
लक़्ब बाबुल हवाएज की वजह
अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि कसरते इबादत की वजह से अब्दे सालेह और ख़ुदा से हाजत तलब करने के ज़रिये होने की वजह से आपको बाबुल हवाएज कहा जाता है। कोई भी हाजत हो जब आपके वास्ते से तलब की जाती थी तो ज़रूर पूरी होती थी। मुलाहेज़ा हो।(मतालेबुल सुऊल पृष्ठ 278, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 131 ) फ़ाजि़ल माअसर अल्लामा अली हैदर रक़म तराज़ हैं कि हज़रत का लक़ब बाबे क़ज़ा अल हवाएज यानी हाजतें पूरी हाने का दरवाज़ा भी था। हज़रत की जि़न्दगी में तो हाजतें आपके तवस्सुल से पूरी होती ही थीं शहादत के बाद भी यह सिलसिला जारी ही रहा और अब भी है। (अख़बार पायनियर इलाहाबाद मोअर्रेख़ा 10 अगस्त 1928 ई0 में ज़ेरे उन्वान इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के रौज़े पर एक अन्धे को बीनाई मिल गई। ख़बर शाया हुई है जिसका तरजुमा यह है कि हाल ही में रौज़ा ए काज़मैन शरीफ़ पर जो शहर बग़दाद से बाहर है एक मोजेज़ा ज़ाहिर हुआ है कि एक अन्धा और बूढ़ा सैय्यद निहायत मुफ़लिसी की हालत में रौज़े शरीफ़ के अन्दर दाखि़ल हुआ और जैसे ही उसने इमाम मूसी ए काजि़म (अ.स.) की रौज़े की ज़रीहे अक़दस को हाथ से मस किया वह फ़ौरन चिल्लाता हुआ बाहर की तरफ़ दौड़ा मुझे बीनाई मिल गई मैं देखने लगा हूँ इस पर लोगों का बड़ा हुजूम जमा हो गया और अकसर लोग इसके कपड़े तबर्रूक के तौर पर छीन झपट कर ले गए। इसको तीन दफ़ा कपड़े पहनाए गये और हर दफ़ा वह कपड़े टुकड़े हो गये। आखि़र रौज़ाए शरीफ़ के ख़ुद्दाम ने इस ख़्याल से कि कहीं इस बूढ़े सैय्यद के जिस्म को नुक़सान न पहुँचे इसको उसके घर पहुँचा दिया। इसका बयान है कि मैं बग़दाद के अस्पताल में अपनी आँख का इलाज करा रहा था बिल आखि़र सब डाँक्टरों ने यह कह कर मुझे अस्पताल से निकाल दिया कि तेरा मजऱ् ला इलाज हो गया है अब इसका इलाज ना मुम्किन है। तब मैं मायूस हो कर रौज़ा ए अक़दस इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) पर आया यहां आपके वसीले से ख़ुदा से दुआ की ‘‘ बारे इलाहा तुझे इसी इमाम मदफ़ून का वास्ता मुझे अज़सरे नव बीनाई अता कर दे। यह कह कर जैसे ही मैंने रौज़े की ज़री को मस किया मेरी आँख़ों के सामने रौशनी नमूदान हुई और आवाज़ आई जा तुझे फिर से रौशनी दे दी गई ’’ इस आवाज़ के साथ ही मैं हर चीज़ को देखने लगा।(अख़बार इन्क़ेलाब लाहौर , अख़बार अहले हदीस अमरतसर मोवर्रिख़ा 24 अगस्त 1928 ई 0 )
अल्लामा इब्ने शहर आशोब लिखते हैं कि ख़तीब बग़दादी ने अपनी तारीख़ में लिखा है कि जब मुझे कोई मुश्किल दरपेश होती है मैं इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के रौज़े पर चला जाता हूँ और उनकी क़ब्र पर दोआ करता हूँ मेरी मुश्किल हल हो जाती है।(मनाक़िब जिल्द 3 पृष्ठ 125 प्रकाशित मुल्तान)
बादशाहाने वक़्त
आप 128 हिजरी में मरवान अल हमार उमवी के अहद में पैदा हुए। इसके बाद 132 हिजरी में पृष्ठ अब्बासी ख़लीफ़ा हुआ(अबुल फि़दा) 136 हिजरी में मन्सूर दवानीक़ी अब्बासी ख़लीफ़ा बना(अबुल फि़दा) 158 हिजरी में महदी बिन मालिके सलतनत हुआ।(हबीब अल सियर 169 हिजरी में हादी अब्बासी की बैैअत की गई। (इब्ने अलवरी) 170 में हारून रशीद अब्बासी इब्ने महदी ख़लीफ़ा ए वक़्त हुआ (अबुल फि़दा) 183 हिजरी में हारून के ज़हर देने से इमाम (अ.स.) ब हालते मज़लूमी क़ैदख़ाने में शहीद हुए।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा अख़बार अल ख़ुलफ़ा इब्ने राई)
नशोनुमा और तरबीअत
अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि आपकी उमर के बीस बरस अपने वालिदे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के साए तरबीयत में गुज़रे एक तरफ़ ख़ुदा के दिए हुए फि़तरी कमाल के जौहर दूसरी तरफ़ इस बाप की तरबियत जिसने पैग़म्बर के बताए हुए मकारेमुल अख़्लाक़ की याद को भूली हुई दुनियाँ में ऐसा ताज़ा कर दिया कि उन्हें एक तरह से अपना बना लिया और जिसकी बिना पर मिल्लते जाफ़री नाम हो गया। इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने बचपना और जवानी का काफ़ी हिस्सा इसी मुक़द्दस आगोश में गुज़ारा यहाँ तक कि तमाम दुनिया के सामने आपके ज़ाती कमालात व फ़ज़ाएल रौशन हो गए और इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने अपना जां नशीन मुक़र्रर फ़रमा दिया। बावजूदे कि आपके बड़े भाई भी मौजूद थे मगर ख़ुदा की तरफ़ का मन्सब मीरास का तरका नहीं है बल्कि जा़ती कमालात को ढुंढता है। सिलसिलाए मासूमीन में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) में बजाए फ़रज़न्दे अकबर के इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की तरफ़ इमामत का मुन्तकि़ल होना इसका सुबूत है कि मियारे इमामत में नसबी विरासत को मद्दे नज़र नहीं रखा गया है।
(सवानेह मूसा काजि़म पृष्ठ 4 )

