
मामून की तलबी से क़ब्ल इमाम (अ.स.) की रौज़ा ए रसूल पर फ़रयाद
अबू मख़नफ़ बिने लूत बिने यहया ख़ज़ाई का बयान है कि हज़रते इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की शहादत के बाद 15 मोहर्रमुल हराम शबे यक शम्बा को हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने रौज़ा ए रसूले ख़ुदा (स.अ.) पर हाज़री दी। वहां मशग़ूले इबादत थे कि आंख लग गई , ख़्वाब में देखा कि हज़रत रसूले करीम (स.अ.) बा लिबासे स्याह तशरीफ़ लाये हैं और सख़्त परेशान हैं। इमाम (अ.स.) ने सलाम किया हुज़र ने जवाबे सलाम दे कर फ़रमाया , ऐ फ़रज़न्द ! मैं और अली (अ.स.) , फ़ात्मा (स.अ.) हसन (अ.स.) , हुसैन (अ.स.) सब तुम्हारे ग़म में नाला व गिरया हैं और हम ही नहीं फ़रज़न्द ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) व मोहम्मद बाक़र (अ.स.) , जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और तुम्हारे पदर मूसिए काज़िम (अ.स.) सब ग़मगीन और रंजीदा हैं। ऐ फ़रज़न्द ! अन्क़रीब मामून रशीद तुम को ज़हर से शहीद कर देगा। यह देख कर आपकी आंख खुल गई और आप ज़ार ज़ार रोने लगे। फिर रौज़ा ए मुबारक से बाहर आए। एक जमाअत ने आपसे मुलाक़ात की और आपको परेशान देख कर पूछा कि मौला इज़तिराब की वजह क्या है ? फ़रमाया , अभी अभी जद्दे नाम दार ने मेरी शहादत की ख़बर दी है। अबुल सलत दुश्मन मुझे शहीद करना चाहते हैं और मैं खुदा पर पूरा भरोसा करता हूँ जो मरज़िए माबूद हो वही मेरी मरज़ी है इस ख़्वाब के थोड़े अर्से के बाद मामून रशीद का लशकर मदीने पहुँच गया और इमाम (अ.स.) को अपनी सियासी ग़रज़ पूरी करने के लिये वहां से दारूल खि़लाफ़त ‘‘ मर्व ’’ में ले आया।
इमाम रज़ा (अ.स.) की मदीने से मर्व में तलबी
अल्लामा शिब्लन्जी लिखते है कि हालात की रौशनी में मामून ने अपने मुक़ाम पर यह क़तई फ़ैसला और अज़म बिल जज़म कर लेने के बाद कि इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहले खि़लाफ़त बनायेगा। अपने वज़ीरे आज़म फ़ज़ल बिन सहल को बुला कर भेजा और उससे कहा कि हमारी राए है कि हम इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहद सुपुर्द कर दे तुम भी इस पर सोच विचार करो और अपने भाई हसन बिन सहल से मशविरा करो। इन दोनों ने आपस में दबादलाए ख़यालात करने के बाद मामून की बारगाह में हाज़री दी। उनका मक़सद था कि मामून ऐसा न करे वरना खि़लाफ़त आले अब्बास से आले मोहम्मद (अ.स.) में चली जायेगी। उन लोगों ने अगर चे खुल कर मुख़ालफ़त न की लेकिन दबे लफ़्ज़ों में नाराज़गी का इज़हार किया। मामून ने कहा मेरा फ़ैसला अटल है और मैं तुम दोनों को हुक्म देता हूँ कि तुम मदीने जा कर इमाम रज़ा (अ.स.) को अपने हमराह लाओ। (हुक्मे हाकिम मर्गे मफ़ाजात) आखि़र कार यह दोनों इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में मक़ामे मदीने मुनव्वरा हाज़िर हुए और उन्होंने बादशाह का पैग़ाम पहुँचाया। हज़रते इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने इस अर्ज़ दाश्त को मुस्तरद कर दिया और फ़रमाया कि इस अम्र के लिये अपने को पेश करने के लिये माज़ूह हूँ लेकिन चूंकि बादशाह का हुक्म था कि उन्हें ज़रूर लाओ इस लिये उन दोनों ने बे इन्तेहा इसरार किया और आपके साथ उस वक़्त तक लगे रहे जब तक आपने मशरूत तौर पर वादा नहीं कर लिया।
इमाम रज़ा (अ.स.) की मदीने से रवानगी
तारीख़ अबुल फ़िदा में है कि जब अमीन क़त्ल हुआ तो मामून सलतनते अब्बासिया का मुस्तक़िल बादशाह बन गया। यह ज़ाहिर है कि अमीन के क़त्ल होने के बाद सलतनत मामून के पाए नाम हो गई मगर यह पहले कहा जा चुका है कि अमीन नाननहाल की तरफ़ से अरबीउन नस्ल था और मामून अजमिउन नस्ल था। अमीन के क़त्ल होने से ईराक़ की अरब का़ैम और अरकाने सलतनत के दिल मामून की तरफ़ से साफ़ नहीं हो सकते थे बल्कि वह ग़मो ग़स्से की कैफ़ीयत महसूस करते थे दूसरी तरफ़ खुद बनी अब्बास में से एक बडी़ जमाअत जो अमीन की तरफ़ दार थी इससे भी मामून को हर तरह का ख़तरा लगा हुआ था। औलादे फ़ात्मा (स.अ.) में से बहुत से लोग जो वक़्त्न फ़वक़्तन बनी अब्बास के मुक़ाबिल ख़ड़े होते रहते थे वह ख़्वाह क़त्ल कर दिये गये हों या जिला वतन किये गए हों या क़ैद रखे गए हों उनके मुआफ़िक़ एक जमाअत थी जो अगर चे हुकूमत का कुछ बिगाड़ न सकती थी मगर दिल ही दिल में हुकूमते बनी अब्बास से बेज़ार ज़रूर थी। ईरान में अबू मुस्लिम ख़ुरासानी ने बनी उमय्या के खि़लाफ़ जो इश्तेआल पैदा किया वह इन मज़ालिम को याद दिला कर जो बनी उमय्या के हाथों हज़रते इमाम हुसैन (अ.स.) और दूसरे बनी फ़ात्मा (स.अ.) के साथ किये गये थे। इस से ईरान में इस ख़ानदान के साथ हमदर्दी का पैदा होना फ़ितरी था। दरमियान में बनी अब्बास ने इससे ग़लत फ़ायदा उठाया मगर इतनी मुद्दत में कुछ ना कुछ ईरानियों की आंखें भी खुल गई होगीं कि उनसे कहा गया था क्या और इक़्तेदार किन लोगों ने हासिल कर लिया है। मुम्किन है कि ईरानी क़ौम के इन रूझानात का चर्चा मामून के कानो तक भी पहुँचा हो। अब जिस वक़्त की अमीन के क़त्ल के बाद वह अरब क़ौम पर और बनी अब्बास के ख़ानदान पर भरोसा नहीं कर सकता था और उसे हर वक़्त इस हल्क़े से बग़ावत का अन्देशा था तो उसे इसी सियासी मस्लहत इसी में मालूम हुई। अरब के खि़लाफ़ अजम और बनी अब्बास के खि़लाफ़ बनी फ़ात्मा को अपना बनाया जाए और चुंकि तरज़े अमल में ख़ुलूस समझा नहीं जा सकता और वह आम तबाए पर असर नहीं डाल सकता। अगर यह नुमाया हो जाए कि वह सीयासी मसलहतों की बिना पर है इस लिये ज़रूरत हुई कि मामून मज़हबी हैसियत से अपनी शियत नवाज़ी और विलाए अहले बैत के चर्चे अवाम में फैलाए और वह यह दिखलाए कि वह इन्तेहाई नेक नीयती पर क़ाएम है। ‘‘ अब हक़ बा हक़दार रसीद के मकूले को सच्चा बनाना चाहता है।’’
इस सिलसिले में जनाबे शेख़ सद्दूक़ आलाल्लाहो मुक़ामा ने फ़रमाया है कि इसने अपनी नज़र की हिक़ायत भी शाया की कि जब अमीन का और मेरा मुक़ाबला था और बहुत नाज़ुक हालत थी और यह उसी वक़्त मेरे खि़लाफ़ सीसतान और किरमान में भी बग़ावत हो गई थी और ख़ुरासान में भी बेचैनी फैली हुई थी और फ़ौज की तरफ़ से भी इतमिनान न था और उस वक़्त दुश्वार माहोल में मैंने खुदा से इलतिजा की और मन्नत मानी कि अगर यह सब झगड़े ख़त्म हो जायें और मैं बामे खिलाफ़त तक पहुँचू तो उसको उसके असली हक़दार यानी औलादे फ़ात्मा मे से जो इसका अहल है उस तक पहुँचा दूंगा। इसी नज़र के बाद मेरे सब काम बनने लगे और आखि़र तमाम दुश्मनों पर फ़तेह हासिल हुई यक़ीनी यह वाक़िया मामून की तरफ़ से इस लिये बयान किया गयाा कि इसका तर्ज़े अमल खुलूसे नियत और हुस्ने नियत पर मुबनी समझा जाए। यूं तो अहले बैत (अ.स.) के खुले दुश्मन सख़्त से सख़्त थे वह भी इनकी हक़ीक़त और फ़ज़ीलत से वाक़िफ़ थे। मगर शीयत के मानी यह जानना तो नहीं है बल्कि मोहब्बत रखना और इताअत करना है और मामून के तरज़े अमल से यह ज़ाहिर है कि वह इस दावाए शीयत और मोहब्बते अहले बैत का ढिंढोरा पीटने के बावजूद खुद इमाम की इताअत नहीं करना चाहता था बल्कि इमाम को अपना मंशा के मुताबिक़ चलाने की कोशिश थी। वली अहद बनने के बारे में आपके इख़्तेआरात को बिल्कुल सलब कर दिया गया और आपको मजबूर बना दिया गया था। इससे ज़ाहिर है कि यह वली अहदी की तफ़वीज भी एक हाकिमाना तशद्द था जो उस वक़्त इमाम के साथ किया जा रहा था।
इमाम रज़ा (अ.स.) का वली अहदी को क़ुबूल करना बिल्कुल वैसा ही था जैसा हारून के हुक्म से इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) का जेल ख़ाने में चला जाना। इस लिये जब इमाम रज़ा (अ.स.) मदीने से ख़ुरासान की तरफ़ रवाना हो रहे थे तो आपके रंजो सदमा और इस्तेराब की कोई हद न थी। रौज़ा ए रसूल से रूख़सत के वक़्त आपका वही आलम था जो हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का मदीने से रवानगी के वक़्त था। देखने वालों ने देखा कि आप बे ताबाना रौज़े के अन्दर जाते हैं और नालाओ आह के साथ उम्मत की शिकायत करते हैं। फिर बाहर निकल कर घर जाने का इरादा करते हैं और फिर दिल नहीं मानता फिर रौज़े से लिपट जाते हैं यही सूरत कई मरतबा हुई। रावी का बयान है कि मैं हज़रत के क़रीब गया तो फ़रमाया , ऐ महूल ! मैं अपने जद्दे अमजद के रौज़े से ब जब्र जुदा किया जा रहा हूँ , अब मुझको यहां आना नसीब न होगा।
महूल शैबानी का बयान है कि जब वह ना गवार वक़्त पहुँच गया कि हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) अपने जद्दे बुज़ुर्गवार के रौज़ा ए अक़दस से हमेशा के लिये विदा हुए तो मैंने देखा कि आप बेताबान अन्दर जाते और बा नालाओ आह बाहर आते हैं और दिल में उम्मत की शिकायत करते हैं या बाहर आ कर गिरया ओ बुका फ़रमाते हैं और फिर अन्दर चले जाते हैं। आपने चन्द बार ऐसे ही किया और मुझसे न रहा गया और मैंने हाज़िर हो कर अर्ज़ की मौला इज़्तेराब की क्या वजह है ? फ़रमाया , ऐ महूल ! मैं अपने नाना के रौज़े से जबरन जुदा किया जा रहा हूँ। मुझे इसके बाद अब यहां आना न नसीब होगा। मैं इसी मुसाफ़िरत और ग़रीबुल वतनी में क़त्ल कर दिया जााऊंगा और हारून रशीद के मक़बरे में मदफ़ून हूंगा। उसके बाद आप दौलत सरा में तशरीफ़ लाए और सब को जमा कर के फ़रमाया कि मैं तुम से हमेशा के लिये रूख़सत हो रहा हूँ। यह सुन कर घर में एक अज़ीम कोहराम बरबा हो गया और सब छोटे बड़े रोने लगे। आपने सब को तसल्ली दी और कुछ दीनार आइज़्ज़ा में तक़सीम कर के राहे सफ़र इख़्तेयार फ़रमाया। एक रवायत की बिना पर आप मदीने से रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचे और वहां तवाफ़ कर के ख़ाना ए काबा को रूख़सत फ़रमाया।