अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 31

मुश्रिकों को आश्चर्य, संजीदा ग़ौर व फ़िक्र और यहूदियों से सम्पर्क

उपरोक्त बात-चीत, प्रलोभन, सौदेबाज़ियों, पीछे हटने की चालों में असफलताओं के बाद मुश्किों के सामने रास्ते अंधेरे में डूब-से गए। वे परेशान थे कि अब क्या करें ? चुनांचे उनके एक शैतान नज्र बिन हारिस ने उन्हें उपदेश देते हुए कहा, कुरैश के लोगो ! अल्लाह की क़सम ! तुम पर ऐसी परेशानी आ पड़ी है कि तुम लोग अब तक उसका कोई तोड़ नहीं ला सके। मुहम्मद तुममें जवान थे तो तुम्हारे पसंदीदा आदमी थे। सबसे ज्यादा सच्चे और सबसे बढ़कर अमानतदार थे। अब जबकि उनकी कनपटियों पर सफ़ेदी दिखाई पड़ने को है (यानी अधेड़ हो चले हैं) और वह तुम्हारे पास कुछ बातें लेकर आते हैं, तो तुम कहते हो कि वह जादूगर हैं। नहीं, अल्लाह की क़सम ! वह जादूगर नहीं हैं, हमने जादूगर देखे हैं, उनकी झाड़-फूंक और गिरहबंदी भी देखी है और तुम लोग कहते हो, वह काहिन है, नहीं, अल्लाह की क़सम ! वह काहिन भी नहीं, हमने काहिन भी देखे हैं, उनकी उलटी-सीधी हरकतें भी देखी हैं और उनकी चुस्त बातें भी सुनी हैं। तुम लोग कहते हो, वह शायर (कवि) हैं, नहीं, अल्लाह की क़सम ! वह शायर भी नहीं। हमने शेर (पद) भी देखा है और शायर के हर प्रकार के काव्य भी सुने हैं। तुम लोग कहते हो, वह पागल है, नहीं, अल्लाह की क़सम ! वह पागल भी नहीं, हमने पागलपन भी देखा है, उनके यहां न इस तरह की घुटन है, न वैसी बहकी-बहकी बातें और न उनके जैसी उलटी-सीधी हरकतें। कुरैश के लोगो ! सोचो, अल्लाह की क़सम ! तुम पर ज़बरदस्त परेशानी आ पड़ी है।

ऐसा मालूम होता है कि जब उन्होंने देखा कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हर चुनौती का डटकर सामना कर रहे हैं, आपने सारे प्रलोभनों पर लात मार दिया है और हर मामले में बिल्कुल खरे और ठोस साबित हुए हैं, जबकि सच्चाई, पाकदामनी और नैतिक मूल्य भी उनके जीवन में पूरी तरह पाये जाते हैं, तो उनका यह सन्देह ज़्यादा पक्का हो गया कि आप वाक़ई सच्चे रसूल इसलिए उन्होंने फ़ैसला किया कि यहूदियों से सम्पर्क बनाकर आपके बारे में ज़रा अच्छी तरह इत्मीनान हासिल कर लिया जाए। हैं,

चुनांचे जब नज्ज्र बिन हारिस ने उपरोक्त उपदेश दिया तो क़ुरैश ने खुद उसी को ज़िम्मेदार बनाया कि वह एक या कुछ आदमियों के साथ लेकर मदीना के यहूदियों के पास जाए और उनसे आपके मामले की जांच-पड़ताल करे। चुनांचे वह मदीना आया तो यहूदी उलेमा ने कहा कि उससे तीन बातों का सवाल करो, अगर वह बता दे, तो भेजा हुआ नबी है, वरना सिर्फ़ बातें बनाने वाला। उससे पूछो कि पिछले दौर में कुछ नवजवान गुज़रे हैं, उनका क्या क़िस्सा है ? क्योंकि उनकी बड़ी विचित्र घटना है और उससे पूछो कि एक आदमी ने ज़मीन को पूरब व पश्चिम के चक्कर लगाए, उसकी क्या ख़बर है? और उससे पूछो कि रूह क्या है ?

इसके बाद नज्र बिन हारिस मक्का आया, तो उसने कहा कि मैं तुम्हारे और मुहम्मद के दर्मियान एक निर्णायक बात लेकर आया हूं। इसके साथ ही उसने यहूदियों की कही हुई बात बताई। चुनांचे कुरैश ने आपसे तीनों बातों का सवाल किया। कुछ दिनों बाद सूरः कफ़ उतरी, जिसमें उन नवजवानों का और उस चक्कर लगाने वाले आदमी का क़िस्सा बयान किया गया था। नवजवान अस्हाबे कफ़ थे और वह ज़ुलकरनैन था। रूह के बारे में जवाब सूर: इसरा में उतरा। इससे कुरैश पर यह बात स्पष्ट हो गई कि आप सच्चे पैग़म्बर हैं, लेकिन उन ज़ालिमों ने कुर और इंकार का ही रास्ता अपनाया।

मुश्रिकों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दावत का जिस ढंग से मुक़ाबला किया था, यह उसकी एक संक्षिप्त रूप-रेखा है। उन्होंने ये सारे क़दम पहलू-ब-पहलू उठाए थे। वे एक ढंग से दूसरे ढंग और एक पद्धति से दूसरे पद्धति की ओर आगे बढ़ते रहते थे, सख्ती से नर्मी की तरफ़ और नम से सख्ती की तरफ़, झगड़े से सौदेबाज़ी की तरफ़ और सौदेबाज़ी से झगड़े की तरफ़, धमकी से प्रलोभन की तरफ़ और प्रलोभन से धमकी की तरफ़, कभी भड़कते और कभी नर्म पड़ जाते, कभी झगड़ते और कभी चिकनी- चिकनी बातें करने लगते, कभी मरने-मारने पर उतर आते और कभी खुद अपने दीन (धर्म) से हाथ खींच लेते, कभी गरजे-बरसते और कभी दुनिया के सुख-वैभव की पेशकश करते, न उन्हें किसी पहलू क़रार था, न किनारा अपनाना ही पसन्द करते थे और इन सबका अभिप्राय यही था कि इस्लामी दावत विफल हो जाए और कुपर का बिखराव फिर से जुड़ जाए, लेकिन इन सारी कोशिशों और सारे हीलों के बाद भी वे नाकाम ही रहे और उनके सामने सिर्फ़ एक ही रास्ता रह गया और वह था

1. इब्ने हिशाम, 1/299, 300, 301

तलवार । मगर ज़ाहिर है तलवार से मतभेद में तेज़ी ही आती बल्कि आपसी खून-खराबा का ऐसा सिलसिला चल पड़ता जो पूरी क़ौम को ले डूबता, इसलिए मुश्कि हैरान थे कि वे क्या करें।

अबू तालिब और उनके ख़ानदान की सोच

लेकिन जहां तक अबू तालिब का ताल्लुक़ है, तो जब उनके सामने कुरैश की यह मांग आई कि वे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को क़त्ल करने के लिए उनके हवाले कर दें और उनकी गतिविधियों में ऐसी निशानी देखी जिससे यह डर पक्का होता था कि वह अबू तालिब के प्रण और सुरक्षा की परवाह किए बग़ैर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को क़त्ल करने का तहैया किए बैठे हैं, जैसे उक़्बा बिन अबी मुऐत, अबू जहल बिन हिशाम और उमर बिन खत्ताब के उठाए जा रहे क़दम – तो उन्होंने अपने परदादा अब्दे मुनाफ़ के दो सुपुत्रों हाशिम और मुत्तलिब से अस्तित्व में आने वाले परिवारों को जमा किया और उन्हें दावत दी कि वे सब मिलकर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुरक्षा का काम अंजाम दें।

अबू तालिब की यह बात अरबी हमीयत (पक्षपात) की दृष्टि से इन दोनों परिवारों के सारे मुस्लिम और काफ़िर लोगों ने मान ली और इस पर खाना काबा के पास प्रतिज्ञा की, अलबत्ता सिर्फ़ अबू तालिब का भाई अबू लब एक ऐसा व्यक्ति था जिसने यह बात मंजूर न की और सारे खानदान से अलग होकर कुरैश के मुश्किों के साथ रहा। 1

1. इब्ने हिशाम 1/269

मुकम्मल बाइकाट

अत्याचार का संकल्प

जब मुश्किों के तमाम हीले-बहाने ख़त्म हो गए और उन्होंने यह देखा कि बनू हाशिम और बनू मुत्तलिब हर हाल में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुरक्षा और बचाव का पक्का इरादा किए बैठे हैं, तो वे चकित रह गए और अन्त में मुहस्सब घाटी में खैफ बनी कनाना के अंदर जमा होकर और आपस में बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब के खिलाफ़ यह संकल्प लिया कि न उनसे शादी-ब्याह करेंगे, न क्रय-विक्रय करेंगे, न उनके साथ उठे-बैठेंगे, न उनसे मेल-जोल रखेंगे, न उनके घरों में जाएंगे, न उनसे बातचीत करेंगे, जब तक कि वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़त्ल करने के लिए उनके हवाले न कर दें।

मुश्रिकों ने इस बाइकाट की दस्तावेज़ के तौर पर एक कागज लिखा, जिसमें इस बात का संकल्प लिया गया था कि वे बनी हाशिम की ओर से कभी भी किसी समझौते की बात न करेंगे, न उनके साथ किसी तरह की नर्मी दिखाएंगे, जब तक कि वे अल्लाह के रसूल सल्ल० को क़त्ल करने के लिए मुश्किों के हवाले न कर दें।

इब्ने क़य्यिम कहते हैं कि कहा जाता है कि यह लेख मंसूर बिन इक्रिमा बिन आमिर बिन हाशिम ने लिखा था और कुछ के नज़दीक नज्ज्र बिन हारिस ने लिखा था, लेकिन सही बात यह है कि लिखने वाला बग़ीज़ बिन आमिर बिन हाशिम था ।

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस पर बद-दुआ की और उसका हाथ बेकार हो गया।’

बहरहाल यह संकल्प ले लिया गया और काग़ज़ खाना काबा पर लटका दिया गया। इसके नतीजे में अबू लहब के सिवा बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब के सारे लोग, चाहे मुसलमान रहे हों या ग़ैर-मुसलमान सिमट-सिमटाकर शेबे अबी तालिब में क़ैद हो गये।

1. ज़ादुल मआद 2/46, बाइकाट के विषय पर देखिए सहीह बुखारी मय फ़हुल बारी 3/529, हदीस न० 1589, 1590, 3882, 4284, 4285, 7479,


यह नबी सल्ल० के पैग़म्बर बनाए जाने के सातवें साल मुहर्रम की चांद रात की घटना है।

तीन साल शेबे अबी तालिब की घाटी में

इस बाइकाट के नतीजे में हालात बड़े संगीन हो गए। अनाज और खाने-पीने के सामान का आना बन्द हो गया, क्योंकि मक्का में जो अनाज या सामान आता था, उसे मुश्कि लपक कर खरीद लेते थे, इसलिए क़ैदियों की हालत बड़ी पतली हो गई। उन्हें पत्ते और चमड़े खाने पड़े। लोगों के भूख का हाल यह था कि भूख से बिलखते हुए बच्चों और औरतों की आवाज़ें घाटी के बाहर सुनाई पड़ती थीं, उनके पास मुश्किल ही से कोई चीज़ पहुंच पाती थी, वह भी छिप छिपाकर । वे लोग हुर्मत वाले महीनों के अलावा बाक़ी दिनों में ज़रूरत की चीज़ों की खरीद के लिए घाटी से बाहर निकलते भी न थे। वे अगरचे उन क़ाफ़िलों से सामान खरीद सकते थे जो बाहर से मक्का आते थे, लेकिन उनके सामान के साथ भी मक्का वाले इतना बढ़ाकर खरीदने को तैयार हो जाते थे कि घिरे हुए कैदियों के लिए कुछ खरीदना मुश्किल हो जाता था ।

हकीम बिन हिज़ाम, जो हज़रत खदीजा रज़ियल्लाहु अन्हा का भतीजा था, कभी-कभी अपनी फूफी के लिए गेहूं भिजवा देता था। एक बार अबू जहल का सामना हो गया, वह अनाज रोकने पर अड़ गया, लेकिन अबुल बख्तरी ने हस्तक्षेप किया और उसे अपनी फूफी के पास गेहूं भिजवाने दिया ।

उधर अबू तालिब को अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बारे में बराबर ख़तरा लगा रहता था, इसलिए जब लोग अपने-अपने बिस्तरों पर जाते, तो वह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहते कि तुम अपने बिस्तर पर सोए रहो। मक़सद यह होता कि अगर कोई व्यक्ति आपको क़त्ल करने की नीयत रखता हो, तो देख ले कि आप कहां सो रहे हैं। फिर जब लोग सो जाते तो अबू तालिब आपकी जगह बदल देते यानी अपने बेटों, भाइयों या भतीजों में से किसी को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बिस्तर पर सुला देते और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहते कि बिस्तर पर चले जाओ । तुम उसके

इस क़ैद व बन्द के बावजूद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और दूसरे मुसलमान हज के दिनों में बाहर निकलते थे और हज के लिए आने वालों से मिलकर उन्हें इस्लाम की दावत देते थे। इस मौक़े पर अबू लहब की जो हरकत हुआ करती थी, उसका उल्लेख पिछले पृष्ठों में हो चुका है। ।


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