
हारून रशीद अब्बासी की सादात कुशी
हमीद बिन क़हतबा और उसका वाक़ेआ
तवारीख़ में है कि हारून रशीद तामीरे बग़दाद और दीगर मुल्की मसरूफि़यात की वजह से थोड़े अर्से तक सादात कुशी की तरफ़ मुतवज्जा न हो सका लेकिन जब उसे ज़रा सा सुकून हुआ तो उसने अपने आबाई जज़बात को बरूए कार लाने का तहय्या कर लिया और इसकी सई शुरू कर दी कि ज़मीन पर आले मोहम्मद का कोई बीज भी बाक़ी न रहने पाए , चुनान्चे उसने पूरा हौसला निकाला और हर मुमकिन सूरत से उन्हें तबाह व बरबाद कर दिया।
उलमा का कहना है कि उसने ग़ुन्ड़ों के गिरोह क़त्ले सादात के लिए मुक़र्रर कर दिये थे और ख़ुद अपनी हुकूमत के आला हुक्काम को ख़ुसूसी हुक्म भेज दिया था कि सलतनत व हुकूमत को पूरी ताक़त से सादात की तलाश की जाए और इनमें से एक को भी जि़न्दा ना छोड़ा जाए।
अल्लामा मजलिसी ‘‘ अब्दुल्लाह बज़ार नेशापुरी के हवाले से ’’ हाकिम ईरान हमीद इब्ने क़हतबा तूसी का एक ख़त लिखते हैं। इब्ने क़हतबा कहते हैं कि मैं इस लिये रौज़ा नमाज़ नहीं करता कि मुझे इल्म है कि मैं बख़्शा नहीं जा सकता और बहर सूरत जहन्नुम में जाऊँगा। ऐ अब्दुल्लाह! तुम से क्या बताऊँ अभी थोड़े अर्से की बात है कि हारून रशीद ने मुझे रात के वक़्त जब कि वह तूस आया हुआ था और मैं भी इत्तेफ़ाक़न आ गया , बुलाया और मुझे हुक्म दिया कि तुम इस ग़ुलाम के साथ जाओ और यह मेरी तलवार हमराह लेते जाओ , यह जो कहे वह करो। मैं इसके हुक्म से ग़ुलाम के साथ हो लिया। ग़ुलाम मुझे एक ऐसे मकान में ले गया जिसमें फ़ात्मा बिन्ते असद रसूल अल्लाह (स. अ.) और अली (अ.स.) की ज़ौजा बुतूल की औलाद क़ैद थी। ग़ुलाम ने एक कमरे का दरवाज़ा खोला और मुझ से कहा कि इन सब को क़त्ल कर के इस कुएं में डाल दो , मैंने उन्हें क़त्ल किया और कुएं में डाल दिया। फिर दूसरा कमरा खोला और मुझ से कहा कि इन सब को क़त्ल कर के कुऐं में डालो , मैंने उन्हें भी क़त्ल किया। मगर तीसरा कमरा खोला और मुझ से कहा कि उन्हें भी क़त्ल करो। मैंने उन्हें भी क़त्ल किया। ऐ अब्दुल्लाह इन सब मक़तूलों की तादाद साठ थी। इनमें छोटे , बड़े , बूढ़े , जवान और सभी कि़स्म के सादात थे। ऐ अब्दुल्लाह जब मैं आख़री कमरे के क़ैदी सादात को क़त्ल करने लगा तो आखि़र में एक नेहायत नूरानी बुजुर्ग बरामद हुए और मुझ से कहने लगे , ऐ ज़ालिम ! क्या रसूल अल्लाह (स अ व व ) को मुँह नहीं दिखाना है ? और क्या खुदा की बारगाह में तुझे नहीं जाना है ? यह तू क्या कर रहा है। इसका कलाम सुन कर मेरा दिल काँप गया और उन पर मेरा हाथ न उठा। इतने में ग़ुलाम ने मुझे डाँट कर कहा हुक्मे अमीर में क्यों देर करता है। उसके यह कहने पर मैंने उन्हें भी तलवार के घाट उतार दिया। अब मेरी नमाज़ और मेरा रौज़ा मुझे क्या फ़ायदा पहुँचा सकता है।
हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की दोबारा गिरफ़्तारी
अल्लामा इब्ने शहर आशोब , अल्लामा तबरसी , अल्लामा अरबली , अल्लामा शिबलन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि 169 -70 हिजरी में हादी के बाद हारून तख़्ते खि़लाफ़त पर बैठा। सलतनत अब्बासीया के क़दीम रवायत जो सादात बनी फ़ात्मा (स अ व व ) की मुख़ालेफ़त मे थे इसके पेशे नज़र थे। खुद इसके बाप मन्सूर का रवय्या जो इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के खि़लाफ़ था उसे मालूम था। उसका यह इरादा की जाफ़रे सादिक़ के जानशीन को क़त्ल कर डाला जाए यक़ीनन उसके बेटे हारून को मालूम हो चूका होगा वह तो इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की हाकीमाना वसीयत का इख़्लाक़ी दबाव था जिसने मन्सूर के हाथ बांध दिये थे और फिर शहर बग़दाद की तामीर की मसरूफ़ीयत थी जिसने उसे उस जानिब मुतावज्जे नहीं होने दिया था। अब हारून के लिये उनमें से कोई बात माने नहीं थी तख़्ते सलतनत पर बैठ कर अपने अख़्तेदार को मज़बूत करने के रखने के लिये सब से पहले यह ही तसव्वर पैदा हो सकता था कि इस रूहानियत के मरक़ज़ को जो मदीने महल्ला बनी हाशिम में क़ाएम है तोड़ने की कोशिश की जाए मगर एक तरफ़ इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) का मोहतात और ख़ामोश तरज़े अमल और दूसरी सलतनत की अन्दुरूनी मुश्किलात उनकी वजह से 9 बरस तक हारून रशीद को भी किसी खुले हुऐ तशद्दुद का इमाम के खि़लाफ़ मौक़ा न मिला।
इसी दौरान में अब्दुल्लाह इब्ने हसन के फ़रज़न्द याहिया दरपेश हुआ वह अमान दिये जाने के बाद तमाम अहदो पैमान को तोड़ कर दर्द नाक तरीक़े पर क़ैद रखे गये और फिर क़त्ल किये गए बावजूद कि याहिया के मामलात से इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को किसी तरह का सरो कार न था बल्कि वाक़ेयात से साबित होता है कि हज़रत उनको हुकूमते वक़्त की मुख़ालफ़त से मना फ़रमाते थे। मगर अदावते बनी फ़ात्मा का जज़बा जो याहिया बिन अब्दुल्लाह की मुख़ालेफ़त के बहाने से उभर गया था इसकी ज़द से हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी महफ़ूज़ न सके। इधर याहिया बिन खा़लिद बर मक्की जो वज़ीरे आज़म था अमीन (फ़रज़न्द हारून रशीद) के अतालिक़ ताफरबिन मोहम्मद अशअस की रक़ाबत में इसके खि़लाफ़ यह इल्ज़ाम क़ाएम किया कि यह इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के शियों में से है और इनके इक़तिदार का ख़्वाह है।
बराह रास्त उस का मक़सद हारून को जाफ़र से बरग़श्ता करना था लेकिन बिल वास्ता इसका ताअल्लुक़ हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के साथ भी था इस लिये हारून को हज़रत की ज़रर रसानी की फि़क्र पैदा हो गई इस दौरान में यह वाकि़या पैदा हुआ कि हारून रशीद हज के इरादे से मक्का मोअज़्ज़मा में आया। इत्तेफ़ाक़ से इसी साल हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी हज को तशरीफ़ लाए हुए थे। हारून ने अपनी आँख से इस अज़मत व मरजीयत का मुशाहेदा किया जो मुसलमानों में इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के मुतालिक़ पाई जाती थी। इससे इसके हसद की आग भी भड़क उठी। इसके बाद इसमें मोहम्मद बिन इस्माईल की मुख़ालेफ़त ने और इज़ाफ़ा कर दिया वाक़ेया ये है कि इस्माईल इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के बड़े फ़रज़न्द थे और इस लिये उनकी जि़न्दगी में आम तौर पर लोगों का ख़्याल यह था कि वह इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के क़ायम मुक़ाम हो गये मगर उनका इन्तेक़ाल इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के ज़माने में ही हो गया और लोगों का ख़्याल ग़लत साबित हुआ फिर भी बाज़ सादा लौह असहाब इस ख़्याल पर क़ायम रहे कि जा नशिनी का हक़ इस्माईल और औलादे इस्माईल में मुनहासिर है। उन्होंने इमाम हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की इमामत को क़ुबूल नहीं किया चुनान्चे इस्माईलिया फि़रका़ बन गया मुख़्तसर तादाद में सही अब दुनिया में मौजूद थे। मोहम्मद इन ही इस्माईल के फ़रज़न्द थे और इस लिये मूसा काजि़म (अ.स.) से एक तरह की मुख़ालेफ़त पहले से रखते थे। मगर चुंकि इनके मानने वालों की तादाद बहुत ही कम थी और वह हज़रात कोई नुमाया हैसियत न रखते थे इस लिये ज़ाहिरी तौर पर इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के यहां आमदो नफ़्त रखते थे और ज़ाहिरी तौर पर क़राबत दारी के तालुक़ात क़ाएम किए हुए थे।
हारून रशीद ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की मुखालफ़त की सूरतों पर ग़ौर करते हुए याहिया बर मक्की से मशविरा लिया कि मैं चाहता हूँ कि औलादे अबू तालिब में से किसी को बुला कर इससे मूसा इब्ने जाफ़र के पूरे हालात दरयाफ़्त करूं। याहिया जो ख़ुद अदावत बनी फ़ात्मा में हारून से कम न था इसने मोहम्मद बिन इस्माईल का पता दिया कि आप इनको बुला कर दरयाफ़्त करें तो सही हालात मालूम हो सकेंगे चुनान्चे उसी वक़्त मोहम्मद बिन इस्माईल के नाम ख़त लिखा गया।
शहनशाहे वक़्त का ख़त जो मोहम्मद बिन इस्माईल को पहुँचा तो उसने अपनी दुनियांवी कामयाबी का बेहतरीन ज़रिया समझ कर फ़ौरन बग़दाद जाने का इरादा कर लिया मगर इन दिनों हाथ बिल्कुल ख़ाली थे , इतना रूपया पैसा मौजूद न था कि सामाने सफ़र करते मजबूरत इसी डेवढी पर आना पड़ा जहां करम व अता में दोस्त व दुश्मन की तफ़रीक़ न थी। इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के पास आ कर बग़दाद जाने का इरादा ज़ाहिर किया। हज़रत ख़ूब समझते थे कि इस बग़दाद के सफ़र का पस मन्ज़र और इसकी बुनियाद क्या है। हुज्जत तमाम करने की ग़रज़ से आप ने सफ़र का सबब दरयाफ़्त किया। उन्होंने अपनी परेशान हाली बयान करते हुए क़र्ज़दार बहुत हो गया हूँ कि शायद वहां जा कर कोई सूरत बसर अवक़ात की निकले और मेरा क़र्ज़ा अदा हो जाए। हज़रत ने फ़रमाया वहां जाने की ज़रूरत नहीं है , मैं वादा करता हूँ कि तुम्हारा क़र्ज़ा अदा करूगां और जहां तक होगा। तुम्हारे ज़रूरयाते जि़न्दगी भी पूरी करता रहूँगा। अफ़सोस है कि मोहम्मद ने इसके बाद बग़दाद जाने का इरादा नहीं बदला। चलते वक़्त हज़रत से रूख़सत होने लगे तो अज्र किया कि मुझे वहां के मुताअल्लिक़ कुछ हिदायत फ़रमाई जाएं , हज़रत ने उसका कुछ जवाब न दिया। जब उन्होंने कई मरतबा इस्रार किया तो हज़रत ने फ़रमायाः बस इतना ख़्याल रखना कि मेरे ख़ून में शरीक न होना और मेरे बच्चों की यतीमी के बाएस न बनना। कुछ और हिदायत फ़रमाइये , हज़रत ने उसके अलावा कुछ कहने से इन्कार किया। जब वह चलने लगे तो हज़रत ने साढ़े चार सौ दीनार और पन्द्रह सौ दिरहम उन्हें मसारिफ़े सफ़र के लिये अता फ़रमायें। नतीजा वही हुआ जो हज़रत के पेशे नज़र था। मोहम्मद बिन इस्माईल बग़दाद पहुँचे और वज़ीरे आज़म बर मक्की के मेहमान हुए। उसके बाद यहीया के साथ हारून के दरबार में पहुँचे। मसलेहते वक़्त की बिना पर बहुत ताज़ीमो तकरीम की गई। गुफ़्तुगू के दौरान हारून ने मदीने के हालात दरयाफ़्त किये। मोहम्मद ने इन्तेहाईं ग़लत बयानियो के साथ वहां के हालात का तज़किरा किया और यह भी कहा कि मैंने आज तक नहीं देखा और न सुना कि एक मुल्क में दो बादशाह हों। उसने कहा ! कि इसका क्या मतलब ? मोहम्मद ने कहा कि बिल्कुल उसी तरह जैसे आप बग़दाद में सलतनत कर रहे हैं मूसा काजि़म मदीने में अपनी सलतनत क़ायम किये हुए हैं , अतराफ़ मुल्क से उनके पास खि़राज पहुँचता है और वह आपके मुक़ाबले के दावे दार हैं। उन्होंने बीस हज़ार अशरफी की एक ज़मीन ख़रीदी है जिसका नाम ‘‘ सैरिया ’’ है। (शिबलन्जी) यही बाते थीं जिनके कहने के लिये यहीया बर मक्की ने मोहम्मद को मुन्तखि़ब किया था। हारून का ग़ैज़ो ग़ज़ब इन्तेहाई इशतेआल के दरजे तक पहुँच गया उसने मोहम्मद को दस हज़ार दीनार अता कर के रूख़सत किया। ख़ुदा का करना यह कि मोहम्मद को इस रक़म से फ़ायदा उठाने का एक दिन भी मौक़ा नहीं मिला इसी शब को उनके हलक़ में दर्द पैदा हुआ ग़ालेबन ‘‘ ख़न्नाक ’’ हो गया और सुबह होते होते वह दुनिया से रूख़सत हो गये। हारून को यह ख़बर पहुँची तो अशरफि़यों के तोड़े वापस मंगवा लिये मगर मोहम्मद की बातों का असर उसके दिल पर ऐसा जम गया था कि उसने यह तय कर लिया कि इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) का नाम सफ़हे हसती से मिटा दिया जाय। चुनान्चे 169 हिजरी में फिर हारून रशीद ने मक्कए मोअज़्ज़मा का सफ़र किया और वहां से मदीना ए मुनव्वरा गया। दो एक रोज़ क़याम के बाद कुछ लोग इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को गिरफ़्तार करने के लिये रवाना किये। जब यह लोग इमाम (अ.स.) के मकान पर पहुँचे तो मालूम हुआ कि हज़रत रौज़ा ए रसूल (स अ व व ) पर हैं। उन लोगों ने रौज़ा ए पैग़म्बर (स अ व व ) की इज़्ज़त का भी ख़्याल न किया। हज़रत उस वक़्त क़ब्रे रसूल (स अ व व ) के नज़दीक नमाज़ में मशग़ूल थे। बे रहम दुश्मनों ने आपको नमाज़ की ही हालत में क़ैद कर लिया और हारून के पास ले गये।
मदीना ए रसूल (स अ व व ) के रहने वालों में बे हिसी इसके पहले भी बहुत दफ़ा देखी जा चुकी थी। यह भी इसकी एक मिसाल थी कि रसूल (स. अ.) के फ़रज़न्द रौज़ा ए रसूल (स अ व व ) से इस तरह गिरफ़्तार कर के ले जाया जा रहा था मगर नाम नेहाद मुसलमानों में एक भी ऐसा न था जो किसी तरह की आवाज़े एहतेजाज बलन्द करता। यह 20 शव्वाल 179 हिजरी का वाकि़या है।
हारून इस अन्देशे से कि कोई जमाअत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को रिहा कराने की कोशिश न करे दो महमिले तैय्यार कराईं। एक में इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को सवार कराया और उसको एक बहुत बड़े फ़ौजी दस्ते के हल्क़े में बसरे रवाना किया और दूसरी महमिल जो ख़ाली थी उसे भी इतनी ही तादात की हिफ़ाज़त में बग़दाद रवाना किया। मक़सद यह था कि आपके महले क़याम और क़ैद की जगह को भी मशक़ूक बना दिया जाए। यह निहायत हसरत नाक वाकि़या था कि इमाम के अहले हरम और बच्चे वक़्ते रूख़सत आपको देख भी न सके और अचानक महल सरा में सिर्फ़ यह इत्तेला पहुँच सकी कि हज़रत सलतनते वक़्त की तरफ़ से क़ैद कर लिये गये हैं। इससे बीवियों और बच्चों में कोहराम बरपा हो गया और यक़ीनन इमाम के दिल पर भी जो इसका सदमा हो सकता है वह ज़ाहिर है मगर आपके ज़ब्तो सब्र की ताक़त के सामने हर मुश्किल आसान थी।
मालूम नहीं कितने हेर फेर से यह रास्ता तय किया गया था कि पूरे एक महीने सत्तरह रोज़ के बाद 7 जि़ल्हिज्जा को आप बसरे पहुँचाये गये। एक साल तक आप बसरे में क़ैद रहे। यहां का हाकिम हारून का चचा ज़ाद भाई ईसा बिन जाफ़र था। शुरू में तो उसे सिर्फ़ बादशाह के हुक्म की तामील मद्दे नज़र थी बाद में उसने ग़ौर करना शुरू किया कि आखि़र उनके क़ैद किये जाने का सबब क्या है।
इस सिलसिले में उसको इमाम (अ.स.) के हालात और सीरते जि़न्दगी इख़लाक़ो अवसाफ़ की जुस्तुजू का मौक़ा भी मिला और जितना उसने इमाम की सीरत का मुतालेआ किया उतना उसके दिल पर आपकी बलन्दीए इख़लाक़ और हुसैन किरदार का असर का़यम होता गया। अपने इन असरात से उसने हारून को मुत्तला भी किया। हारून पर इसका उल्टा असर हुआ। ईसा के बारे में बदगुमानी पैदा हो गई इस लिये उसने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को बग़दाद में बुला भेजा और फ़ज़ल बिन रबी की हिरासत में दे दिया और फिर फ़ज़ल का रूझान शिअत की तरफ़ महसूस करके यहीया बर मक्की को उसके लिये मुक़र्रर किया।
मालूम होता है कि इमाम के इख़्लाक़ और अवसाफ़ की कशिश हर एक पर अपना असर डालती थी इस लिये ज़ालिम बादशाह को निगरानों की तबदीली की ज़रूरत पड़ती थी। सब से आखि़र में इमाम (अ.स.) सिन्दी बिन शाहक के क़ैद ख़ाने में रखे गये , यह बहुत ही बे रहम और सख़्त दिल था। मुलाहेज़ा हो।(मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 68 व आलामुल वुरा पृष्ठ 180, कशफ़ल ग़म्मा पृष्ठ 108, नूरूल अबसार पृष्ठ 136, सवानेह मूसा काजि़म पृष्ठ 15 )
इमाम (अ.स.) का क़ैद ख़ाने में इम्तेहान और इल्मे ग़ैब का मुज़ाहेरा
अल्लामा शिब्लनजी लिखते हैं कि जिस ज़माने में आप हारून रशीद के क़ैद ख़ाने में सखि़्तयां बरदाश्त फ़रमा रहे थे इमाम अबू हनीफ़ा के शार्गिद रशीद अबू युसूफ़ और मोहम्मद बिन हसन एक शब क़ैद ख़ाने में इस लिये गये कि आपके बहरे इल्म की थाह मालूम करें और देखें कि आप इल्म के कितने पानी में है। वहां पहुँच कर उन लोगों ने सलाम किया , इमाम (अ.स.) ने जवाबे सलाम इनायत फ़रमाया। अभी यह हज़रात कुछ पूछने ना पाय थे कि एक मुलाजि़म डयूटी ख़त्म कर के घर जाते हुए आपकी खि़दमत में अर्ज परदाज़ हुआ कि मैं कल वापस आऊँगा अगर कुछ मंगाना हो तो मुझ से फ़रमा दीजिये मैं लेता आऊँगा। आपने इरशाद फ़रमाया मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं। जब वह चला गया तो आपने अबू युसूफ़ वग़ैरा से कहा कि यह बेचारा मुझसे कहता है कि मैं उस से अपनी हाजत बयान करूं ताकि यह कल उसकी तकमील व तामील कर दे लेकिन उसे ख़बर नहीं कि यह आज रात को वफ़ात पा जायेगा। इन हज़रात ने जो यह सुना तो सवाल जवाब के बग़ैर ही वापस चले आये और आपस में कहने लगे कि हम इन से हलालो हराम , वाजिबो सुन्नत के मुताअल्लिक़ सवालात करना चाहते थे। ‘‘ फ़ा अख़ाज़ा यतकलम माआना इल्म अल ग़ैब ’’ मगर यह तो हमसे इल्में ग़ैब की बाते कर रहे हैं। उसके बाद उन दोनों हज़रात ने उस मुलाजि़म के हालात का पता लगाया तो मालूम हुआ कि वह नागहानी तौर पर रात ही में वफ़ात कर गया। यह मालूम करके इन हज़रात को सख़्त ताअज्जुब हुआ।
(नूरूल अबसार पृष्ठ 146 )
अल्लामा अरबली लिखते हैं कि इस वाकि़ये के बाद यह हज़रात फिर इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हो कर अर्ज़ परदाज़ हुए कि हमें मालूम था कि आपको सिर्फ़ इल्मे हलालो हराम में ही महारत हासिल है लेकिन क़ैद ख़ाने के मुलाजि़म के वाकि़ये ने वाज़े कर दिया कि आप इल्म अल मनाया और इल्मे ग़ैब भी जानते हैं। आपने इरशाद फ़रमाया कि यह इल्म हमारे लिये मख़्सूस है। इसकी तालीम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) को दी थी और उनसे यह इल्म हम तक पहुँचा है।

