
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और मुतावक्किल का इलाज
अल्लामा अब्दुर्रहमान जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) नज़र बन्दी की जि़न्दगी बसर कर रहे थे। मुतावक्किल के बैठने की जगह कमर के नीचे जिसम के पिछले हिस्से में एक ज़बर दस्त ज़हरीला फोड़ा निकल आया। हर चन्द कोशिश की गई मगर किसी सूरत से शिफ़ा की उम्मीद न हुई। जब जान ख़तरे में पड़ गई तो मुतावक्किल की मां ने मन्नत मान ली कि अगर मुतावक्किल अच्छा हो गया तो इब्ने रज़ा की खिदमत में मैं माले कसीर नज़र करूंगी और फ़तह बिन ख़क़ान ने मुतावक्किल से दरख्वास्त की कि अगर आपका हुक्म हो तो मैं मर्ज़ की कैफि़यत अबुल हसन से बयान कर के कोई दवा तजवीज़ करवा लाऊं। मुतावक्किल ने इजाज़त दी और इब्ने ख़क़ान हज़रत की खिदमत में हाजि़र हुए। उन्होंने साना वाकि़या बयान कर के दवा की तजवीज़ चाही , हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने फ़रमाया , कस्बे ग़नम बकरी की मेंगनियां लेकर गुलाब के अरक़ में हल कर के लगा दो , इन्शा अल्लाह ठीक हो जाऐगा। वज़ीर फ़तह इब्ने ख़ाक़ान ने दरबार में हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की तजवीज़ पेश की लोग हंस पड़े और कहने लगे इमाम होकर क्या दवा तजवीज़ फ़रमाई है। वज़ीर ने कहा ऐ ख़लीफ़ा तजरूबे में क्या हर्ज है। अगर हुक्म हो तो मैं इन्तेज़ाम करूं। ख़लीफ़ा ने हुक्म दिया , दवा लगाई गई , मुतावक्किल की आंख खुल गई और रात भर सोया तीन दिन के अन्दर शिफ़ाए कामिल हो जाने के बाद मां ने दस हज़ार अशरफ़ी की सर ब मुहर थैली हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की खि़दमत में भिजवा दी।
(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 207 आलामु वुरा सफ़ा 208 )
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की दोबारा ख़ाना तलाशी
दरन्दिों की जुब्बा साई और मुतावक्किल के इलाज में इमाम (अ.स.) की शानदार कामयाबी ने दुश्मनों के दिलों में हसद की लगी हुई आग को और भड़का दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि जान आप ही के इलाज से बची थी वह ममनूने एहसान होने के बजाए इमाम के दरपए आज़ार हो कर खुल्लम खुल्ला उन्हें सताने की तरफ़ ख़ुसूसी तौर पर मुतावज्जा हो गया।
मुल्ला जामी अलेहिर्रहमा का बयान है कि वाक़ए सेहत के चन्द ही दिनों बाद लोगों ने मुतावक्किल से चुग़ल खाई और कहा कि हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के घर में असलाह जंग जमा हैं और अन क़रीब अपने जमातियों के बल बूते पर तेरी हुकूमत का तख़्ता उलट देगें और हाकिमें वक़्त बन कर तेरे किये का बदला लेगें। मुतावक्किल जो पहले से आले मौहम्मद स. का शदीद दुश्मन था लोगों के कहने से फिर भड़क उठा और उसने सईद को बुला कर हुक्म दिया कि जिनकी नज़र बन्दी में इस वक़्त आप थे, मुतावक्किल ने हुक्म दिया कि तू आधी रात को दफ़तन ‘‘इमाम के मकान में जा कर तलाशी ले और जो चीज़ बरामद हो उसे मेरे पास ले आ। सईद हाजिब का बयान है कि मैं आधी रात को हज़रत के मकान में कोठे की तरफ़ से गया मुझे रास्ता न मिला था , क्योंकि सख़्त तारीकी थी। हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ने अपने मुसल्ले पर से जो अन्दर बिछा हुआ था आवाज़ दी , ऐ सईद अन्धेरा है , ठहरो ! मैं शमा ला रहा हूं। ग़रज़ मैंने जा कर देखा कि आप ज़मीन पर मुसल्ला बिछा ए हुए हैं और आप के घर में एक शमा के सिवा कोई असलाह नहीं है और एक वह थैली है जो मुतावक्किल की मां ने भेजी थी। मैंने इन चीज़ों को मुतावक्किल के सामने पेश कर दिया। इसने उन्हें वापस किया और वह अपने मुक़ाम पर शर्मिन्दा हुआ।
(शवाहेदुन नबूअत सफ़ा 208, जिलाउल उयून सफ़ा 294 )
अल्लामा मजलिसी का बयान है कि मुतावक्किल ने आप पर पूरी सख़्ती शुरू कर दी और आप को क़ैद कर दिया। पहले ज़राफ़ी की क़ैद में रखा और ज़राफ़ी की क़ैद में महबूस रखा। ‘‘जिलाउल उयून सफ़ा 293’’ अल्लामा मौहम्मद बाक़र नजफ़ी का बयान है कि मुतावक्किल ने आपके पास जाने पर मुकम्मल पाबन्दी आएद कर दी ‘‘दमतुस् साकेबा जिल्द 3 सफ़ा 121’’ और हुक्म दिया कि कोई भी आपके क़रीब तक न जाने पाए।
(कशफ़ुल ग़म्मा सफ़ा 124 )
हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) के तसव्वुरे हुकूमत पर ख़ौफ़े ख़ुदा ग़ालिब था
हज़रत की सीरते जि़न्दगी और अख़लाक़ व कमालात वही थे जो इस सिलसिले असमत की हर फ़र्द के अपने दौर में इम्तेआज़ी तौर पर मुशाहिदे में आते रहे थे , क़ैद खाने और नज़र बन्दी का आलम हो या आज़ादी का ज़माना हर वक़्त हर हाल में यादे इलाही , इबादत , ख़लक़े खुदा से इस्तग़ना सबाते क़दम सब्र इस्तक़लाल , मसाएब के हुजूम में माथे पर शिकन का न होना , दुश्मन के साथ हिलम व मुरव्वत से काम लेना , मोहताजों और ज़रूरत मन्दो की इमादाद करना यही वह औसाफ़ हैं जो हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की सीरते जि़न्दगी में नुमाया नज़र आते हैं।
क़ैद के ज़माने में जहां भी आप रहे आप के मुसल्ले के सामने एक क़ब्र खुदी तैय्यार रहती थी। देखने वालों ने जब इस पर हैरत व दहशत का इज़हार किया तो आपने फ़रमाया मैं अपने दिल में मौत का ख़्याल रखने के लिये यह क़ब्र अपनी निगाहों के सामने तैय्यार रखता हूं। हक़ीक़त मे यह जा़लिम ताक़त को इसके बातिल मुतालबा ए इताअत और इस्लाम की हक़ीक़ी तालीमात कि नश्रो अशाअत के तर्क कर देने की ख़्वाहिश का एक अमली जवाब था। यानी ज़्यादा से ज़्यादा सलातीने वक़्त के साथ जो कुछ है वह जान का लेना। मगर जो शख़्स मौत के लिये इतना तैय्यार हो कर हर वक़्त खुदी हुई क़ब्र अपने सामने रखे। वह ज़ालिम हुकूमत से डर कर सरे तस्लीम ख़म करने पर कैसे मजबूर किया जा सकता है। मगर इसके साथ दुनियावी साजि़शो में शिरकत या हुकूमते वक़्त के खि़लाफ़ किसी बे महल अक़दाम की तैय्यारी से सख्त तरीन जासूसी इन्तेज़ाम के कभी आपके खि़लाफ़ कोई इलज़ाम साबित न हो सका और कभी सलातीने वक़्त को कोई दलील आपके खि़लाफ़ के जवाज़ की न मिल सकी , बा वजूदे कि सलतनते अब्बासिया की बुनियादें इस वक़्त इतनी खोखली हो रही थी कि दारूल सलतनत में हर रोज़ एक नई साजि़श का फि़तना खड़ा होता था।
मुतावक्किल ने खुद इसके बेटे की मुख़ालफ़त और उसके इन्तेइाई अज़ीज़ गु़लाम बाग़र रूमी की इससे दुश्मनी मुतन्तसर के बाद उमराए हुकूमत का इन्तेशार और आखि़र मुतावक्किल के बेटों को खि़लाफ़त से महरूम कराने का फ़ैसला मुस्तईन की दौरे हुकूमत में यहिया बिन उमर यहिया बिन हसीन बिन ज़ैद अलवी का कूफ़ा में ख़ुरूज और हसन बिन ज़ैद अल मुनक़्क़ब ब दाई अलहक़ का एलाक़ए तबरस्तान पर कब्ज़ा कर लेना और मुसतकि़ल सलतनत क़ाएम कर लेना फिर दारूल सलतनत में तुरकी ग़ुलामां की बग़ावत मुस्तईन का सामरा को छोड़ कर बग़दाद की तरफ़ भागना और कि़ला बन्द हो जाना , आखि़र को हुकूमत से दस्त बरदारी पर मजबूर होना और कुछ अर्से बाद माअज़ बिल्लाह के साथ तलवार के घाट , फिर माज़ बिल्लाह के दौर में रूमियों का मुख़ालफ़त पर तैय्यार रहना। माज़ बिल्लाह को खुद अपने भाईयों से ख़तरा महसूस होना और मोवीद की जि़न्दगी का ख़ातमा और मोफि़क़ का बसरा में क़ैद किया जाना , इन तमाम हगांमी हालात , इन तमाम शोरिशो , इन तमाम बेचैनियो और झगड़ो में से किसी में भी हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) की शिरकत का शुब्हा तक न पैदा होना क्या इस तर्ज़ अमल के खि़लाफ़ नहीं जो ऐसे मौक़े पर जज़्बात से काम लेने वालों का हुआ करता है। एक ऐसे अक़तेदार के मुक़ाबले में जिसे न सिर्फ़ वह हक़ व इन्साफ़ के रू से नाजाएज़ समझते हैं बल्कि इनके हाथों उन्हें जिलावतनी , क़ैद और एहानितों का सामना भी करना पड़ता है मगर वह जज़्बात से बुलन्द और अज़मते नफ़्स के कामिल मज़हर दुनियावी हंगामों और वक़्त के इत्तेफ़ाक़ी मौका़ं से किसी तरह का फ़ायदा उठाना अपनी बेलौस हक़्क़ानियत और कोह से गरां सदाक़त के खि़लाफ़ समझता है और मुख़ालफ़त पर पसे पुश्त हमला करने को आपने बुलन्द नुक़्ताए निगाह और मेयारे अमल के खि़लाफ़ जानते हुए हमेशा किनारा कश रहा।
(दसवें इमाम सफ़ा 9 )