
हज़रत अबू फ़कीह, जिनका नाम अफ़लह था, यह असल में क़बीला उज़्द से थे। और बनू अब्दुद्दार के गुलाम थे। उनके पांवों में लोहे की बेड़ियां डालकर दोपहर की सख्त गर्मी में बाहर निकालते और जिस्म से कपड़े उतार कर तपती हुई ज़मीन पर पेट के बल लिटा देते और पीठ पर भारी पत्थर रख देते कि हरकत न कर सकें। वह इसी तरह पड़े-पड़े होश व हवास खो बैठते। उन्हें इसी तरह की सजाएं दी जाती रहीं, यहां तक कि हब्शा की दूसरी हिजरत में वह भी हिजरत कर गए। एक बार मुश्किों ने उनका पांव रस्सी में बांधा और घसीट कर तपती हुई ज़मीन पर डाल दिया, फिर इस तरह गला दबा दिया कि समझे वह मर गए हैं। इसी दौरान हज़रत अबूबक्र रज़ि० का गुज़र हुआ, उन्होंने खरीद कर अल्लाह के लिए आज़ाद कर दिया।
हज़रत खब्बाब बिन अरत क़बीला खुज़ाआ की एक औरत उम्मे अम्मार के एक ग़ुलाम थे और लोहारी का काम करते थे। मुसलमान हुए तो उनकी मालकिन उन्हें आग से जलाने की सज़ा देती। वह लोहे का गर्म टुकड़ा लाती और उनकी पीठ या सर पर रख देती, ताकि वह मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ कुपर करें, मगर इससे उनके ईमान और तस्लीम व रज़ा में और बढ़ोत्तरी होती। मुश्किीन भी तरह-तरह की सज़ाएं देते, कभी सख्ती से गरदन मरोड़ते, तो कभी सर के बाल नोचते। एक बार तो उन्हें धधकते अंगारो पर डाल दिया, फिर उस पर घसीटा और दबाए रखा, यहां तक कि उनकी पीठ की चरबी से आग बुझी । 2
हज़रत ज़मीरह रूमी लौंडी थी, मुसलमान हुईं तो उन्हें अल्लाह की राह में सज़ाएं दी गईं। इत्तिफ़ाक़ से उनकी आंखें जाती रहीं। मुश्किों ने कहा, देखो, तुम पर लात व उज़्ज़ा की मार पड़ गई है। उन्होंने कहा, नहीं, अल्लाह की क़सम ! यह लात व उज़्ज़ा की मार नहीं है, बल्कि यह अल्लाह की ओर से है अगर वह चाहे तो दोबारा बहाल कर सकता है, फिर अल्लाह का करना ऐसा हुआ कि दूसरे दिन निगाग पलट आई। मुश्कि कहने लगे, यह मुहम्मद का जादू है 13
उम्मे अबीस बनू ज़ोहरा की लौंडी थीं। वह इस्लाम लाईं तो मुश्रिकों ने उन्हें भी सजाएं दीं, मुख्य रूप से उनका मालिक अस्वद बिन अब्दे यगूस उन्हें सजाऐं
1. असदुल ग़ाबा 5/248, अल-इसाबा 7, 8/152, तलक़ीहुल फ़हूम पृ० 60 वग़ैरह। 2. असदुल ग़ाबा 1/591, 593, तलकीहुम फ़हूम पृ० 5 वग़ैरह 3. तबक़ाते इब्ने साद 8/256, इब्ने हिशाम, 1/318,
देता । वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का बड़ा कट्टर दुश्मन था और आपका मज़ाक़ उड़ाया करता था। 1
बनू अदी के उमैर बिन सोयल की लौंडी मुसलमान हुईं तो उमर बिन खत्ताब उन्हें सज़ाएं देते, वह अभी मुसलमान नहीं हुए थे। उन्हें इतना मारते कि मारते-मारते थक जाते, फिर छोड़कर कहते, अल्लाह की क़सम ! मैंने तुझे किसी मुरव्वत की वजह से नहीं, बल्कि सिर्फ़) थक कर छोड़ा है। वह कहती, तेरे साथ तेरा परवरदिगार भी ऐसा ही करेगा। 2
हज़रत नहदिया और उनकी बेटी भी बनू अब्दुद्दार की एक औरत की लौंडी थीं। इस्लाम ले आईं तो उन्हें भी सज़ाओं से दोचार होना पड़ा।
गुलामों में आमिर बिन फ़ुहैरा भी थे। इस्लाम लाने पर उन्हें भी इतनी सजाएं दी जाती कि वह अपने होश व हवास खो बैठते और उन्हें यह पता न चलता कि क्या बोल रहे हैं। रज़ियल्लाहु अन्हुम व अन्हुन-न अजमईन०
हज़रत अबूबक्र रज़ियल्लाहु अन्हु ने इन खरीद कर आज़ाद कर दिया। इस पर उनके बाप अबू क़हाफ़ा उन पर गुस्सा हुए कहने लगे (बेटे !) मैं तुम्हें देखता हूं कि कमज़ोर गरदनें आज़ाद कर रहे हो, मज़बूत लोगों को आज़ाद करते तो वे तुम्हारा बचाव भी करते। उन्होंने कहा, मैं अल्लाह की रिज़ा चाहता हूं, इस पर अल्लाह ने कुरआन उतारा। हज़रत अबूबक्र रज़ि० की प्रशंसा की और उनके दुश्मनों की निंदा की। फ़रमाया, ‘मैंने तुम्हें भड़कती हुई आग से डराया है, जिसमें वही बद-बख्त दाखिल होगा जिसने झुठलाया और पीठ फेरी। इससे मुराद उमैया बिन खल्फ़ और उसके साथी हैं, फिर फ़रमाया, ‘और उस आग से वह परहेज़गार आदमी दूर रखा जाएगा जो अपना माल पाकी हासिल करने के लिए खर्च कर रहा है। उस पर किसी का एहसान नहीं है, जिसका बदला दिया जा रहा हो, बल्कि सिर्फ़ अपने बुज़ुर्ग रब की मर्ज़ी की तलब रखता है। इससे मुराद हज़रत अबूबक्र रज़ियल्लाहु अन्हु हैं।
सारे गुलामों और लौंडियों को हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रज़ि० को भी पीड़ा दी गई। उन्हें और उनके साथ
1. 4. इब्ने हिशाम 1/318, 319, तबक़ाते इब्ने साद 8/256 5. इब्ने हिशाम 1/318, 319, तबक़ाते इब्ने साद 8/256, कुतुबे तफ़्सीर, ज़िक्र की गई आयत
अल-इसाबा 7, 8/258,
2. इब्ने हिशाम 1/319, तबक़ात इब्ने साद 8/256,
3. इब्ने हिशाम 1/318, 319,
तलहा बिन उबैदुल्लाह को नौफुल बिन खुवैलद ने पकड़ कर एक ही रस्सी में बांध दिया, ताकि उन्हें नमाज़ न पढ़ने दे, बल्कि दीने इस्लाम से भी बाज़ रखे । मगर उन्होंने उसकी बात न सुनी। इसके बाद उसे यह देखकर हैरत हुई कि वे दोनों बन्धन से आज़ाद और नमाज़ में लगे हुए हैं। इस वाक़िए के बाद इन दोनों को क़रीनैन—एक साथ बंधे हुए—कहा जाता था। कहा जाता है कि यह काम नौफुल के बजाए तलहा बिन उबैदुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु के भाई उस्मान बिन उबैदुल्लाह ने किया था। 1
सार यह कि मुश्किों को जिस किसी के बारे में भी मालूम हुआ कि वह मुसलमान हो गया है तो उसको पीड़ा ज़रूर पहुंचाई और कमज़ोर मुसलमानों, मुख्य रूप से गुलामों और लौंडियों के बारे में यह काम आसान भी था, क्योंकि कोई न था, जो उनके लिए गुस्सा होता और उनकी हिमायत करता, बल्कि उनके सरदार और मालिक उन्हें खुद ही सजाएं देते थे और बदमाशों को भी उभारते थे अलबत्ता बड़े लोगों और अशराफ़ में से कोई मुसलमान होता तो उसको पीड़ा पहुंचाना ज़रा आसान न होता, क्योंकि वह अपनी क़ौम की हिफ़ाज़त और बचाव में होता। इसलिए ऐसे लोगों पर खुद उनके अपने क़बीले के अशराफ़ के सिवा कम ही कोई जुर्रत करता था, वह भी बहुत बच-बचाकर और सोच-समझ कर ।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बारे में मुश्रिकों की सोच
जहां तक अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मामले का ताल्लुक़ है, तो यह बात याद रखनी चाहिए कि आप रौब व दबदबा और वक़ार की मालिक शख्सियत थे। दोस्त-दुश्मन सभी आपका आदर करते थे। आप जैसी शख्सियत का सामना मान-सम्मान ही से किया जा सकता था और आपके खिलाफ़ किसी नीच और ज़लील हरकत की जुर्रात कोई नीच और मूर्ख ही कर `सकता था। इस जाती महानता के अलावा आपको अबू तालिब की हिमायत और हिफ़ाज़त भी हासिल थी और अबू तालिब मक्का के उन गिने-चुने लोगों में से थे, जो अपनी जाती और इज्तिमाई दोनों हैसियतों से इतने महान थे कि कोई आदमी बड़ी मुश्किल से हज़रत मुहम्मद को सताने और उन पर हाथ डालने की हिम्मत कर सकता था। इस स्थिति ने कुरैश को सख्त परेशानी और मुश्किल से दोचार कर रखा था जिसका तक़ाज़ा था कि नापसन्दीदा दायरे में पड़े बग़ैर इस मुश्किल
1. उसदुल ग़ाबा 2/468
से निकलने के लिए संजीदगी से ग़ौर करें। आखिरकार उन्हें यह रास्ता समझ में आया कि सबसे बड़े ज़िम्मेदार अबू तालिब से बात-चीत करें, लेकिन हिक्मत और दानाई के साथ और किसी क़दर चुनौती और खुफिया धमकी लिए हुए, ताकि जो बात कही जाए, उसे वे मान लें।
कुरैश का प्रतिनिधिमंडल अबू तालिब की ख़िदमत में
इब्ने इस्हाक़ कहते हैं कि कुरैश के कुछ अशराफ़ अबू तालिब के पास गए और बोले, ऐ अबू तालिब ! आपके भतीजे ने हमारे माबूदों (उपास्यों) को बुरा-भला कहा है। हमारे दीन में कीड़े निकाले हैं, हमारी अक्लों को मूर्खता का मारा हुआ कहा है और हमारे बाप-दादा को गुमराह क़रार दिया है, इसलिए या तो आप इन्हें इससे रोक दें या हमारे और इनके दर्मियान से हट जाएं, क्योंकि आप भी हमारी ही तरह इनसे अलग दीन पर हैं, हम इनके मामले में आपके लिए भी काफ़ी रहेंगे।
इसके जवाब में अबू तालिब ने नर्म बात कही और उदारता का सुबूत दिया । चुनांचे वे वापस चले गए और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने तरीक़े पर चलते रहे और अल्लाह का दीन फैलाने और उसका प्रचार करने में लगे रहे। 1
अबू तालिब को कुरैश की धमकी
इस फ़ैसले के बाद कुरैश के सरदार अबू तालिब के पास फिर हाज़िर हुए और बोले, अबू तालिब ! आप हमारे अन्दर बड़े बुजुर्ग और मान-सम्मान वाले आदमी हैं। हमने आपसे गुज़ारिश की थी कि आप अपने भतीजे को रोकिए, लेकिन आपने नहीं रोका। आप याद रखें, हम इसे सहन नहीं कर सकते कि हमारे बाप-दादाओं को गालियां दी जाएं, हमारी अक़्ल व समझ को मूर्खता कहा जाए और हमारे माबूदों में ऐब निकाले जाएं, आप रोक दीजए वरना हम आपसे और उनसे ऐसी लड़ाई लड़ेंगे कि एक फ़रीक़ का सफ़ाया होकर रहेगा।
अबू तालिब ने पुकारा और सामने तशरीफ़ लाए तो कहा, भतीजे ! जाओ, जो चाहे करो। खुदा की क़सम ! मैं तुम्हें कभी भी किसी भी वजह से नहीं छोड़ सकता। और ये पद पढ़े-
‘खुदा की क़सम ! वे लोग तुम्हारे पास अपने जत्थ सहित भी हरगिज़ नहीं पहुंच सकते, यहां तक कि मिट्टी में दफ़न कर दिया जाऊं। तुम अपनी बात खुल्लम खुल्ला कहो। तुम पर कोई पाबंदी नहीं, तुम खुश हो जाओ और तुम्हारी आंखें इससे ठंडी हो जाएं।
इब्ने हिशाम 1/256,




