अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 13

एक ज़मज़म के कुएं की खुदाई की घटना, और दूसरी हाथी की घटना ।

ज़मज़म के कुंएं की खुदाई

पहली घटना का सार यह है कि अब्दुल मुत्तलिब ने सपना देखा कि उन्हें ज़मज़म का कुंवां खोदने का हुक्म दिया जा रहा है और सपने ही में उन्हें उसकी जगह भी बताई गई। उन्होंने जागने के बाद खुदाई शुरू की और धीरे-धीरे वे चीजें बरामद हुईं जिन्हें बनू जुरहुम ने मक्का छोड़ते वक़्त ज़मज़म के कुएं में गाड़ दी थीं अर्थात तलवारें, कवच और सोने के दोनों हिरन । अब्दुल मुत्तलिब ने तलवारों से काबे का दरवाज़ा ढाला। सोने के दोनों हिरन भी दरवाज़े ही में फिट किए और हाजियों को ज़मज़म पिलाने की व्यवस्था की।

खुदाई के दौरान यह घटना भी घटी कि जब ज़मज़म का कुंवां प्रकट हो गया तो कुरैश ने अब्दुल मुत्तलिब से झगड़ा शुरू किया और मांग की कि हमें भी खुदाई में शरीक कर लो। अब्दुल मुत्तलिब ने कहा, मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं इस काम के लिए मुख्य रूप से नियुक्त किया गया हूं, लेकिन कुरैश के लोग न माने, यहां तक कि फ़ैसले के लिए बनू साद की काहिना औरत के पास जाना तै हुआ और लोग मक्का से रवाना भी हो गए, लेकिन रास्ते में पानी खत्म हो गया। अल्लाह ने अब्दुल मुत्तलिब पर बारिश बरसाई, जिससे उन्हें ज़्यादा पानी मिल गया, जबकि विरोधियों पर एक बूंद पानी न बरसा। वे समझ गए कि ज़मज़म का काम कुदरत की ओर से अब्दुल मुत्तलिब के साथ मुख्य है, इसलिए रास्ते ही से वापस पलट आए। यही मौक़ा था जब अब्दुल मुत्तलिब ने मन्नत मानी कि अगर अल्लाह ने उन्हें दस लड़के दिए और वे सब के सब इस उम्र को पहुंचे कि उनका बचाव कर सकें तो वह एक लड़के को काबे के पास कुर्बान कर देंगे।

हाथी की घटना

दूसरी घटना का सार यह है कि अबरहा सबाह हब्शी ने जो नजाशी बादशाह हब्श की ओर से यमन का गवर्नर जनरल था, जब देखा कि अरब खाना काबा का हज करते हैं तो सनआ में एक बहुत बड़ा चर्च बनवाया और चाहा कि अरब का हज उसी की ओर फेर दे, मगर जब इसकी खबर बनू किनाना के एक व्यक्ति को हुई तो उसने रात के वक़्त चर्च में घुस कर उसके क़िबले पर पाखाना पोत दिया, अबरहा को पता चला तो बहुत बिगड़ा और साठ हज़ार की एक भारी सेना

इब्ने हिशाम, 1/142-147

लेकर काबा को ढाने के लिए निकल खड़ा हुआ। उसने अपने लिए एक ज़बरदस्त हाथी भी चुना। सेना में कुल नौ या तेरह हाथी थे। अबरहा यमन से धावा बोलता हुआ मुग़म्मस पहुंचा और वहां अपनी सेना को तर्तीब देकर और हाथी को तैयार करके मक्के में दाखिले के लिए चल पड़ा। जब मुज़दलफ़ा और मिना के बीच मुहस्सिर की घाटी में पहुंचा तो हाथी बैठ गया और काबे की ओर बढ़ने के लिए किसी तरह न उठा। उसका रुख उत्तर दक्षिण या पूरब की ओर किया जाता तो उठकर दौड़ने लगता, लेकिन काबे की ओर किया जाता, तो बैठ जाता। इसी बीच अल्लाह ने चिड़ियों का एक झुंड भेज दिया, जिसने सेना पर ठीकरी जैसे पत्थर गिराए और अल्लाह ने उसी से उन्हें खाए हुए भुस की तरह बना दिया। ये चिड़ियां अबाबील जैसी थीं। हर चिड़िया के पास तीन-तीन कंकडियां थीं— एक चोंच में और दो पंजों में कंकड़ियां चने जैसी थीं, मगर जिस किसी को लग जाती थीं, उसके अंग कटना शुरू हो जाते थे और वह मर जाता था। ये कंकड़ियां हर आदमी को नहीं लगी थीं, लेकिन सेना में ऐसी भगदड़ मची कि हर व्यक्ति दूसरे को रौंदता कुचलता गिरता-पड़ता भाग रहा था। फिर भागने वाले हर राह पर गिर रहे थे और हर चश्मे पर मर रहे थे। इधर अबरहा पर अल्लाह ने ऐसी आफ़त भेजी कि उसकी उंगलियों के पोर झड़ गए और सनआ पहुंचते-पहुंचते चूज़े जैसा हो गया। फिर उसका सीनः फट गया, दिल बाहर निकल आया और वह मर गया।

अबरहा के इस हमले के मौके पर मक्का के निवासी जान के डर से घाटियों में बिखर गए थे और पहाड़ की चोटियों पर जा छिपे थे। जब सेना पर अज़ाब आ गया तो इत्मीनान से अपने घरों को पलट आए।

यह घटना, अधिकांश विशेषज्ञों के अनुसार, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पैदाइश से सिर्फ़ पचास या पचपन दिन पहले मुहर्रम महीनें में घटी थी, इसलिए यह सन् 571 ई० की फ़रवरी के आखिर की या मार्च के शुरू की घटना है। सच तो यह है कि यह एक आरंभिक निशानी थी जो अल्लाह ने अपने नबी और अपने काबा के लिए ज़ाहिर फ़रमाई थी, क्योंकि आप बैतुल-मदिस को देखिए कि अपने युग में मुसलमानों का क़िबला था और वहां के रहने वाले मुसलमान थे। इसके बावजूद उस पर अल्लाह के दुश्मन अर्थात मुश्किों का क़ब्ज़ा हो गया था, जैसा कि बख्ते नत्र के हमले (587 ई०पू०) और रूम वालों के क़ब्ज़े (सन् 70 ई०) से ज़ाहिर है। लेकिन इसके बिल्कुल उलट काबे पर ईसाइयों को क़ब्ज़ा न मिल सका, हालांकि

1. इब्ने हिशाम 1/43-56 और तफ्सीर की किताबें, तफ्सीर सूरः फ्रील

उस वक़्त यही मुसलमान थे और काबे के रहने वाले मुश्रिक थे।

फिर यह घटना ऐसी परिस्थितियों में घटित हुई कि इसकी ख़बर उस वक़्त के सभ्य जगत के अधिकांश क्षेत्रों अर्थात रूम और फ़ारस में तुरन्त पहुंच गई, क्योंकि हब्शा का रूमियों से बड़ा गहरा ताल्लुक़ था और दूसरी ओर फ़ारसियों की नज़र रूमियों पर बराबर रहती थी और वह रूमियों और उनके मित्रों के साथ होने वाली घटनाओं का बराबर जायज़ा लेते रहते थे। यही वजह है कि इस घटना के बाद फ़ारस वालों ने यमन पर बड़ी तेज़ी से क़ब्ज़ा कर लिया। अब चूंकि यही दो राज्य उस वक़्त सभ्य जगत के अहम भाग के प्रतिनिधि थे, इसलिए इस घटना की वजह से दुनिया की निगाहें खाना काबा की ओर उठने लगीं। उन्हें बैतुल्लाह की बड़ाई का एक खुला हुआ ख़ुदा का निशान दिखाई पड़ गया और यह बात दिलों में अच्छी तरह बैठ गई कि इस घर को अल्लाह ने पावनता के लिए चुन लिया है, इसलिए आगे यहां की आबादी से किसी व्यक्ति का नबी होने के दावे के साथ उठना इस घटना के तक़ाज़े के अनुकूल ही होगा और उस खुदाई हिक्मत की तफ़्सीर होगा जो कार्य-कारण के नियम से ऊपर उठकर ईमान वालों के खिलाफ़ मुश्रिकों की सहायता में छिपी हुई थी।

अब्दुल मुत्तलिब के कुल दस बेटे थे, जिनके नाम ये हैं-

1. हारिस, 2. जुबैर, 3. अबू तालिब, 4. अब्दुल्लाह, 5. हमज़ा, 6. अबूलहब, 7. ग़ैदाक़, 8. मकूम, 9. सफ़ार, 10. और अब्बास। कुछ ने कहा कि ग्यारह थे। एक का नाम क़सम था और कुछ और लोगों ने कहा है कि तेरह थे, एक का नाम अब्दुल काबा था और एक का नाम हज्ल था, लेकिन दस मानने वालों का कहना है कि मक़ूम ही का दूसरा नाम अब्दुल काबा और ग़ैदाक़ का दूसरा नाम हज्ल था और क़स्म नाम का कोई व्यक्ति अब्दुल मुत्तलिब की सन्तान में न था। अब्दुल मुत्तलिब की बेटियां छः थीं, नाम इस तरह हैं—

1. उम्मुल हकीम, इनका नाम बैज़ा है, 2. बर्रा, 3. आतिका, 4. सफ़िया, 5. अरवा, 6. और उमैमा।

3. अब्दुल्लाह, प्यारे नबी सल्ल० के पिता

इनकी मां का नाम फ़ातमा था और वह अम्र बिन आइज़ बिन इम्रान बिन मज़ूम बिन यक़ज़ा बिन मुर्रा की बेटी थीं। अब्दुल मुत्तलिब की सन्तान में अब्दुल्लाह सबसे ज़्यादा खूबसूरत, पाक दामन और चहेते थे और ‘ज़बीह’

1. सीरत इब्ने हिशाम, 1/108, 109 तलकीहुल फहूम, पृ० 8-9,

कहलाते थे। ज़बीह कहलाने की वजह यह थी कि जब अब्दुल मुत्तलिब के लड़कों की तायदाद पूरी दस हो गई और वे बचाव करने के योग्य हो गये, तो अब्दुल मुत्तलिब ने उन्हें अपनी मन्नत बता दी। सब ने बात मान ली। इसके बाद कहा जाता है कि अब्दुल मुत्तलिब ने उनके दर्मियान कुरआअन्दाज़ी की तो क़ुरआ अब्दुल्लाह के नाम निकला। वह सबसे प्रिय थे, इसलिए अब्दुल मुत्तलिब ने कहा कि ‘ऐ अल्लाह ! वह या सौ ऊंट ? फिर उनके और ऊंटों के दर्मियान कुरआअन्दाज़ी की तो कुरआ सौ ऊंटों पर निकल आया।’ और कहा जाता है कि अब्दुल मुत्तलिब ने भाग्य के तीरों पर इन सब के नाम लिखे और हुबल के निगरां के हवाले किया। निगरां ने तीरों को गर्दिश देकर कुरआ निकाला, तो अब्दुल्लाह का नाम निकला। अब्दुल मुत्तलिब ने अब्दुल्लाह का हाथ पकड़ा, छुरी ली और ज़िब्ह करने के लिए खाना काबा के पास ले गये लेकिन कुरैश और ख़ास तौर से अब्दुल्लाह के ननिहाल वाले अर्थात बनू मख़्ज़ूम और अब्दुल्लाह के भाई अबू तालिब आड़े आए।

अब्दुल मुत्तलिब ने कहा, तब मैं अपनी मन्नत का क्या करूं ?

उन्होंने मश्विरा दिया कि वह किसी महिला अर्राफ़ा के पास जाकर हल मालूम कर लें ।

और दस अब्दुल मुत्तलिब अर्राफा के पास गए। उसने कहा कि अब्दुल्लह ऊंटों के दर्मियान कुरआ डालें। अगर अब्दुल्लाह के नाम कुरआ निकले तो दस ऊंट और बढ़ा दें। इस तरह ऊंट बढ़ाते जाएं और कुरआ निकालते जाएं, यहां तक कि अल्लाह राज़ी हो जाए। फिर ऊंटों के नाम कुरआ निकल आए तो उन्हें ज़िब्ह कर दें।

अब्दुल मुत्तलिब ने वापस आकर अब्दुल्लाह और दस ऊंटों के बीच कुरआ डाला, मगर कुरआ अब्दुल्लाह के नाम निकला। इसके बाद वह दस-दस ऊंट बढ़ाते गए और कुरआ डालते गये, मगर कुरआ अब्दुल्लाह के नाम ही निकलता रहा। जब सौ ऊंट पूरे हो गये, तो कुरआ ऊंटों के नाम निकला। अब अब्दुल मुत्तलिब ने उन्हें अब्दुल्लाह के बदले ज़िब्ह कर दिया और वहीं छोड़ दिया। किसी इंसान या दरिंदे के लिए कोई रुकावट न थी। इस घटना से पहले कुरैश और अरब में खून बहा (दियत) की मात्रा दस ऊंट थी, पर इस घटना के बाद सौ कर दी गई। इस्लाम ने भी इस मात्रा को बाक़ी रखा। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से आपका यह इर्शाद रिवायत किया जाता है कि मैं दो ज़बीह की सन्तान

1. तारीखे तबरी 2/239
हूं—एक हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम और दूसरे आपके पिता अब्दुल्लाह ।

अब्दुल मुत्तलिब ने अपने बेटे अब्दुल्लाह की शादी के लिए हज़रत आमना को चुना जो वब बिन अब्दे मुनाफ़ बिन ज़ोहरा बिन किलाब की सुपुत्री थीं और वंश और पद की दृष्टि से कुरैश की उच्चतम महिला मानी जाती थीं। उनके पिता वंश और श्रेष्ठता की दृष्टि से बनू ज़ोहरा के सरदार थे। वह मक्का ही में विदा होकर हज़रत अब्दुल्लाह के पास आई, मगर थोड़े दिनों बाद अब्दुल्लाह को अब्दुल मुत्तलिब ने खजूर लाने के लिए मदीना भेजा और उनका वहीं देहान्त हो गया।

कुछ सीरत के विशेषज्ञ कहते हैं कि वह व्यापार के लिए शाम देश गए हुए थे। कुरैश के एक क़ाफ़िले के साथ वापस आते हुए बीमार होकर मदीना उतरे और देहान्त हो गया। नाबग़ा जादी के मकान में दफ़न किए गए। उस वक़्त उनकी उम्र 25 वर्ष थी। अधिकांश इतिहासकार के अनुसार अभी अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पैदा नहीं हुए थे, अलबत्ता कुछ सीरत लिखने वाले कहते हैं कि आपका जन्म उनके देहान्त से दो महीने पहले हो चुका था ।

जब उनके देहान्त की ख़बर मक्का पहुंची, तो हज़रत आमना ने बड़ा ही दर्द भरा मर्सिया (शोक गीत) कहा, जो यह है-

‘बतहा की गोद हाशिम के बेटे से खाली हो गई। वह चीख-पुकार के दर्मियान एक क़ब्र में सो गया। उसे मौत ने एक पुकार लगाई और उसने ‘हां’ कह दिया। अब मौत ने लोगों में इब्ने हाशिम जैसा कोई इंसान नहीं छोड़ा। (कितनी हसरत भरी थी) वह शाम जब लोग उन्हें तख्त पर उठाए ले जा रहे थे। अगर मौत और मौत की घटना ने उनका वजूद खत्म कर दिया है, (तो उनके चरित्र के चिह्न नहीं मिटाए जा सकते) वह बड़े दाता और दयालु थे। 3

अब्दुल्लाह का छोड़ा हुआ कुल सामान यह था—

पांच ऊंट, बकरियों का रेवड़, एक हब्शी लौंडी जिनका नाम बरकत था और उपनाम उम्मे ऐमन, यही उम्मे ऐमन हैं, जिन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को गोद में खिलाया था।

1. इब्ने हिशाम 1/151-155, तारीखे तबरी 2/240-243, 2. इब्ने हिशाम 1/156, 158, तारीखे तबरी 2/46, अर-रौजुल उन्फ 1/184 4. सहीह मुस्लिम 2/96, तलक़ीहुल फ़हूम, पृ० 14

3. तबक़ाते इब्ने साद 1/100


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