
Imamzadeh Aaqa Ali Abbas & Sayed Mohammed Asghar | Sons of Imam Musa Kazim AlaihisSalam.



आपके पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) को मालूम था कि हुकूमते वक़्त जिसकी बाग डोर उस वक़्त हारून रशीद अब्बासी के हाथों में थी। आपको आज़ादी की सांस न लेने देगी और ऐसे हालात पेश आ जायेंगे कि आपकी उम्र के आखि़री हिस्से और दुनियां को छोड़ने के मौक़े पर दोस्ताने अहले बैत का आपसे मिलना या बाद के लिये रहनुमा का दरयाफ़्त करना गै़र मुमकिन हो जायेगा इस लिये आपने उन्हें आज़ादी के दिनों और सुकून के अवक़ात में जब कि आप मदीने में थे , पैरवाने अहले बैत को अपने बाद होने वाले इमाम से रूशेनास कराने की ज़रूरत महसूस फ़रमाई। चुनान्चे औलादे फ़ात्मा (स.अ.) में से 17 आदमी जो मुम्ताज़ हैसियत रखते थे उन्हें जमा फ़रमा कर अपने फ़रज़न्द हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) की वसी होने और जांनशीनी का ऐलान फ़रमा दिया और एक वसियत नामा तहरीरन भी मुकम्मल फ़रमा दिया जिस पर मदीने के मोअज़्जे़ज़ीन में से आठ आदमियों की गवाही लिखी गई। यह अहतेमाम दूसरे आइम्मा के यहां नज़र नहीं आया सिर्फ़ उन ख़ुसूसी हालात की बिना पर जिन से दूसरे आइम्मा अपनी वफ़ात के मौक़े पर दो चार नहीं होने वाले थे।
183 हिजरी में हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ने क़ैद ख़ाना ए हारून रशीद में अपनी उम्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा गुज़ार कर दरजा ए शहादत हासिल फ़रमाया। आपकी वफ़ात के वक़्त इमाम रज़ा (अ.स.) की उम्र मेरी तहक़ीक़ के मुताबिक़ तीस साल की थी। वालिदे बुज़ुर्गवार की शहादत के बाद इमामत की ज़िम्मेदारियां आपकी तरफ़ मुन्तक़िल हो गई। यह वह वक़्त था कि बग़दाद में हारून रशीद तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतमक्किन था और बनी फ़ात्मा के लिये हालात बहुत ही ना साज़गार थे।
हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के बाद दस बरस हारून रशीद का दौर रहा। यक़ीनन वह इमामे रज़ा (अ.स.) के वजूद को भी दुनियां में इसी तरह बरदाश्त नहीं कर सकता था जिसके तरह उसके पहले आपके वालिदे बुज़ुर्गवार का रहना उसने गवारा नहीं किया। मगर यह तो इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के साथ जो तवील मुद्दत तक तशद्दुद और ज़ुल्म होता रहा और जिसके नतीजे में क़ैद खा़ने के ही अन्दर आप दुनिया से रूख़सत हो गये। इस से हुकूमते वक़्त की आम बदनामी हो गयी थी और या वाक़ेई ज़ालिम की बद सुलूक़ियों का एहसास और ज़मीर की तरफ़ से मलामत की कैफ़ियत थी जिसकी वजह से खुल्लम खुल्ला इमाम रज़ा (अ.स.) के खि़लाफ़ कोई कारवाई की थी लेकिन वक़्त से पहले उसने इमाम रज़ा (अ.स.) को सताने में कोई दक़ीक़ा अन्जाम नहीं दिया।
हज़रत के अहदे इमामत संभालते ही हारून रशीद ने आपका घर लुटवा दिया और औरतों के ज़ेवरात और अच्छे कपड़े तक उतरवा लिये थे।
तारीख़े इस्लाम मे है कि हारून रशीद ने इस हवाले और बहाने से कि मोहम्मद बिन जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने उसकी हुकूमत व खि़लाफ़त से इन्कार कर दिया है। एक अज़ीम फ़ौज ईसा जलोदी की मातहती में मदीना ए मुनव्वरा भेज कर हुक्म दिया कि अली व फ़ात्मा की तमाम औलाद को बिल्कुल ही तबाह व बरबाद कर दिया जाए , उनके घरों में आग लगा दी जाए , उनके सामान लूट लिये जायें और उन्हें इस दरजा मफ़लूज व मफ़लूक कर दिया जाऐ कि फिर उनमे किसी क़िस्म के हौसले के उभरने का सवाल ही पैदा न हो सके और मोहम्मद बिन जाफ़र को गिरफ़्तार कर के क़त्ल कर दिया जाय। ईसा जलोदी ने मदीने पहुँच कर तामीले हुक्म की कोशिश की और मुम्किन तरीक़े से बनी फ़ात्मा को तबाह व बरबाद किया। हज़रत मोहम्मद बिन जाफ़र (अ.स.) ने भर पूर मुक़ाबला किया लेकिन आखि़र में गिरफ़्तार हो कर हारून रशीद के पास पहुँचा दिये गये। ईसा जलूदी सादात किराम को लूट कर हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के दौलत कदे पर पहुँचा और उसने ख़्वाहिश की कि वह हस्बे हुक्म हारून रशीद , ख़ाना ए इमाम में दाखि़ल हो कर अपने हाथों से औरतों के ज़ेवरात और कपड़े उतारे। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया यह नहीं हो सकता , मैं खुद तुम्हें सारा सामान दिये देता हूँ । पहले तो वह उस पर राज़ी न हुआ लेकिन बाद में कहने लगा कि अच्छा आप ही उतार लाइये। आप महल सरा में तशरीफ़ ले गये और आपने तमाम ज़ेवरात और सारे कपड़े एक सतर पोश चादर के अलावा ला कर दे दिये और उसी के साथ साथ असासुल बैत नक़दो जिन्स यहां तक कि बच्चों के कान के बुन्दे सब कुछ उसके हवाले कर दिया। वह मलऊन ज़ेवरात ले कर बग़दाद रवाना हो गया। यह वाक़िया आपके आगा़ज़े इमामत का है। अल्लामा मजलिसी बेहारूल अनवार में लिखते हैं कि मोहम्मद बिन जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के वाक़ए से इमाम अली रज़ा (अ.स.) को ताअल्लुक़ न था। वह अकसर अपना चचा मोहम्मद को ख़ामोशी की हिदायत और सब्र की तलक़ीन फ़रमाया करते थे। अबुल फ़र्ज असफ़हानी मुक़ातिल तालिबैन में लिखते हैं कि मोहम्मद बिन जाफ़र निहायत मुत्तक़ी और परहेज़गार शख़्स थे। किसी नासिबी ने दस्ती कुतबा लिख कर मदीने की दीवारों पर चस्पा कर दिया था जिसमें हज़रत अली (अ.स.) और जनाबे फ़ात्मा (स.अ.) के मुताअल्लिक़ ना साज़ अल्फ़ाज़ थे। यही आप के खु़रूज का सबब बना। आपकी बैअत लफ़्ज़े अमीरल मोमेनीन से की गई। आप जब नमाज़ को निकलते थे तो आपके साथ दो सौ सुलहा ब अत्तक़िया हुआ करते थे। अल्लामा शिब्लिन्जी लिखते हैं कि इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की वफ़ात के बाद सफ़वान बिने यहिया ने इमाम अली रज़ा (अ.स.) से कहा कि मौला हम आपके बारे में हारून रशीद से बहुत ख़ाएफ़ हैं हमें डर है कि यह कहीं आपके साथ वही सुलूक न करे जो आपके वालिद के साथ कर चुका है। हज़रत ने इरशाद फ़रमाया कि यह तो अपनी सी करेगा लेकिन मुझ पर कामयाब न हो सकेगा चुनान्चे ऐसा ही हुआ और हालात ने उसे कुछ इस दरजा आखि़र में मजबूर कर दिया था कि वह कुछ भी न कर सका कि यहां तक कि जब ख़ालिद बिने यहिया बर मक्की ने उस से कहा कि इमामे रज़ा (अ.स.) अपने बाप की तरह अम्रे इमामत का ऐलान करते और अपने को इमामे ज़माना कहते हैं तो उसने जवाब दिया कि हम जो उनके साथ कर चुके हैं वही हमारे लिये काफ़ी है। अब तू चाहता है कि इन हम सब के सब को क़त्ल कर डालें अब मैं ऐसा नहीं करूँगा।
अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि फिर भी हारून रशीद का अहलेबैते रसूल (स.अ.) से शदीद इख़्तिलाफ़ और सादात के साथ जो बरताव अब तक रहा था उसकी बिना आम तौर से अम्माले हुकूमत या आम अफ़राद भी जिन्हें हुकूमत को राज़ी रखने की ख़्वाहिश थी अहलेबैत के साथ कोई अच्छा रवय्या रखने पर तैय्यार नहीं सकते थे और न इमाम के पास लोग इस्तफ़ादा के लिये जा सकते थे न हज़रत को सच्चे इस्लामी अहकाम की इशाअत के मवाक़े हासिल थे।
हारून का आखि़री ज़माना अपने दोनों बेटों , अमीन और मामून की बाहिमी रक़ाबतों से बहुत बे लुत्फ़ी में गुज़रा , अमीन पहली बीवी से था जो ख़ानदान शाही से मन्सूर दुवानक़ी की पोती थी और इस लिये अरब सरदार सब उसके तरफ़दार थे और मामून एक अजमी कनीज़ के पेट से था और इस लिये दरबार का अजमी तबक़ा उस से मोहब्बत रखता था। दोनों की आपस की रस्सा कशी हारून के लिये सोहाने रूह बनी हुई थी , उसने अपने ख़्याल में उसका तसफ़िया ममलेकत की तक़सीम के साथ यूं कर दिया कि दारूल सलतनत बग़दाद और उसके चारों तरफ़ के अरबी हिस्से जैसे शाम , मिस्र , हिजाज़ , यमन वग़ैरह मोहम्मद अमीन के नाम किये और मशरिक़ी मुमालिक जैसे ईरान , ख़ुरासान , तुरकिस्तान वग़ैरह मामून के लिये मुक़र्रर किये मगर यह तसफ़ीया तो उस वक़्त कारगार हो सकता था जब दोनों फ़रीक़ ‘‘ जियो और जीने दो ’’ के उसूल पर अमल करते होते लेकिन जहां इक़्तेदार की हवस कारफ़रमा हो वहां बनी अब्बास में एक घर के अन्दर दो भाई अगर एक दूसरे के मददे मुक़ाबिल हांे तो क्यों न एक दूसरे के खि़लाफ़ जारहाना कारवाही करने पर तैयार नज़र आये और क्यों उन ताक़तों में बाहिमी तसादुम हो जब कि उनमें से कोई इस हमदर्दी और असार और ख़ल्क़े ख़ुदा की खै़र ख़्वाही का भी हामिल नहीं है। जिसे बनी फ़ात्मा अपने पेशे नज़र रख कर अपने वाक़ई हुकू़क़ से चश्म पोशी कर लिया करते थे। इसी का नतीजा था कि इधर हारून की आंख बन्द हुई और उधर भाईयों में ख़ाना जंगी के शोले भड़क उठे। आखि़र चार बरस की मुसलसल कशमकश और तवील ख़ूं रेज़ी बाद मामून को कामयाबी हुई और उसका भाई अमीन मोहर्रम सन् 198 हिजरी में तलवार के घाट उतार दिया गया और मामून की खि़लाफ़त तमाम बनी अब्बास के हुदूदे सलतनत पर क़ायम हो गयी।
यह सच है कि हारून रशीद के अय्यामे सलतनत में आप की इमामत के दस साल गुज़ारे इस ज़माने मे ईसा जलूदी ताख़्त के बाद फिर उसने आपके मुआमलात की तरफ़ बिल्कुल सुकूत और ख़ामोशी इख़्तियार कर ली उसकी दो वजहे मालूम होती हैं। अव्वल तो यह कि इस दस साला ज़िन्दगी के इब्तिदाई अय्याम में वह आले बरामका के इस्तीसाल राफ़ि बिने लैस इब्ने तयार के ग़द्र और फ़साद के इन्सिदाद में जो समर कन्द के इलाक़े से नमूदार हो कर मा वराउन नहर और हुदूदे अरब तक फैल चुका था ऐसा हमा वक़्त और हमादम उलझा कि फिर उसको इन उमूर की तरफ़ तवज्जोह करने की ज़रा भी फ़ुरसत न मिली। दूसरे यह कि अपनी दस साला मुद्दत के आखि़री अय्याम में यह अपने बेटों में मुल्क तक़सीम कर देने के बाद खुद ऐसा कमज़ोर और मजबूर हो गया था कि कोई काम अपने इख़्तियार से नहीं कर सकता था। नाम का बादशाह बना बैठा हुआ अपनी ज़िन्दगी के दिन निहायत उसरत और तंगी की हालतों में काट रहा था। उसके सबूत के लिये वाक़िया ज़ैल मुलाहेज़ा फ़रमायें। सबाह तिबरी का बयान है कि हारून जब ख़ुरासान जाने लगा तो मैं नहरवान तक उसकी मुशायत को गया रास्ते में उसने बयान किया कि ऐ सबाह तुम अब इसके बाद फिर मुझे ज़िन्दा न पाओगे। मैंने कहा अमीरल मोमेनीन ऐसा ख़्याल न करें आप इन्शाअल्लाह सही ओ सालिम इस सफ़र से वापिस आयेंगे। यह सुन कर उसने कहा कि शायद तुझको मेरा हाल मालूम नहीं है। आ मैं दिखा दूं फिर मुझे रास्ता काट कर एक सिम्त दरख़्त के नीचे ले गया और वहां से अपने ख़वासों को हटा कर अपने बदन का कपड़ा उठा कर मुझे दिखाया , तो एक परचाए रेशम शिकम पर लपेटा हुआ था और उससे सारा बदन कसा हुआ था। यह दिखा कर मुझ से कहा कि मैं मुद्दत से बीमार हूँ तमाम बदन में दर्द उठता है मगर किसी से अपना हाल कह नहीं सकता तुम्हारे पास भी यह राज़ अमानत रहे। मेरे बेटों में से हर एक का गुमाशता मेरे ऊपर मुक़र्रर है। मामून की तरफ़ से मसरूर , अमीन की जानिब से बख़तीशू। यह लोग मेरी सांस तक गिनते रहते हैं और उन्हें चाहते हैं कि मैं एक रोज़ भी ज़िन्दा रहूं अगर तुम को यक़ीन न हो तो देखो मैं तुम्हारे सामने घोड़ा सवार होने को मांगता हूँ , ऐसा टट्टू मेरे लिये लायेंगे जिस पर सवार हो कर मैं और ज़्यादा बिमार हो जाऊँ। यह कह कर घोड़ा तलब किया। वाक़ई ऐसा लाग़र अड़यल टट्टू हाज़िर किया। उस पर हारून बे चूं चरां सवार हो गया और मुझको वहां से रूख़सत कर के जरजान का रास्ता पकड़ लिया।
बहरहाल हारूर रशीद की यही मजबूरीयां थीं जिन्होंने उसको हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के मुख़ालिफ़ाना उमूर की तरफ़ मुतवज्जेह नहीं होने दिया वरना उसे फ़ुरसत होती और वह अपनी क़दीम जी़ इख़्तियारी की हालतों पर क़ायम रहता तो इस सिलसिले की ग़ारत गरी व बरबादी को कभी भूलने वाला नहीं था मगर उस वक़्त क्या कर सकता था अपने ही दस्तो पा अपने ही इख़्तेयार में नहीं थे। बहरहाल हारून रशीद इसी ज़ीकुन नफ़्स मजबूरी नादारी और बेइख़्तेयारी की ग़ैर मुतहमिल मुसीबतों में ख़ुरासान पहुँच कर शुरू 193 हि. में मर गया।
इन दोनों भाइयों अमीन और मामून के मुतअल्लिक़ मुवर्रिख़ीन का कहना है कि मामून तो फिर भी सूझ बूझ और अच्छे कैरेक्टर का आदमी था लेकिन अमीन अय्याश , ला उबाली और कमज़ोर तबीयत का था। सलतनत के तमाम हिस्सों में बाज़ीगर , मसख़रे और नुजूमी जोतिशी बुलवाये। निहायत ख़ूबसूरत तवाएफ़ और निहायत कामिल गाने वालियों और ख़्वाजा सराओं को बड़ी बड़ी रक़में ख़र्च करके और नाटक की एक महफ़िल मिस्ल इन्द्र सभ के तरतीब दी। यह थियेटर अपने ज़र्क़ बर्क़ सामानों से परियों का अख़ाड़ा मालूम होता था। स्यूती ने इब्ने जरीर से नक़्ल किया है कि अमीन अपनी बीबियों को छोड़ कर ख़स्सियों से लवात करता था।( तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 60)