चौदह सितारे हज़रत इमाम अली रज़ा(अ.स) पार्ट- 14

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मज़ाहिबे आलम के उलेमा से हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के इल्मी मुनाज़िरे

मामून रशीद को ख़ुद भी इल्मी ज़ौक़ था। उसने वली अहदी के मरहले तो तय करने के बाद हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से काफ़ी इस्तेफ़ादा किया फिर अपने ज़ौक़ के तक़ाज़े पर उसने मज़ाहिबे आलम के उलेमा को दावते मुनाज़िरा दी और हर तरफ़ से उलेमा को तलब कर के हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से मुक़ाबला कराया। अहदे मामून में इमाम रज़ा (अ.स.) से जिस क़दर मुनाज़िरे हुए हैं उनकी तफ़सील अकसर कुतुब में मौजूद हैं। इस सिलसिले में ऐहतेजाजी तबरसी , बिहार , दमऐ साकेबा वग़ैरा जैसी किताबें देखी जा सकती हैं। इख़्तेसार के पेशे नज़र सिर्फ़ दो चार मुनाज़िरे लिखता हूँ।


आलिमे नसारा से मुनाज़िरा

मामून रशीद के अहद में नसारा का एक बहुत बड़ा आलिम व मुनाज़िर शोहरते आम्मा रखता था। जिसका नाम ‘‘ जासलीक ’’ था। उसकी आदत थी कि मुताकल्लमीने इस्लाम से कहा करता था कि हम तुम दोनो नबूवते ईसा और उनकी किताब पर मुत्तफ़िक़ हैं और इस बात पर भी इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि वह आसमान पर ज़िन्दा मौजूद हैं। इख़तिलाफ़ है तो सिर्फ़ मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) में है। तुम उनकी नबूवत का एतेक़ाद रखते हो और हम इन्कार करते हैं फिर हम तुम उनकी वफ़ात पर मुत्तफ़िक़ हो गये हैं। अब ऐसी सूरत में कौन सी दलील तुम्हारे पास बाक़ी है जो हमारे लिये हुज्जत क़रार पाए। यह कलाम सुन कर अकसर मुनाज़िर ख़ामोश हो जाया करते थे। मामून रशीद के इशारे पर एक दिन वह हज़रात इमाम रज़ा (अ.स.) से भी हम कलाम हुआ। मौक़ा ए मनाज़ेरह में उसने मज़कूरा सवाल दोहराते हुये कहा कि पहले आप यह फ़रमायें कि हज़रत ईसा की नबूवत और उनकी किताब दोनों पर आपका ईमान व एतेक़ाद है या नहीं। आपने इरशाद फ़रमाया कि मैं उस ईसा की नबूवत का यक़ीनन एतेक़ाद रखता हूँ जिसने हमारे नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की अपने हवारीन को बशारत दी है और उस किताब की तसदीक़ करता हूँ जिसमें यह बशारत दर्ज है। जो ईसाई उसके मोतरिफ़ नहीं और जो किताब उसकी शारेह और मुसद्दक़ नहीं उस पर मेरा ईमान नहीं है। यह जवाब सुन कर जासलीक खा़मोश हो गया। फिर आपने इरशाद फ़रमाया कि ऐ जासलीक हम उस ईसा को जिसने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की बशारत दी , नबीए बरहक़ जानते हैं मगर तुम उनकी तन्क़ीस करते हो और कहते हो कि वह नमाज़ रोज़े के पाबन्द न थे। जाशलीक ने कहा कि हम तो यह नहीं कहते वह तो हमेशा क़ायमुल लैल और साएमुन नहार रहा करते थे। आपने फ़रमाया , ईसा तो बनाबर एतेक़ाद नसारा ख़ुद माज़ अल्लाह ख़ुदा थे। तो वह रोज़ा और नमाज़ किसके लिये करते थे। यह सुन कर जाशलीक मबहूत हो गया और कोई जवाब न दे सका। अलबत्ता यह कहने लगा कि जो मुर्दो को ज़िन्दा करे , जुज़ामी को शिफ़ा दे , नाबीना को बीना बनाये और पानी पर चले क्या वह इसका सज़ावार नहीं कि उसकी परस्तिश की जाय और उसे माबूद समझा जाय। आपने फ़रमाया इलयासाह भी पानी पर चलते थे , अन्धे , कोढ़ी को शिफ़ा देते थे। इसी तरह हिज़क़ील पैग़म्बर (अ.स.) ने 35 हज़ार इन्सानों को साठ बरस के बाद ज़िन्दा किया था। कौमे इसराईल के बहुत से लोग ताऊन के ख़ौफ़ से अपने घर छोड़ कर बाहर चले गये थे। हक़्के़ ताआला ने एक सआत में सब को मार दिया था बहुत दिनों के बाद एक नबी इस्तेख़्वाने बोसीदा (बोसीदा हड्डियों) से गुज़रे तो ख़ुदा वन्दे आलम ने उन पर वही नाज़िल की उन्हें आवाज़ दो। उन्होंने कहा ऐ अज़ाम बालिया (मुर्दा हड्डियों) उठ ख़डे हो। वह सब ब हुक्मे ख़ुदा उठ खड़े हुये। इसी लिये हज़रते इब्राहीम (अ.स.) के परिन्दों को ज़िन्दा करने और हज़रते मूसा (अ.स.) के कोहे तूर पर ले जाने और रसूले ख़ुदा (स.अ.) के अहयाए अम्वात फ़रमाने का हवाला दे कर फ़रमाया कि इन चीज़ों पर तौरेत व इन्जील और क़ुरआन मजीद की शहादत मौजूद है। अगर मुर्दो को ज़िन्दा करने से इन्सान ख़ुदा हो सकता है तो यह सब अम्बिया भी ख़ुदा होने के मुस्तहक़ हैं। यह सुन क रवह चुप हो गया और उसने इस्लाम क़ुबूल करने के सिवा और चारा न देखा।


आलिमे यहूद से मनाज़ेरा

उल्माए यहूद में से एक आलिम जिसका नाम ‘‘ रासुल जालूत ’’ था , को अपने इल्म पर बड़ ग़ुरूर और तकब्बुर व नाज़ था। वह किसी को भी अपनी नज़र में न लाता था। एक दिन उसका मनाज़रह और मुबाहेसा फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से हो गया। आपसे गुफ़्तुगू के बाद उसने अपने इल्म की हक़ीक़त जानी और समझा कि मैं ख़ुद फ़रेबी में मुबतेला हूँ।

इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर होने के बाद उसने अपने ख़्याल के मुताबिक़ बहुत सख़्त सवालात किये। जिनके तसल्ली बख़्श और इत्मीनान आफ़रीन जवाबात से बहरावर हुआ। जब वह सवालात कर चुका तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम तौरैत की इस इबारत का क्या मतलब समझते हो कि ‘‘ आया नूर सीना से और रौशन हुआ जबले साएर से और ज़ाहिर हुआ कोहे फ़ारान से ’’ उसने कहा कि इसे हम ने पढ़ा ज़रूर है लेकिन उसकी तशरीह से वाक़िफ़ नहीं हूँ। आपने इरशाद फ़रमाया , कि नूर से वही मुराद है। तमरे सीना से वह पहाड़ मुराद है जिस पर हज़रत मूसा (अ.स.) ख़ुदा से कलाम करते थे। जबल साईर से महल व मक़ामें ईसा (अ.स.) मुराद है। कोहे फ़ारान से जबले मक्का मुराद है जो शहर से एक मंज़िल के फ़ासले पर वाक़े है। फिर फ़रमाया तुम ने हज़रते मूसा (अ.स.) की यह वसीयत देखी है कि तुम्हारे पास बनी अख़वान से एक नबी आयेगा उसकी बात मानना और उसके क़ौल की तसदीक़ करना। उसने कहा देखी है। आपने पूछा की बनी अख़वान से कौन मुराद है ? उसने कहा मालूम नहीं। आपने फ़रमाया कि वह औलादे इस्माईल हैं क्यों कि वह हज़रत इब्राहीम के एक बेटे हैं और बनी इसराईल के मुरेसे आला हज़रत इस्हाक़ बनी इब्राहीम के भाई हैं और उन्हीें से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) हैं।

उसके बाद जबले फ़ारान वाली बशारत की तशरीह फ़रमा कर कहा कि शैया नबी का क़ौल तौरैत में मज़कूर है कि मैंने दो सवार देखे कि जिनके परतौ से दुनिया रौशन हो गई। उन्में एक गधे पर सवारी किये था और एक ऊँट पर। ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम बतला सकते हो उस से कौन मुराद हैं ? उसने इन्कार किया , आपने फ़रमाया कि राकेबुल हमार से हज़रत ईसा (अ.स.) और राकेबुल जमल से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) मुराद हैं।

फिर आपने फ़रमाया कि तुम हज़रत जबकूक नबी के उस क़ौल से वाक़िफ़ हो कि ख़ुदा अपना बयान जबले फ़ारान से लाया और तमाम आसमान हम्दे इलाही की आवाज़ों से भर गये। उसकी उम्मत और उसके लशकर के सवार ख़ुशकी और तरी में जंग करेंगे। उन पर एक किताब आयेगी और सब कुछ बैतुल मुकद्दस की ख़राबी के बाद होगा। इसके बाद इरशाद फ़रमाया कि यह बताओ कि तुम्हारे पास हज़रत मूसा (अ.स.) की नबूवत की क्या दलील है ? उसने कहा कि उनसे वह उमूर ज़ाहिर हुए जो उनसे पहले के अम्बिया पर नहीं हुए थे। मसलन दरिया ए नील का शिग़ाफ़ता होना। असा का संाप बन जाना। एक पत्थर से बारह चशमों का जारी होना और यदे बैज़ा वग़ैरा। आपने फ़रमाया कि जो भी इस क़िस्म के मोजेज़ात को ज़ाहिर करे और नबूवत का मुद्दई हो उसकी तसदीक़ करनी चाहिये। उसने कहा नही। आपने फ़रमाया क्यों ? कहा इस लिये कि मूसा को जो क़ुरबत या मंज़िलत हक़्क़े ताआला के नज़दीक़ थी वह किसी को नहीं हुई। लेहाज़ा हम पर वाजिब है कि जब तक कोई शख़्स बैनेह वही मोजेज़ात व करामात न दिखलाये हम उसकी नबूवत का इक़रार न करेंगे। इरशाद फ़रमाया कि तुम मूसा (अ.स.) से पहले अम्बिया मुरसलीन की नबूवत का किस तरह इक़रार करते हो हांला कि उन्होंने न कोई दरिया शिग़ाफ़्ता किया न किसी पत्थर से चशमें निकाले न उनका हाथ रौशन हुआ और न उनका असा अज़दहा बना। ‘‘ रासुल जालूत ’’ ने कहा कि जब ऐसे उमूर व अलामात ख़ास तौर से उनसे ज़ाहिर हों जिनके इज़हार से उमूमन तमाम ख़लाएक़ आजिज़ हो , तो वह अगरचे बैनेह ऐसे मोजेज़ात हों या न हों। उनकी तस्दीक़ हम पर वाजिब हो जायेगी।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा (अ.स.) भी मुर्दों को ज़िन्दा करते , कोरे मादर ज़ाद (पैदाईशी अन्धे) को बीना बनाते। मबरूस को शिफ़ा देते। मिट्टी की चिड़िया बना कर हवा में उड़ाते थे। वह यह उमूर हैं जिनसे आम लोग आजिज़ हैं फिर तुम उनको पैग़म्बर क्यों नहीं मानते ? रासुल जालूत ने कहा कि लोग ऐसा कहते हैं मगर हमने उनको ऐसा करते देखा नहीं है। फ़रमाया तो क्या आयात व मोजेज़ाते मूसा (अ.स.) को तुमने अपनी आंखों से देखा है आखि़र वह भी तो मोतबर लोगों की ज़बानी सुना ही होगा। वैसा ही अगर ईसा (अ.स.) के मोजेज़ात मोतबर लोगों से सुनो तो तुमको उनकी नबूवत पर ईमान लाना चाहिये और बिल्कुल इसी तरह हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत व रिसालत का इक़रार आयातो , मोजेज़ात की रौशनी में करना चाहिये। सुनो उनका एक अज़ीम मोजेज़ा कु़रआने मजीद है जिसकी फ़साहतो बलाग़त का जवाब क़यामत तक नहीं दिया जा सकेगा। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गया।


आलिमे मजूस से मनाज़ेरा

मजूसी यानी आतश परस्त का एक मशहूर आलिम ‘‘ हरबिज़ा अकबर ’’ हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर इल्मी गुफ़्तुगू करने लगा। आपने उसके सवालात के मुकम्मल जवाबात इनायत फ़रमाये। उसके बाद उस से सवाल किया कि तुम्हारे पास ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत की क्या दलील है। उसने कहा कि उन्होेंने हमारी ऐसी चीज़ों की तरफ़ रहबरी फ़रमाई है जिसकी तरफ़ पहले किसी ने रहनुमाई नहीं की थी। हमारे असलाफ़ कहा करते थे कि ‘‘ ज़र तश्त ’’ ने हमारे लिये वह उमूर मुबाह किये हैं कि उनसे पहले किसी ने नहीं किये थे। आपने फ़रमाया कि तुम को इस अम्र में क्या उज़्र हो सकता है कि कोई शख़्स किसी नबी और रसूल के फ़ज़ायलो कमालात तुम पर रौशन करे और तुम उसके मानने में पसो पेश करो। मतलब यह है कि जिस तरह तुम ने मोतबर लोगों से सुन कर ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत मान ली। उसी तरह मोतबर लोगों से सुन कर अम्बिया और रसूल की नबूवत के मानने में तुम्हें क्या उज़्र हो सकता है। यह सुन क रवह ख़ामोश हो गया।