”
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(29) अल्लाह के सिवा कोई मालिक नहीं
Qur’an:
لَهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ
“आसमानों और ज़मीन की हर चीज़ उसी की है।”
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(30) मौला अली (अ) की दलील — अगर दो इलाह होते तो टकराते
Arabic:
«لَوْ كَانَ فِيهِمَا آلِهَةٌ إِلَّا اللَّهُ لَفَسَدَتَا»
“अगर आसमान और ज़मीन में अल्लाह के अलावा और इलाह होते—तो दुनिया खराब हो जाती।”
यह तौहीद की सबसे मजबूत अक़ली दलील है।
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(31) अल्लाह की रबूबियत — उसकी वजह से सब चल रहा है
अली (अ):
“एक पल के लिए उसकी रहमत रुक जाए—कायनात खत्म हो जाए।”
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(32) अल्लाह का कोई हमसफ़र नहीं, कोई मददगार नहीं
Qur’an:
وَلَمْ يَكُن لَّهُ شَرِيكٌ فِي الْمُلْكِ
“उसकी बादशाहत में कोई उसका हिस्सा नहीं।”
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(33) तौहीद का असली असर — इंसान का अंदरूनी सुकून
अली (अ):
“जिस दिल में तौहीद हो—वह हर डर से आज़ाद है।”
(34) तौहीद — अमल में भी”
अली (अ):
“अल्लाह को एक मानना—ज़बान नहीं, अमल से साबित होता है।”
(35) तौहीद का मतलब — सिर्फ़ अल्लाह की इबादत
Qur’an:
إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ
“हम सिर्फ़ तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ ही से मदद चाहते हैं।”
(36) मौला अली (अ) के अनुसार — तौहीद इंसान की ऊँचाई है
“इंसान की इज़्ज़त तौहीद में है; शिर्क में उसकी हार है।”
(37) तौहीद अल्लाह के नूर से समझ आती है
अली (अ):
“अल्लाह अपने नूर से दिलों को तौहीद सिखाता है।”
(38) तौहीद का सार — अल्लाह के सिवा कोई हाकिम नहीं
अली (अ):
“हुक्म सिर्फ़ अल्लाह का है; बाक़ी सब उसका हुक्म मानने वाले हैं।”
(39) अल्लाह की वहदानीयत — हर नबी का पैग़ाम
Qur’an:
وَمَا أَرْسَلْنَا مِن قَبْلِكَ مِن رَّسُولٍ إِلَّا نُوحِي إِلَيْهِ أَنَّهُ لَا إِلَٰهَ إِلَّا أَنَا
“हर नबी को यही कहा गया: मेरे सिवा कोई इलाह नहीं।”
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(40) मौला अली (अ) की तौहीद — इंसान को सीधा रास्ता देती है
“जो अल्लाह को एक माने—वह कभी गुमराह नहीं होता।”

दरगाह हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी
ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी जो की सुल्तान इल्तुतमिश के दौर में हिन्दुस्तान आये थे, इनका असल नाम बख्तियार ही था कुतुबुद्दीन इनका लक़ब था और काकी का लक़ब इन्हे जनता ने दे दिया था दरसल इसके पीछे भी एक कहानी है, और वो ये है की इंतहाई ग़ुरबत के बावजूद उन्होंने अपनी बीवी को मकामी दुकानदार से क्रेडिट पर सामान लेने को मना किया था इसके बजाय उन्होंने अपनी बीवी से कहा था की जब भी तुम्हें जरुरत हो घर के एक कोने से काक (एक किस्म की रोटी) उठा लो। इसके बाद उनकी बीवी ने देखा की जब भी उन्हें जरुरत पड़ती है तो मोजिज़ाना तौर पर काक नमूदार हो जाती है। जब कुछ दिन गुजर गए तो दुकानदार ने सोचा कि कहीं ख्वाजा साहब उससे नाराज हो कर तो क्रेडिट लेना बंद नहीं कर दिए। चुनांचा एक दिन दुकानदार की बीवी ने ख्वाजा साहब की बीवी से इस बारे में पूछा तो ख्वाजा साहेब की बीवी ने काक वाले मोजिज़ें के बारे में उन्हें बता दिया। उस दिन से काक तो आना बंद हो गए लेकिन लोग उन्हें काकी के नाम से जानने लगे।
एक जाने-माने बुजुर्ग होने के नाते ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने लोगों पर बड़ा ग़लबा पाया उन्होंने उस वक्त की हुकूमत के साथ नॉन इंवोल्मेंट की पॉलिसी जारी रखी। यह जुनूबी एशिया में चिश्ती बुजुर्गों का रिवायती तरीका था। क्यूंकि वो ये महसूस करते थे की हुक्मरानों और हुकूमत के साथ उनका ताअल्लुक़ दुनियावी मुआमलात की तरफ उनके जेहन को मोड़ देगा।
उनकी ज़िन्दगी में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश उनकी बहुत इज्जत करते थे। ऐसा कहा जाता है की ईंटों से बनी दुनिया की सबसे ऊँची मीनार (कुतुब मीनार) का काम मुकम्मल कराने के बाद सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे इनके नाम पर ही रखा था। उस समय इसे क़ुतुब साहिब की लाठ भी कहा जाता था। ये लोधी खानदान के भी पसंदीदा सूफी संत थे जिन्होंने 1451 से 1526 तक दिल्ली सल्तनत पर हुक्मरानी किया था।
इनकी अहमियत आज तक बरक़रार है इसका अंजादा इस तारीखी वाक़ये से भी लगाया का सकता है, की जब महात्मा गांधी ने 1948 में दिल्ली में अपना आखिरी आमरण अनशन शुरू किया, जिसमें सभी सांप्रदायिक हिंसा को हमेशा के लिए ख़त्म करने को कहा गया, तो सभी संप्रदायों के नेताओं ने उन्हें उपवास समाप्त करने के लिए दबाव डाला। उपवास खत्म करने के लिए गांधी जी ने जो छह शर्तें रखीं उनमें से एक यह थी कि हिंदुओं और सिखों को प्रायश्चित के रूप में ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह की मरम्मत करनी चाहिए, जिसे सांप्रदायिक दंगों के दौरान नुकसान पहुंचा था।
ख्वाजा बख्तियार काकी की वफ़ात के बाद जब उनकी वसीयत पढ़ी गयी थी तो उसमे इस बात पर जोर दिया गया था की सिर्फ वही शख्स उनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ा सकता है जिसने कभी हराम काम न किया हो, और न ही कभी नमाजे असर की सुन्नत को छोड़ा हो। वसीयत पढ़ने के बाद महफ़िल में एक ख़ामोशी तारी हो गयी क्यूंकि तक़रीबन हर किसी ने वसीयत में लिखी बातों पर अमल नहीं किया था, आखिर में नम आँखों के साथ सुल्तान इल्तुमिश जमात से बाहर आये और बोले मैं अपने आप को (inner self) सब पर जाहिर जाहिर नहीं करना चाहता था लेकिन ख्वाजा बख्तियार काकी की मर्जी यही चाहती है बिलआख़िर सुल्तान इल्तुतमिश ने ही इनकी नमाजे-जनाज़ा पढ़ाई क्यूंकि वह वाहिद शख्स थे जिन्होंने ख्वाजा बख्तियार काकी की वसीयत में लिखी बातों पर अमल किया था।