चौदह सितारे हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स) पार्ट- 7

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हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के अख़लाक़ व आदात

अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) उस मुक़द्दस सिलसिले की एक फ़र्द थे जिसको ख़ालिक़ ने नौए इन्सान के लिये मेयारे कमाल क़रार दिया था। इसी लिये उनमें से हर एक अपने वक़्त में बेहतरीन इख़लाक़ व औसाफ़ का मुरक़्क़ा था। बे शक यह एक हक़ीक़त है कि बाज़ अफ़राद में बाज़ सिफ़ात इतने मुम्ताज़ नज़र आते हैं कि सब से पहले उन पर नज़र पड़ती है। चुनान्चे सातवें इमाम (अ.स.) में तहम्मुल व बरदाश्त और ग़ुस्सा ज़ब्त करने की सिफ़ात इतनी नुमाया थी कि आपका लक़ब काजि़म क़रार पा गया। जिसके मानी ही हैं ग़ुस्से को पीने वाला। आपको कभी किसी ने तुर्श रूई और सख़्ती के साथ बात करते नहीं देखा और इन्तेहाई नागवार हालात में भी मुस्कुराते हुये नज़र आये।

मदीने के एक हाकिम से आपको सख़्त तकलीफ़े पहुँची यहां तक कि वह जनाबे अमीर (अ.स.) की शान में भी नाज़ेबा अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किया करता था मगर हज़रत ने अपने असहाब को हमेशा उसके जवाब देने से रोका।

जब अस्हाब ने उसकी ग़ुस्ताखि़यों की बहुत शिकायत की और कहा कि अब हमें ज़ब्त की ताब नहीं हमें उनसे इन्तेक़ाम लेने की इजाज़त दी जाऐ तो हज़रत ने फ़रमाया कि मैं ख़ुद उसका तदारूक करूगां। इस तरह उनके जज़्बात में सुकून पैदा करने के बाद हज़रत ख़ुद उस शख़्स के पास उसके ख़ेमों में तशरीफ़ ले गये और कुछ ऐसा एहसान और हुसने सुलूक फ़रमाया कि वह अपनी ग़ुस्ताखि़यों पर नादिम हुआ और अपने तरज़े अमल को बदल दिया। हज़रत ने अपने अस्हाब से सूरते हाल बयान फ़रमा कर पूछा कि जो मैंने उसके साथ किया वह अच्छा था या जिस तरह तुम लोग उसके साथ करना चाहते थे। सब ने कहा यक़ीनन हुज़ूर ने जो तरीक़ा इख़्तेयार फ़रमाया वही बेहतर था। इस तरह आपने अपने जद्दे बुजुर्गवार हज़रत अमीर (अ.स.) के उस इरशाद को अमल में ला कर दिख लाया जो आज तक नहजुल बलाग़ा में मौजूद है कि अपने दुश्मन पर ऐहसान के साथ फ़तेह हासिल करो क्यों कि यह दो कि़स्म की फ़तेह में ज़्यादा पुर लुत्फ़े कामयाबी है। बेशक इस लिये फ़रीक़े मुख़ालिफ़ के ज़र्फ़ का सही अन्दाज़ा ज़रूरी है और इसी लिये हज़रत अली (अ.स.) ने इन अल्फ़ाज़ के साथ यह भी फ़रमाया है कि ख़बरदार! यह अदम तशद्दुद का तरीक़ा न अहल के साथ इख़्तेयार न करना वरना उसके तशद्दुद में इज़ाफ़ा हो जायेगा।

यक़ीनन ऐसे अदम तशद्दुद के मौक़े को पहचानने के लिये ऐसी ही बालीग़ निगाह की ज़रूरत है जैसी इमाम (अ.स.) को हासिल थी मगर यह उस वक़्त में है जब मुख़ालिफ़ की तरफ़ से कोई ऐसा अमल हो चुका हो जो उसके साथ इन्तेक़ामी तशद्दुद का जवाज़ पैदा कर सके लेकिन अगर उसकी तरफ़ कोई एक़दाम अभी ऐसा न हुआ हो तो यह हज़रात बहर हाल उसके साथ ऐहसान करना पसन्द करते थे ताकि उसके खि़लाफ़ हुज्जत क़ायम हो और उसे ऐसे जारेहाना एक़दाम के लिये तलाश से भी कोई उज़्र न मिल सके बिल्कुल इसी तरह जैसे इब्ने मुल्जिम के साथ जनाब अमीर (अ.स.) को शहीद करने वाला था आखि़र वक़्त तक जनाबे अमीर (अ.स.) एहसान फ़रमाते रहे। इसी तरह मोहम्मद बिन इस्माईल के साथ जो इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की जान लेने के बाएस हुआ। आप एहसान फ़रमाते रहे यहां तक कि इस सफ़र के लिये जो उसने मदीने से बग़दाद की जानिब ख़लीफ़ा अब्बासी के पास इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की शिकायतें करने के लिये किया था। साढ़े चार सौ दीनार और पन्द्रह सौ दिरहम की रक़म ख़ुद हज़रत ही ने अता फ़रमाई थी जिसको वह ले कर रवाना हुआ था।

आपको ज़माना बहुत ना साज़गार मिला था न उस वक़्त वह इल्मी दरबार क़ायम रह सकता था जो इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के ज़माने में क़ायम रह चुका था। न दूसरे ज़राए से तबलीग़ो इशाअत मुमकिन थी। बस आपकी ख़ामोश सीरत ही थी जो दुनिया को आले मोहम्मद (अ.स.) की तालीमात से रूशेनास बना सकती थी। आप अपने मजमूओ में भी अकसर बिलकुल ख़ामोश रहे थे। यहां तक कि जब तक आपसे किसी अमर के मुताअल्लिक़ कोई सवाल न किया जाय आप गुफ़्तुगू में इब्तेदा भी न फ़रमाते थे। इसके बाद आपकी इल्मी जलालत का सिक्का दोस्त और दुश्मन सब के दिल पर क़ायम था और आपकी सीरत की बलन्दी को भी सब मानते थे। इसी लिये आम तौर पर आपको इबादत और शब जि़न्दा दारी की वजह से अब्दे सालेह के लक़ब से याद किया जाता था। आपकी सख़ावत और फ़य्याज़ी का भी शोहरा था और फ़ोक़राए मदीना की अकसर पोशीदा तौर पर ख़बर गीरी फ़रमाते थे। हर नमाज़े सुब्ह की ताक़ीबात के बाद आफ़ताब के बलन्द होने के बाद से पेशानी सजदे में रख देते थे और ज़वाल के वक़्त सर उठाते थे। क़ुरआने मजीद की निहायत दिलकश अन्दाज़ में तिलावत फ़रमाते थे खुद भी रोते जाते थे और पास बैठने वाले भी आपकी आवाज़ से मुताअस्सिर हो कर रोते थे।

(सवानेह मूसा काजि़म पृष्ठ 8 व आलामुल वुरा पृष्ठ 178 )

अल्लामा शिबलंजी लिखते हैं कि हज़रत मूसा काजि़म (अ.स.) का यह तरीक़ा और वतीरा था कि आप फ़की़रों को ढ़ूंढा़ करते थे और जो फ़क़ीर आपको मिल जाता था उसके घर में रूप्या पैसा अशरफ़ी और खाना , पानी पहुँचाया करते थे और यह अमल आपका रात के वक़्त होता था। इस तरह आप फ़ुक़राए मदीना के बे शुमार घरों का आज़ूक़ा चला रहे थे और लुत्फ़ यह है कि उन लोगों तक को यह पता न था कि हम तक सामान पहुँचाने वाला कौन है। यह राज़ उस वक़्त खुला जब आप दुनिया से रेहलत फ़रमा गये।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 136 प्रकाशित मिस्र)

इसी किताब के पृष्ठ 134 में है कि आप हमेशा दिन भर रोज़ा रखते और रात भर नमाज़ें पढ़ा करते थे। अल्लामा ख़तीबे बग़दादी लिखते हैं कि आप बे इन्तेहा इबादत व रियाज़त फ़रमाया करते थे और ताअते ख़ुदा में इस दरजा शिद्दत बरदाश्त किया करते थे जिसकी कोई हद न थी।

एक दफ़ा मस्जिदे नबवी में आपको देखा गया कि आप सजदे में मुनाजात फ़रमा रहे हैं और इस दरजा सजदे को तूल दिया कि सुबह हो गई।

(दफ़यात अल अयान जिल्द 2 पृष्ठ 131 )

एक शख़्स आपकी बराबर बिला वजह बुराईयां करता था जब आपको इसका इल्म हुआ तो आपने एक हज़ार दीनार (अशरफ़ी) उसके घर पर बतौर इनाम भिजवा दिया जिसके नतीजे में वह अपनी हरकत से बाज़ आ गया।

(रवाएह अल मुस्तफ़ा पृष्ठ 264 )

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