चौदह सितारे हज़रत इमाम अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.स) पार्ट- 2

नाम कुन्नियत और अलक़ाब

आपका इसमे गिरामी लौहे महफ़ूज़ के मुताबिक़ उनके वालिदे माजिद हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने मोहम्मद रखा। आपकी कुन्नियत अबु जाफ़र और आपके अलक़ाब जवाद , कानेह , मुर्तुज़ा थे और मशहूर तरीन लक़ब तक़ी था।(रौज़तुल अल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 96, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 202 आलामु वुरा पृष्ठ 199 )


बादशाहाने वक़्त

हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की विलादत 195 हिजरी में हुई। इस वक़्त बादशाहे वक़्त , अमीन इब्ने हारून रशीद अब्बासी था।(दफ़ियात अल अयान) 198 हिजरी में मामून रशीद अब्बासी बादशाहे वक़्त हुआ।(तारीख़े ख़मीस व अबुल फ़िदा) 218 हिजरी में मोतसिम अब्बासी ख़लीफ़ाए वक़्त क़रार पाया।(अबुल फ़िदा) इसी मोतसिम ने सन् 220 हिजरी में आपको ज़हर से शहीद करा दिया।(वसीलतुन नजात)


इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की नशो नुमा और तरबीअत

यह एक हसरत नाक वाक़िया है कि इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को निहायत कमसिनी ही के ज़माने में मसाएब और परेशानियों का मुक़ाबला करने के लिये तैय्यार हो जाना पड़ा। उन्हें बहुत ही कम इतमेनान और सुकून के लमहात में बाप की मोहब्बत और शफ़क़तो तरबीअत के साए में ज़िन्दगी गुज़ारने का मौक़ा मिल सका। आपको सिर्फ़ पांचवा बरस था जब हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) मदीने से ख़ुरासान की तरफ़ सफ़र करने पर मजबूर हुए। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) उस वक़्त से जो अपने बाप से जुदा हुए तो फिर ज़िन्दगी में मुलाक़ात का मौक़ा न मिला। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से जुदा होने के तीसरे साल इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत हो गई। दुनियां समझती होगी कि इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) के लिये इल्मी और अमली बलन्दियों तक पहुँचने का कोई ज़रिया नहीं रहा इस लिये अब इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की इल्मी मस्नद शायद ख़ाली नज़र आए मगर ख़लक़े ख़ुदा की हैरत की इन्तेहा न रही जब इस कम सिन बच्चे को थोड़े दिन बाद मामून के पहलू में बैठ कर बड़े बड़े उलमा से फ़िक़ा व हदीस व तफ़सीर और कलाम पर मनाज़रे करते और उन सबको क़ाएल हो जाते देखा। उनकी हैरत उस वक़्त तक दूर होना मुमकिन न थी जब तक वह मद्दी असबाब के आगे एक मख़सूस ख़ुदा वन्दी मर्दसा तालीम व तरबीअत के क़ाएल न होते जिसके बग़ैर यह मोअम्मा न हल हुआ और न कभी हल हो सकता है। (सवाने इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) पृष्ठ 4) मक़सद यह है कि इमाम को इल्मे लदुन्नी होता है यह अम्बिया की तरह पढ़े लिखे और तमाम सलाहियतों से भर पूर पैदा होते हैं। उन्होंने सरवरे काएनात की तरह कभी किसी के सामने ज़ानूए तल्लमुज़ नहीं तह किया और न कर सकते थे। यह इसके भी मोहताज नहीं होते थे कि आबाओ अजदाद उन्हें तालीम दें। यह और बात है कि इज़दियाद व इल्म शरफ़ के लिये ऐसा कर दिया जाय या उलूमे मख़सूसा की तालीम दे दी जाए।


वालिदे माजिद के साया ए आत्फ़ियत से महरूमी

यूं तो उमूमी तौर पर किसी के बाप के मरने से साया ए आतिफ़त से महरूमी हुआ करती है लेकिन हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) अपने वालिदे माजिद के साया ए आतिफ़त से उनकी ज़िन्दगी ही में महरूम हो गए थे। अभी आप की उम्र छः साल की भी न हो पाई थी कि आप अपने पदरे बुज़ुर्गवार की शफ़क़तों अतूफ़त से महरूम कर दिये गए और मामून रशीद अब्बासी ने आपके वालिदे माजिद हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) को अपनी सियासी ग़रज़ के तहत मदीने से ख़ुरासान तलब कर लिया और साथ ही यह शर्त भी लगा दी कि आप के बाल बच्चे मदीने ही में रहेंगे। जिसका नतीजा यह हुआ कि आप सबको हमेशा के लिये ख़ैर बाद कह कर ख़ुरासान तशरीफ़ ले गए और वहीं आलमें गु़रबत में सब से जुदा मामून रशीद के हाथों ही शहीद हो कर दुनियां से रूख़सत हो गए।

आपके मदीने से तशरीफ़ ले जाने का असर ख़ानदान पर यह चढ़ा कि सब के दिल का सुकून जाता रहा और सब के सब अपने को ज़िन्दा दर गोर समझते रहे। बिल आखि़र यह नौबत पहुँची कि आपकी हमशीरा जनाबे फ़ात्मा जो बाद में मासूमा ए क़ुम के नाम से मुलक़्क़ब हुईं इन्तेहाई बेचैनी की हालत में घर से निकल कर ख़ुरासान की तरफ़ रवाना हो गईं। उनके दिल में जज़बात यह थे कि किसी तरह अपने भाई अली रज़ा (अ.स.) से मिलें लेकिन एक रवायत की बिना पर आप मदीने से रवाना हो कर जब मुक़ामे वसावा में पहुँची तो अलील हो गईं। आपने पूछा यहां से क़ुम कितनी दूर है ? लोगों ने कहा कि यहां से कु़म की मसाफ़त दस 10 फ़रसख़ हैं। आपने ख़्वाहिश ज़ाहिर की किसी सूरत से वहां पहुँचा दी जायें। चुनान्चे आप आले साद के रईस मूसा बिन ख़ज़रज की कोशिश से वहां पहुँची और उसी के मकान में 17 दिन बीमार रह कर अपने भाई को रोती पीटती दुनियां से रूख़सत हो गईं और मक़ामे बाबूलान क़ुम में दफ़्न हुई। यह वाक़िया 201 हिजरी का है।(अनवारूल हुसैनिया जिल्द 4 पृष्ठ 53 ) और एक रिवायत की बिना पर आप उस वक़्त ख़ुरासान पहुँची जब भाई शहीद हो चुका था और लोग दफ़्न के लिये काले काले अलमों के साये में लिये जा रहे थे। आप क़ुम आ कर वफ़ात पा गईं। हज़रते इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की जुदाई क्या कम थी कि उस पर मुस्तज़ाद अपनी फुफी के साए से भी महरूम हो गए। हमारे इमाम के लिये कम सिनी में यह दोनों सदमे इन्तेहाई तकलीफ़ देह और रन्ज रसा थे लेकिन मशीयते ऐज़दी में चारा नहीं। आखि़र आपको तमाम मराहिल का मुक़ाबेला करना पड़ा और आप सब्रो ज़ब्त के साथ हर मुसीबत को झेलते रहे।

Leave a comment