
हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी का दुशमनों पर असर
तारीख़े इस्लाम में है कि इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी की ख़बर सुन कर बग़दाद के अब्बासी ख़याल कर के कि यह खि़लाफ़त हमारे ख़ानदान से निकल चुकी , कमाल दिल सोख़ता हुये और उन्होंने इब्राहीम बिन मेंहदी को बग़दाद के तख़्त पर बिठा दिया और मोहर्रम 202 हिजरी में मामून की माजूली का ऐलान कर दिया। बग़दाद और उसके क़रीबी जगहों मे बिल्कुल बद नज़मी फैल गई। लुच्चे ग़ुन्डे दिन दहाड़े लूट मार करने लगे। जुनूबी ईराक़ और हिजाज़ में भी मामेलात की हालत ऐसी ही हो रही थी। फ़ज़ल वज़ीरे आज़म सब ख़बरों को बादशाह से पोशीदा रखता था मगर इमाम रज़ा (अ.स.) ने उसे ख़बरदार कर दिया। बादशाह वज़ीर की तरफ़ से बदज़न हो गया। मामून को जब इन शोरिशों की ख़बर हुई तो बग़दाद की तरफ़ रवाना हो गया। सरख़स में पहुँच कर उसने फ़ज़ल बिन सहल वज़ीरे सलतनत को हम्माम में क़त्ल करा दिया।
शम्सुल उलेमा शिब्ली नोमानी , हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की बैअते वली अहदी का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि इस अनोखे हुक्म ने बग़दाद में एक क़यामत अंगेज़ हलचल मचा दी और मामून से मुख़ालेफ़त का पैमाना लबरेज़ हो गया। बाजो़ ने सब्ज़ रंग वग़ैरा के एख़्तियार करने के हुक्म की ब जब्र तामील की मगर आम सदा यही थी कि खि़लाफ़त ख़ानदाने अब्बास के दायरे से बाहर नहीं जा सकती।
अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जब वली अहदे खि़लाफ़त मुक़र्रर किये जाने लगे मामून के हाशिया नशीन सख़्त बद ज़न और दिल तंग हो एक और उन पर यह ख़ौफ़ छा गया कि अब खि़लाफ़त बनी अब्बास से निकल कर बनी फ़ात्मा की तरफ़ चली जायेगी और इसी तसव्वुर ने उन्हें हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से सख़्त मुतनफ़्फ़िर कर दिया।
वाक़िए हिजाब
मोअर्रेख़ीन लिखते हैं कि इस वाक़िए वली अहदी से लोगों में इस दर्जा बुग़ज़ हसद और किना पैदा हो गया कि वह लोग मामूली मामूली बातों पर इसका मुज़ाहेरा कर देते थे।
अल्लामा शिब्लन्जी और अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ई लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के बाद यह उसूल था कि आप मामून से अकसर मिलने के लिये तशरीफ़ ले जाया करते थे और होता यह था कि जब आप दहलीज़ के क़रीब पहुँचते थे तो तमाम दरबान और ख़ुद्दाम आपकी ताज़ीम के लिये खड़े हो जाते थे और सलाम कर के पर्दा ए दर उठाया करते थे। एक दिन सब ने मिल कर तय कर लिया कि कोई पर्दा न उठाए चुनान्चे ऐसा ही हुआ जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ लाए तो हिज्जाब ने पर्दा न उठाया। मतलब यह था कि इससे इमाम की तौहीन होगी , लेकिन अल्लाह के वली को कोई ज़लील नहीं कर सकता। जब ऐसा मौक़ा आया तो एक तुन्द हवा ने पर्दा उठाया और इमाम दाखि़ले दरबार हो गए। फिर जब आप वापस तशरीफ़ लाए तो हवा ने बदस्तूर पर्दा उठाने में सबक़त की। इसी तरह कई दिन तक होता रहा। बिल आखि़र वह सब के सब शर्मिन्दा हो गये और इमाम (अ.स.) की खि़दमत मिस्ल साबिक़ करने लगे।
हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और नमाज़े ईद
वली अहदी को अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे कि ईद का मौक़ा आ गया मामून ने हज़रत से कहला भेजा कि आप सवारी पर जा कर लोगों को नमाज़े ईद पढ़ायें। हज़रत ने फ़रमाया कि मैंने पहले ही तुम से शर्त कर ली है कि बादशाहत और हुकूमत के किसी काम में हिस्सा न लूंगा और न इसके क़रीब जाऊँगा इस वजह से तुम मुझको इस नमाज़े ईद से भी माफ़ रखो। मगर मामून ने बहुत इसरार किया। हज़रत ने फ़रमाया कि अगर तुम माफ़ कर दो तो बेहतर है वरना मैं नमाज़े ईद के लिये उसी तरह जाऊँगा जिस तरह मेरे जद्दे माजिद हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) तशरीफ़ ले जाया करते थे। मामून ने कहा आपको इख़्तेयार है जिस तरह चाहे जायें। इसके बाद उसने सवारों और प्यादों को हुक्म दिया कि हज़रत के दरवाज़े पर हाज़िर हों। जब यह ख़बर शहर में मशहूर हुई तो लोग ईद के रोज़ सड़को पर छतों पर हज़रत की सवारी की शान देखने को जमा हो गये , एक भीड़ लग गई। औरतों और लड़कों सब को आरज़ू थी कि हज़रत की ज़्यारत करें। और आफ़ताब निकलने के बाद हज़रत ने गु़स्ल किया और कपड़े बदले , सफ़ेद अम्मामा सर पर बांधा , इत्र लगाया और असा हाथ में ले कर ईद गाह जाने पर आमादा हुए । इसके बाद नौकरों और ग़ुलामों को हुक्म दिया कि तुम भी ग़ुस्ल कर के कपड़े बदल लो और इसी तरह पैदल चलो। इस इन्तेज़ाम के बाद हज़रत घर से बाहर निकले। पाएजामा आधी पिंडली तक उठा लिया। कपड़ों को समेट लिया , नंगे पांव हो गए और फिर दो तीन क़दम चल कर खड़े हो गए और सर को आसमान की तरफ़ बलन्द कर के कहा , अल्लाहो अकबर , अल्लाहो अकबर । हज़रत के साथ नौकरों ग़ुलामों और फ़ौज के सिपाहियों ने भी तकबीर कही।
रावी का बयान है कि जब इमाम रज़ा (अ.स.) तकबीर कह रहे थे तो हम लोगों को मालूम होता था कि दरो दीवार और ज़मीनो आसमान से हज़रत की तकबीरों का जवाब सुनाई देता है। इस हैबत को देख कर यह हालत हुई कि सब लोग और खुद लशकर वाले ज़मीन पर गिर पड़े। सब की हालत बदल गई। लोगों ने छुरियों से अपनी जुतीयों के कुल तसमें काट दिये और जल्दी जल्दी जुतियां फेक कर नगें पांव हो गयें। शहर भर के लोग चीख़ चीख़ कर रोने लगे। एक कोहराम बरपा हो गया। इसकी ख़बर मामून को भी हो गई। वज़ीर फ़ज़ल बिन सहल ने इससे कहा कि अगर इमाम इमाम रज़ा (अ.स.) की इसी हालत से ईद गाह तक पहुँच जायेंगे तो मालूम नहीं क्या फ़ितना और हंगामा हो जायेगा। सब लोग इनकी तरफ़ हो जायेगें और हम नहीं जानते कि हम लोग कैसे बचेगें। वज़ीर की इस तक़रीर पर मुतानब्बे हो कर मामून ने अपने पास से एक शख़्स को हज़रत की खि़दमत में भेज कर कहला भेजा कि मुझ से ग़लती हो गई है जो आप से ईद गाह जाने के लिये कहा। इस से आपको ज़हमत हो रही है और मैं आपकी मशक़्क़त को पसन्द नहीं करता। बेहतर है कि आप वापस चले आयें और ईदगाह जाने की ज़हमत न फ़रमायें। पहले जो शख़्स नमाज़ पढ़ाता था पढ़ायेगा। यह सुन कर हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) वापस तशरीफ़ लाए और नमाज़े ईद न पढ़ सके।
अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि फ़राज़ अल अरज़ा अला बैत व रक़ब अल मामून फ़सल ब अलनास कि रज़ा (अ.स.) दोलत सरा को वापस तशरीफ़ लाए और मामून ने जा कर नमाज़ पढ़ाई।