अर-रहीकुल मख़्तूम पार्ट 5

क़बीले (बनू बिक्र बिन अब्दे मुनाफ़ बिन किनाना) को साथ लेकर बनू जुरहुम के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी और उन्हें मक्का से निकाल कर सत्ता पर खुद क़ब्ज़ा कर लिया। यह घटना दूसरी सदी ईसवी के बीच की है।

बनू जुरहुम ने मक्का छोड़ते वक़्त ज़मज़म का कुंआ पाट दिया और उसमें कई ऐतिहासिक चीजें गाड़कर उसके चिह्न भी मिटा दिये। मुहम्मद बिन इसहाक़ का बयान है कि अम्र बिन हारिस बिन मुज़ाज़’ जुरहुमी ने खाना काबा के दोनों हिरन’ और उसके कोने में लगा हुआ पत्थर-हजरे अस्वद -निकालकर ज़मज़म के कुएं में दफ़न कर दिया और अपने क़बीले बनू जुरहुम को साथ लेकर यमन चला गया। बनू जुरहुम को मक्का से देश-निकाला का और वहां के शासन के समाप्त होने का बड़ा दुख था। चुनांचे अम्र ने इसी सिलसिले में ये पद कहे-

• ‘लगता है जहून से सनआ तक कोई जानने वाला था ही नहीं और न किसी क़िस्सा कहने वाले ने मक्का की रात-रात भर की मज्लिसों में कोई क़िस्सा सुनाया। क्यों नहीं ? निश्चय ही हम उसके निवासी थे, लेकिन समय की चालों और टूटे हुए भाग्यों ने हमें उजाड़ फेंका। 3

हज़रत इस्माईल का युग लगभग दो हज़ार ईसा पूर्व का है। इस हिसाब से मक्का में क़बीला जुरहुम का अस्तित्व लगभग दो हज़ार एक सौ वर्ष तक रहा और उनका शासन लगभग दो हज़ार वर्ष चला।

बनू खुज़ाआ ने मक्का पर क़ब्ज़ा करने के बाद बनू बिक्र को शामिल किए बिना अपना शासन चलाया, अलबत्ता तीन बड़े महत्वपूर्ण पद ऐसे थे जो मुज़री क़बीलों के हिस्से में आए।

कूच 1. हाजियों को अरफ़ात से मुज़दलफ़ा ले जाना और यौमुन्नज़र-13 ज़िलहिज्जा को जोकि हज के सिलसिले का अन्तिम दिन है-मिना से करने का परवाना देना। यह पद इलयास बिन मुज़र के परिवार बनू ग़ौस बिन मुर्रा को प्राप्त था, जो सूफ़ा कहलाते थे। इस पद का स्पष्टीकरण इस तरह है कि

1. यह वह मुज़ाज़ जुरहुमी नहीं है जिसका उल्लेख हज़रत इस्माईल की घटना में हो चुका है ।

2. मसऊदी ने लिखा है कि फ़ारस वाले पिछले युग में खाना काबा के लिए हीरेजवाहरात भेजते रहते थे। सासान बिन बाबक ने सोने के बने हुए दो हिरन, जवाहरात, तलवारें और बहुत-सा सोना भेजा था। अम्र ने यह सब ज़मज़म के कुएं में डाल दिया (मुरुजुज़ ज़हब 1/205) था।

3. इब्ने हिशाम 1/114-115

13 ज़िलहिज्जा को हाजी कंकड़ी न मार सकते थे, यहां तक कि पहले सूफ़ा का एक आदमी कंकड़ी मार लेता, फिर हाजी कंकड़ी मार कर फ़ारिग़ हो जाते और मिना से रवानगी का इरादा करते तो सूफ़ा के लोग मिना के एक मात्र रास्ते अक़बा के दोनों ओर घेरा डाल कर खड़े हो जाते और जब तक खुद न गुज़र लेते किसी को गुज़रने न देते। उनके गुज़र लेने के बाद बाक़ी लोगों के लिए रास्ता खाली हो जाता। जब सूफ़ा ख़त्म हो गये तो यह पद बनू तमीम के एक परिवार बनू साद बिन जैद मनात को मिल गया।

2. 10 ज़िलहिज्जा की सुबह को मुज़दलफ़ा से मिना की ओर रवानगी । यह पद बनू अदवान को प्राप्त था ।

3. हराम महीनों को आगे-पीछे करना। यह पद बनू किनाना की एक शाखा बनू तमीम बिन अदी को प्राप्त था । 1

मक्का पर बनू खुज़ाआ का आधिपत्य कोई तीन सौ वर्ष तक क़ायम रहा। 2 यही समय था जब अदनानी क़बीले मक्का और हिजाज़ से निकल कर नज्द, इराक़ के आस-पास और बहरैन वग़ैरह में फैले और मक्का के पास-पड़ोस में सिर्फ़ कुरैश की कुछ शाखाएं बाक़ी रहीं, जो खानाबदोश थीं, उनकी अलग-अलग टोलियां थीं और बनू किनाना में उनके कुछ बिखरे घराने थे, मगर मक्का की हुकूमत और बैतुल्लाह के मुतवल्ली होने में उनका कोई हिस्सा न था, यहां तक कि कुसई बिन किलाब प्रकट हुआ।

कुसई के बारे में बताया जाता है कि वह अभी गोद ही में था कि उसके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद उसकी मां ने बनू उज़रा के एक व्यक्ति रबीआ बिन हराम से शादी कर ली। यह क़बीला चूंकि शाम देश के पास-पड़ोस में रहता था, इसलिए कुसई की मां वहीं चली गई और वह कुसई को भी अपने साथ लेती गई। जब कुसई जवान हुआ, तो मक्का वापस आया। उस वक़्त मक्का का सरदार हुलैल बिन हब्शीया खुजाई था। कुसई ने उसके पास उसकी बेटी हबी से विवाह का संदेशा दिया। हुलैल ने मंजूर कर लिया और शादी कर दी। इसके बाद जब हुलैल का देहान्त हुआ, तो मक्का और बैतुल्लाह के मुतवल्ली बनने के लिए खुज़ाआ और कुरैश के बीच लड़ाई छिड़ गई और उसके

1. इब्ने हिशाम, 1/44, 119-122

2. याकूतः माद्दा मक्का, फत्हुल बारी 6/33, मसऊदी की मुरव्वजुज़्ज़ब, 2/58 3. मुहाज़रात खजरी 1/35, इब्ने हिशाम 1/117 4. इब्ने हिशाम

1/117-118

नतीजे में मक्का और बैतुल्लाह पर कुसई का आधिपत्य स्थापित हो गया। लड़ाई की वजह क्या थी? इस बारे में तीन बयान मिलते ह
एक यह कि जब कुसई की औलाद खूब फल-फूल गई, उसके पास धन-धान्य का बाहुल्य हो गया और उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ गई और उधर हुलैल का देहान्त हो गया, तो कुसई ने महसूस किया कि अब बनू खुज़ाआ और बूनबिक्र के बजाए मैं काबा का मुतवल्ली बनने और मक्का पर शासन करने का कहीं ज़्यादा अधिकारी हूं, उसे यह एहसास भी था कि कुरैश खालिस इस्माईली अरब हैं और बाक़ी आले इस्माईल के सरदार भी हैं, (इसलिए सरदारी के हक़दार वही हैं।) चुनांचे उसने क़ुरैश और बनू खुज़ाआ के कुछ लोगों से बातचीत की कि क्यों न बनू खुज़ाआ और बूनबिक्र को मक्का से निकाल बाहर किया जाए। इन लोगों ने उसकी राय से सहमति व्यक्त की।

दूसरा बयान यह है कि- खुज़ाआ के कथनानुसार- खुद हुलैल ने कुसई को वसीयत की थी कि वह काबा की देखभाल करेगा और मक्का की बागडोर संभालेगा 12

तीसरा बयान यह है कि हुलैल ने अपनी बेटी हुबी को बैतुल्लाह का मुतवल्ली बनाया था और अबू बशान’ खुज़ाई को उसका वकील बनाया था। चुनांचे हुबी के नायब की हैसियत से वही खाना काबा की कुंजियों का मालिक था। जब हुलैल का देहान्त हो गया, तो कुसई ने अबू ग़बशान से एक मशक शराब के बदले काबा का मुतवल्ली होना खरीद लिया था, लेकिन खुज़ाआ ने यह खरीदना बेचना मंजूर न किया और कुसई को बैतुल्लाह से रोकना चाहा। इस पर कुसई ने बनू खुज़ाआ को मक्का से निकालने के लिए कुरैश और बनू किनाना को जमा किया और वे कुसई की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुए जमा हो गए। 4 बहरहाल कारण जो भी हो, घटनाओं का क्रम इस तरह है कि जब हुलैल का देहान्त हो गया और सूफ़ा ने वही करना चाहा, जो वे हमेशा करते आए थे, तो

कुसई ने कुरैश और किनाना के लोगों को साथ लिया और अक़बा के नज़दीक, जहां वे जमा थे, उनसे आकर कहा कि तुमसे ज़्यादा हम इस पद के हक़दार हैं।

1. सीरते इब्ने हिशाम 1/117 118, तबरी 2/255, 256

2. सीरत इब्ने हिशाम, 1/118, अर-रौजुल उन्फ़ 1/142, 3. इसका नाम मुहर्रिश या सुलैम बिन अम्र था। फत्हुल बारी 6/633, अर-रौजुल उन्फ 1/142, 4. तारीख याकूबी 1/239, फ़हुल बारी 6/634, मसऊदी 2/58,
अर-रहीकुल मख़्तूम

इस पर सूफ़ा ने लड़ाई छेड़ दी, पर कुसई ने उन्हें परास्त करके यह पद छीन लिया। यही मौका था जब खुज़ाआ और बनू बिक्र ने कुसई से अपना दामन खींचना शुरू कर दिया। इस पर कुसई ने उन्हें भी ललकारा, फिर क्या था। दोनों फ़रीक़ों में घमासान की लड़ाई शुरू हो गई और दोनों ओर के बहुत-से आदमी मारे गए। इसके बाद समझौते की आवाजें उठने लगीं और बनूबिक्र के एक व्यक्ति यामर बिन औफ़ को अध्यक्ष बनाया गया। यामर ने फ़ैसला किया कि खुज़ाआ के बाजए कुसई खाना काबा का मुतवल्ली बनने और मक्का की सरदारी अपने हाथ में रखने का ज़्यादा हक़दार है, साथ ही कुसई ने जितना खून बहाया है, सब बेकार समझ कर पांव तले रौंद रहा हूं। अलबत्ता खुज़ाआ और बनूबिक ने जिन लोगों को क़त्ल किया है, उनकी दियत (जुर्माना) अदा करें और खाना काबा को बेरोक-टोक कुसई के हवाले कर दें। इसी फ़ैसले की वजह से यामर की उपाधि शद्दाख पड़ गई। शद्दाख का अर्थ है पांव तले रौंदने वाला।

इस फ़ैसले के नतीजे में कुसई और कुरैश को मक्का पर पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त हो गया और कुसई बैतुल्लाह का धार्मिक नेता बन गया, जिसकी ज़ियारत के लिए अरब के कोने-कोने से आने वालों का तांता बंधा होता था। मक्का पर कुसई के आधिपत्य की यह घटना पांचवीं सदी ईसवी के मध्य अर्थात् 440 ई० की है। 2

से कुसई ने मक्का की व्यवस्था इस तरह की कि कुरैश को मक्का के पास-पड़ोस बुलाकर पूरा शहर उन पर बांट दिया और हर परिवार के रहने-सहने का ठिकाना तै कर दिया, अलबत्ता महीने आगे-पीछे करने वालों को, साथ ही आले सफ़वान बनू अदवान और बनू मुर्रा बिन औफ़ को उनके पदों पर बाक़ी रखा, क्योंकि कुसई समझता था कि यह भी दीन है, जिसमें रद्दोबदल करना सही नहीं।

कुसई का एक कारनामा यह भी है कि उसने काबा के हरम के उत्तर में द्रारुन्नदवः बनवाया । (उसका द्वार मस्जिद की ओर था) दारुन्नदवः असल में कुरैश की पार्लियामेंट थी, जहां तमाम बड़े-बड़े और अहम मामलों के फ़ैसले होते थे । कुरैश पर दारुन्नदव: के बड़े उपकार हैं, क्योंकि यह उनके एक होने की गारंटी देता था और यहीं उनकी उलझी हुई समस्याएं बड़े अच्छे ढंग से तै होती थीं। *

कुसई की सरदारी सबको मान्य थी। नीचे लिखी ज़िम्मेदारियां इसी का पता

इब्ने हिशाम 1/123, 124, तारीख तबरी 3/255-258

2. कल्बे जज़ीरतुल अरब, पृ० 232, फ्रत्हुल बारी 6/633, मसऊदी 2/58, 3. इब्ने हिशाम 1/124-125 4. वही, 1/125

1.

, मुहाज़राते खज़री 1/36, अखबारुल किराम पृ० 152


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