
अर-रहीकुल मख़्तूम
पहला मरहला
अल्लाह की तरफ़ दावत (बुलाना)
ख़ुफ़िया दावत के तीन साल
सूरः मुद्दस्सिर की पिछली आयतों के आने के बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह की तरफ़ लोगों को बुलाने के लिए उठ गए। चूंकि आपकी क़ौम जफ़ाकार थी, बुतपरस्ती और दरगाह परस्ती उसका दीन था, बाप-दादा की रीति उसकी दलील थी, गर्व, दंभ, अहंकार और इंकार उसका चरित्र था और तलवार उसकी समस्याओं का साधन थी। इसके अलावा अरब प्रायद्वीप में धार्मिक गुरु के रूप में उसकी मान्यता थी, उसके असल केन्द्र पर क़ाबिज़ और उसके वजूद के निगरां थे, इसीलिए ऐसी स्थिति में हिक्मत का तक़ाज़ा था कि पहले पहल दावत व तब्लीग़ का काम परदे के पीछे रहकर अंजाम दिया जाए, ताकि मक्का वालों के सामने अचानक एक हलचल पैदा करने वाली स्थिति न आ जाए।
शुरू के इस्लामी साथी
यह बिल्कुल स्वाभाविक था कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सबसे पहले उन लोगों के सामने इस्लाम पेश करते, जिनसे आपका गहरा संपर्क और संबंध था, यानी अपने घर के लोगों और दोस्तों के सामने। चुनांचे सबसे पहले आपने उन्हीं को दावत दी। इस तरह आपने शुरू में अपनी जान-पहचान के उन लोगों को सत्य की ओर बुलाया जिनके चेहरों पर आप भलाई के चिह्न देख चुके थे और यह जान चुके थे कि वे सत्य और भलाई को पसन्द करते हैं, आपकी सच्चाई और अमानतदारी को जानते हैं। फिर आपने जिन्हें इस्लाम की दावत दी, उनमें से एक ऐसे वर्ग ने, जिसे कभी भी अल्लाह के रसूल सल्ल० की महानता, महत्ता और सत्यता पर सन्देह नहीं हुआ था, आपकी बात मान ली। यह इस्लामी इतिहास में ‘सबसे पहले के लोग’ माने जाते हैं। इनकी सूची में सबसे ऊपर आपकी बीवी हज़रत खदीजा बिन्त खुवैलद, आपके आज़ाद किए हुए दास हज़रत जैद बिन हारिसा बिन शुरहबील कलबी रजि०’,
1. यह लड़ाई में कैद होकर दास बना लिए गए थे, बाद में हज़रत खदीजा रज़ि० उनकी मालिक हुई और उन्हें अल्लाह के रसूल सल्ल० को भेंट कर दिया।
इसके बाद उनक ेआपके चचेरे भाई हज़रत अली बिन अबू तालिब और आपकी परवरिश में थे, और आपके पक्के साथी हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रजि० हैं। ये सबके सब पहले ही दिन मुसलमान हो गए थे। इसके बाद अबूबक्र रज़ि० इस्लाम की तब्लीग़ में सरगर्म हो गए। वे बड़े लोकप्रिय, नम्र हृदय, पसन्दीदा आदतों वाले, सच्चरित्र और सखी-दाता थे। उनके पास उनकी मुरव्वत, दूरदर्शिता, व्यापार और सत्संग की वजह से लोगों का आना-जाना लगा रहता था, चुनांचे उन्होंने अपने पास आने-जाने वालों और उठने-बैठने वालों में से जिसको विश्वसनीय पाया, उसे अब इस्लाम की दावत देनी शुरू कर दी। उनकी कोशिश से हज़रत उस्मान रज़ि०, हज़रत जुबैर रज़ि०, हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रज़ि०, हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास रजि० और हज़रत तलहा बिन उबैदुल्लाह रज़ि० मुसलमान हुए। ये बुज़ुर्ग इस्लाम का अगला दस्ता थे।
उनके बाद अमीने उम्मत’ हज़रत अबू उबैदा आमिर बिन जर्राह रजि०, अबू सलमा बिन अब्दुल असद मख्ज़ूमी, उनकी बीवी अरक़म बिन अबी अरकम, उस्मान बिन मज़ऊन और उनके दोनों भाई क़दामा और अब्दुल्लाह और उबैदा बिन हारिस बिन मुत्तलिब बिन अब्दे मुनाफ़, सईद बिन ज़ैद अदवी और उनकी बीवी यानी हज़रत उमर रजि० की बहन फातमा बिन्त खत्ताब अदवीया और खब्बाब बिन अरत्त तमीमी, जाफ़र बिन अबी तालिब, उनकी बीवी अस्मा बिन्त अमीस, खालिद बिन सईद बिन आस उमवी, उनकी बीवी अमीना बिन्त खल्फ़ औरउनके भाई अम्र बिन सईद बिन आस, हातिब बिन हारिस जुमही, उनकी बीवी फ़ातिमा बिन्त मुजल्लल और उनके भाई खत्ताब बिन हारिस और उनकी बीवी फ़सीहा बिन्त यसार और उनके एक और भाई मामर बिन हारिस, मुत्तलिब बिन अज़हर ज़ोहरी और उनकी बीवी ज़मला बिन्त अबी उर्फ और नईम बिन अब्दुल्लाह बिन सहाम अदवी मुसलमान हुए। ये सभी कुरैश क़बीला के
पिता और चचा उन्हें घर ले जाने के लिए आए, लेकिन उन्होंने बाप और चचा को छोड़कर अल्लाह के रसूल सल्ल० के साथ रहना पसन्द किया। इसके बाद आपने अरब रिवाज के मुताबिक उन्हें अपना लयपालक बना लिया और उन्हें ज़ैद बिन मुहम्मद कहा जाने लगा, यहां तक कि इस्लाम ने इस रस्म को जड़ से काट दिया। यह मूता की लड़ाई में जुमादला ऊला सन् 08 हि० में सेनापति की हैसियत से लड़ते-लड़ते शहीद हुए।
1. रहमतुललिल आलमीन 1/50
2. इस उपाधि से याद किए जाने की वजह के लिए देखिए सहीह बुखारी, मनाकिब अबी उबैदा बिन जर्राह 1/230
अलग-अलग परिवारों और शाखाओं से ताल्लुक रखते थे।
कुरैश के बाहर से जो लोग पहले पहल इस्लाम लाए, उनमें सूची के शुरू में ये हैं-
अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद हज़ली, मसऊद बिन रबीआ तमारी, अब्दुल्लाह बिन जहश असदी, उनके भाई अहमद बिन जहरा, बरा बिन रवाह हब्शी, सुहैब बिन सनान रूमी, अम्मार बिन यासिर अनसी, उनके वालिद यासिर और मां सुमैया और आमिर बिन फुहैरा औरतों में ऊपर वाली औरतों के अलावा जो पहले-पहले इस्लाम ले आईं, उनके नाम ये हैं-
उम्मे ऐमन बरक़ा हब्शीया, हज़रत अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब की बीवी, उम्मुल फ़ज़्ल लुबाबतुल कुबरा बिन्त हारिस हिलालिया और हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु की साहबज़ादी हज़रत अस्मा।’
ये सभी ‘साबिकूनल अव्वलीन’ की उपाधि से जाने जाते हैं। छान-बीन से मालूम हुआ है कि जो लोग इस्लाम की तरफ़ पहल करने के गुण से जाने जाते हैं, उनकी तायदाद मर्दों और औरतों को मिलाकर एक सौ तीस तक पहुंच जाती है, लेकिन यह बात पूरे विश्वास से नहीं मालूम हो सका कि ये सब खुली दावत व तब्लीग़ से पहले इस्लाम लाए या कुछ लोग बाद के हैं।
इब्ने इस्हाक़ का बयान है कि इसके बाद मर्द और औरतें इस्लाम में गिरोह गिरोह करके दाखिल हुए, यहां तक कि मक्का में इस्लाम की चर्चा फैल गई
ये लोग छिप-छिपाकर मुसलमान हुए थे और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भी छिप-छिपाकर ही उनके मार्गदर्शन और धार्मिक शिक्षा के लिए उनके साथ जमा होते थे, क्योंकि तब्लीग़ का काम अभी तक व्यक्तिगत रूप से छिप-छिपाकर ही चल रहा था। इधर सूरः मुद्दस्सिर की शुरू की आयतों के बाद वह्य का आना बराबर और तेज़ी के साथ जारी था। इस दौर में छोटी-छोटी आयतें उतर रही थीं। इन आयतों का अन्त एक ही प्रकार के बड़े चित्ताकर्षक शब्दों में होता था और उनमें बड़ा शान्तिदायी और मनमोहक संगीत होता था जो उस शांत और हृदय को छू लेने वातावरण के अनुसार ही होता था, फिर इन आयतों में मनोनिग्रह के गुण और दुनिया की गन्दगी में लत-पत होने की बुराइयां
1. विस्तृत विवेचन के लिए देखिए सीरत इब्ने हिशाम 1/245, 262 इब्ने हिशाम के कुछ उल्लिखित नाम विचारणीय हैं। मैंने ऐसे नामों को छोड़ दिया है। 2. सीरत इब्ने हिशाम 1/262
बयान की जाती थीं और जन्नत व जहन्नम का चित्र इस तरह खींचा जाता था कि मानो वे आंखों के सामने हैं। ये आयतें ईमान वालों को उस वक़्त के इंसानी समाज से बिल्कुल अलग एक दूसरी ही दुनिया की सैर कराती थीं ।
नमाज़
शुरू में जो कुछ उतरा, उसी में नमाज़ का हुक्म भी था।
इब्ने हजर कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और इसी तरह. आपके सहाबा किराम मेराज के वाक़िए से पहले क़तई तौर पर नमाज़ पढ़ते थे, अलबत्ता इसमें मतभेद है कि पांच वक़्त की नमाज़ से पहले कोई नमाज़ फ़र्ज़ थी या नहीं? कुछ लोग कहते हैं कि सूरज के उगने और डूबने से पहले एक-एक नमाज़ फ़र्ज़ थी ।
हारिस बिन उसामा ने इब्ने लहीआ की ओर से मिली हज़रत ज़ैद बिन हारिसा रज़ि० से यह हदीस रिवायत की है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर शुरू-शुरू में जब वह्य आई, तो आपके पास हज़रत जिब्रील तशरीफ़ लाए और आपको वुज़ू का तरीक़ा सिखाया ।
इब्ने माजा ने भी इसी अर्थ में हदीस रिवायत की है।
बरा बिन आज़िब और इब्ने अब्बास रजि० से भी इसी तरह की हदीस रिवायत की गई है। इब्ने अब्बास रजि० की हदीस में भी इसका ज़िक्र है कि यह (नमाज़) शुरू के फ़र्ज़ी में से थी।
इब्ने हिशाम का बयान है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और सहाबा किराम रजि० नमाज़ के वक़्त घाटियों में चले जाते थे और अपनी क़ौम से छिपकर नमाज़ पढ़ते थे।
एक बार अबू तालिब ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और हज़रत अली रज़ि० को नमाज़ पढ़ते देख लिया, पूछा और सच्चाई मालूम हुई तो कहा कि इस पर बरक़रार रहें।
यह इबादत थी, जिसका हुक्म ईमान वालों को दिया गया था। उस वक़्त नमाज़ के अलावा और किसी बात के हुक्म का पता नहीं चलता, अलबत्ता वह्य के ज़रिए तौहीद के अलग-अलग पहलू बयान किए जाते थे, नफ़्स पाक करने का चाव दिलाया जाता था। अच्छे अख्लाक़ पर उभारा जाता था। जन्नत व जहन्नम
1. मुख्तसरुस्सीरत, शेख अब्दुल्लाह, पृ० 88 इब्ने हिशाम 1/247
का नक्शा इस तरह खींचा जाता था गोया वे आंखों के सामने हैं। ऐसे असरदार वाज होते थे जिनसे सीने खुल जाते, रूहें आसूदा हो जातीं और ईमान वाले उस वक़्त के इंसानी समाज से अलग एक दूसरी ही फ़िज़ा की सैर करने लगते ।
यों तीन वर्ष बीत गए और दावत व तब्लीग़ का काम केवल व्यक्तियों तक सीमित रहा। मज्मों और मज्लिसों में उसका एलान नहीं किया गया, लेकिन इस बीच यह कुरैश के अन्दर खासी मशहूर हो गई। मक्का में इस्लाम का ज़िक्र फैल गया और लोगों में इसका चर्चा हो गया। कुछ ने किसी-किसी वक़्त मना भी किया और कुछ ईमान वालों पर सख्ती भी हुई, लेकिन कुल मिलाकर इस दावत को कोई खास अहमियत नहीं दी गई, क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी उनके दीन से कोई छेड़-छाड़ न की थी, न उनके माबूदों के बारे में जुबान खोली थी।

