मन्सूर अब्बासी की सादात कशी

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मन्सूर अब्बासी की सादात कशी

जब बनी उमय्या की सलतनत का ज़माना ख़त्म हुआ , तो बनी अब्बास की हुकूमत का दौर चला। यह लोग बनी उमय्या से भी ज़्यादा सादात के दुश्मन साबित हुए। इनके ज़माने में तो सादात पर वह तबाही आई कि इसके बयान से बदन पर रौंगटे ख़ड़े होते हैं। इस सिलसिला ए अब्बासिया का दूसरा बादशाह मन्सूर अब्बासी हुआ है। ख़ुदा की पनाह इसके मज़ालिम का क्या ठिकाना है। हज़ारों सय्यदों को इस ज़ालिम ने क़त्ल कराया। इनके खू़न के गारों से दीवारें तामीर कराईं यही नहीं बल्कि बहुत से बेगुनाहों को दीवारों में ज़िन्दा चिनवा दिया। बीखों और बुनियादों में दबवा दिया।। क़ैद ख़ाने में सड़ा सड़ा कर मार दिया। इसके ज़माने में शिया या सय्यदों का शुब्हा हो जाना क़त्ल के लिये काफ़ी था। सब से ज़्यादा तबाही इस ज़ालिम के दौरे सलतनत में हुसैनी सादात पर आई। ख़्याल करो कि नाज़ुक दौर में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने किस ऐहतियात से अपनी ज़िन्दगी बसर की होगी। ज़ुल्म के बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। सालहा सालसे ग़रीब सादात एक अजीब बे कसी की हालत में बसर कर रहे थे , आखि़र उनके सीनों भी दिल था और एक बहादुर ख़ानदान का ख़ून रगों में दौड़ा हुआ था। रफ़ता रफ़ता उनको भी जोश आ गया। इमाम हसन (अ.स.) की औलाद में उनके पोते जनाबे अब्दुल्लाह महज़ एक बड़े नेक दिल और जोशीले सय्यद थे। उन्होंने चाहा कि सादात को अब्बासियों के मज़ालिम से किस तरह छुड़ायें। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने उनको इस इरादे से रोकना चाहा मगर उनका जोश कर नहीं हुआ और लोगों को मन्सूर के खि़लाफ़ उभारने लगे। उनके दो बेटे थे। एक का नाम मोहम्मद नफ़से ज़किया और दूसरे का इब्राहीम था। इन दोनों ने इस कोशिश में पूरा हिस्सा लिया। मन्सूर को जब उनके इरादों का हाल मालूम हुआ तो उसने सादाते हुसैनी की गिरफ़्तारी के लिये एक फ़ौज भेजी जिनमें सत्तर पछत्तर आदमी , कमसिन बच्चे , नौजवान और बूढ़े सब शामिल थे , गिरफ़्तार कर लिये गये। लिखा है कि जब यह सित्म रसीदा काफ़िला मदीने से चला तो उनकी बे कसी व मजबूरी , बे गुनाही व बे कसूरी का ख़्याल कर के हर एक अपने मक़ाम पर रोता और बेचैन नज़र आता था। आह वह साहेबाने फ़ज़लो कमाल जो सूरतो सीरत में बे मिस्ल बे नज़ीर थे जिनका एक एक जवान हिम्मत व दिलेरी में तमाम अरब में मशहूर था। गले में तौक़ पहने और हाथों में दोहरी जंजीरें डालें शर्मों हिजाब से गरदने नीचे किये लाग़र ऊंटों की पीठों पर बैठे हुए मदीना ए रसूल (स अ व व ) से निकल रहे थे।

तारीख़े कामिल में है कि जब इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को कुन्बे की गिरफ़्तारी का हाल मालूम हुआ तो बेचैन हो गये। मस्जिदे रसूल के दरवाज़े पर खड़े थे कि मज़लूम सादात का काफ़ेला इधर से गुज़रा। इमाम (अ.स.) ने जब यह हाल देखा कि किसी के पैर में ज़न्जीर है किसी के गले में तौक़ , किसी की मुश्कें कसी हैं किसी के पैर ऊंट के पेट से बंधे हुए हैं तो आप ज़ार ज़ार रोने लगे और फ़रमाया ख़ुदा की क़सम आज के बाद से हुरमते हरमे ख़ुदा और रसूल महफ़ूज़ न रहेगी। ख़ुदा की क़सम क़ौमे अन्सार से जो मुआहेदा हज़रत रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने लिया था यानी उनकी औलाद और उनकी हिफ़ाज़त को वह भूल गये। ख़ुदा वन्दा तू अन्सार से सख़्त मुआख़ेज़ा करना। हज़रत की परेशानी का उस वक़्त यह आलम था कि रिदाये मुबारक दोशे अक़दस से गिर गई थी। इस वाक़िये का आप पर इतना गहरा असर पड़ा कि आप उसी रोज़ से बीमार पड़ गये और तक़रीबन बीस रोज़ तक तप (बुख़ार) की वह शदीद तकलीफ़ उठाई कि जान के लाले पड़ गये। हज़रत ने चाहा कि अपने चचा हज़रते अब्दुल्लाह महज़ तक जायें और तसल्ली व दिलासा दें मगर एक संगदिल ने वहां तक न जाने दिया।

मोहम्मद नफ़से ज़किया व इब्राहीम

हज़रत अब्दुल्लाह महज़ उस ज़माने में रूपोश हो गये थे और सहराई अरबों का भेस बदल कर रहने लगे थे। चुनान्चे उसी भेस में वह छुप कर एक मंज़िल पर जनाबे अब्दुल्लाह महज़ से मिले। उन्होंने बेटों से कहा कि इस ज़िल्लत की ज़िन्दगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है। मन्सूर उस ज़माने में कूफ़े में था। क़ैदी उसके सामने पेश हुये। चन्द रोज़ बाद ही यह लोग मरने लगे। क़यामत यह आई कि उनके मुरदों को भी क़ैद ख़ाने से बाहर न निकाला गया। वहीं मरते और सड़ते रहे। इससे वहां की हवा और ज़्यादा गन्दी हो गई और एक ऐसी वबा फैली कि हर रोज़ दो चार मरने लगे। हक़ीक़त यह है कि सादात कशी में बनी अब्बास के मज़ालिम बनी उमय्या से भी कहीं ज़्यादा बढ़ गये थे। बनी उमय्या ने अगर ऐसा किया तो गै़र हो कर क़दीमी दुश्मन बन कर यह तो अपने कहलाते थे माले दुनियां की तमा और हुकूमत की हिर्स ने उनकी आखों पर ऐसा परदा डाला कि नेक व बद की तमीज़ बाक़ी न रही और दुनियां के पीछे आख़ेरत को बिल्कुल भूल गये। बहर हाल ग़रीब सादात ने इस क़ैद ख़ाने में बड़ी इबरत नाक हालत में ज़िन्दगी बसर की लेकिन इस हालत में भी ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल न रहे। शबो रोज़ तिलावते कलामे पाक से काम रहता था। क़ैद ख़ाने की तारीकी में दिन के अवक़ात का चूंकि पता न चलता था , इस लिये अपनी तिलावत को पांच हिस्सों में तक़सीम कर दिया था और उन्हीं से अवक़ाते नमाज़ का पता लगाते थे। उनको इस क़ैद ख़ाने में कई कई वक़्त फ़ाके से गुज़र जाते थे और कोई पुरसाने हाल न था बल्कि खाने का क्या ज़िक्र पानी भी ज़रूरत भर न मिलता था।

अब इधर का हाल सुनों , मोहम्मद नफ़्से ज़किया ने बहुत जल्द एक फ़ौज फ़राहम कर के मन्सूर पर चढ़ाई की और मदीने पर क़ब्ज़ा कर लिया मगर चन्द ही रोज़ बाद मन्सूर की फ़ौजों ने फिर आ घेरा। मोहम्मद उनके मुक़ाबले की ताब न ला सके आखि़र शहीद हो गये। उनका सर काट कर के मन्सूर के पास भेज दिया गया। इस ज़ालिम ने इस सर को एक क़ैद ख़ाने में रख कर क़ैद ख़ाने में उनके बूढ़े बाप अब्दुल्लाह महज़ के पास भेज दिया। जनाबे अब्दुल्लाह उस वक़्त नमाज़ पढ़ रहे थे कि सर मुसल्ले के पास रखा गया। नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर जब देखा तो जवान बेटे का सर रखा हुआ है। बे साख़्ता एक आह सीने से निकली , सर को छाती से लगा लिया और कहने लगे बेटा , शाबाश तुम बे शक उन्हीं वायदा वफ़ा करने वालों में से हो जिनकी तारीफ़ ख़ुदा ने क़ुरआन में की है। बेटा तुम ऐसे जवान थे कि तुम्हारी तलवार ने तुमको ज़िल्लत से बचा लिया और तुम्हारी परहेज़गारी ने तुम को गुनाहों से महफ़ूज़ रखा। फिर सर लाने वाले से कहा कि मन्सूर से कह देना कि हम तो मक़तूल हो ही चुके , अब तुम्हारी बारी है। अब हमारा और तुम्हारा इंसाफ़ ख़ुदा के यहां होगा। यह कह के एक ठंडी सांस भरी और दम निकल गया।

अब दूसरे भाई यानी इब्राहीम का हाल सुनो , यह भी मुद्दतों इधर उधर घूमते फिरे आखि़र उन्होंने भी एक फ़ौज जमा कर के मिस्र की हुकूमत हासिल कर ली। जिस ज़माने में नफ़्से ज़किया मन्सूर से लड़ रहे थे। उन्होंने भाई की मद्द को आना चाहा , मगर मन्सूर ने रास्ते बन्द कर रखे थे , मुम्किन न हुआ। मोहम्मद पर फ़तेह पाने के बाद मन्सूर ने इब्राहीम का भी ख़ात्मा कर दिया। सूरत यह हुई कि इब्राहीम अपने लशकर को साथ लिये कूफ़े की तरफ़ रवाना हुए। मक़ाम ‘‘ अल अहमरा ’’ में ख़ेमा ज़न थे कि मन्सूर का लशकर भी वहां पहुँच गया। दोनों लशकरों में सख़्त मुक़ाबला हुआ। सैकड़ों आदमी मारे गये। इब्राहीम की फ़तेह के आसार नुमायां हो चुके थे कि यका यक मामेला दिगर गूँ हो गया और इब्राहीम की फ़ौज ने भागते हुए दुश्मन का पीछा किया मगर नेक दिल इब्राहीम को उनकी तबाह हालत पर रहम आ गया , अपने सिपाहियों को ताअक़्कु़ब से रोक दिया। मन्सूर के सरदार ‘‘ ऐनी ’’ ने इस मौक़े से फ़ायदा उठाया और अपनी तितर बितर क़ुव्वत को जमा कर के फिर एक दम हमला कर दिया। इब्राहीम की फ़ौज को इस बलाए नागहानी की क्या ख़बर थी। वह अपनी फ़तेह देख कर अपनी कमरे खोल चुके थे कि शिकस्त खाई दुश्मन की फ़ौज फिर लौट पड़ी। अब इब्राहीम को मुक़ाबला करना दुश्वार हो गया। फ़ौज तितर बितर हो गई। मजबूरन तलवार ले कर ख़ुद मुक़ाबले को निकल पड़े। देर तक हाशमी शुजाअत के जौहर दिखाते रहे। आखि़र कहां तक लड़ते। दुश्मन ने चारों तरफ़ से घेर कर हलाक कर दिया। यह वाक़ेया 25 ज़िक़ादा 145 हिजरी का है। इब्राहीम वह शख़्स थे कि पूरे पांच बरस रूपोश रहे थे और मन्सूर बावजूद इतनी क़ुदरतो ताक़त के किसी तरह उनको गिरफ़्तार न कर सका था।

इब्राहीम और नफ़से ज़किया के क़त्ल होने के बाद भी मन्सूर के मज़ालिम सादात पर कम न हुए। जहां जिसको पाया बिना क़त्ल किये न छोड़ा। उस ज़माने में सादात की वह तबाही हुई कि बयान में नहीं आ सकती। अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि मन्सूर के ज़माने में बे शुमार औलादे अली (अ.स.) शहीद किये गये और बहुतों को दीवार में चिन्वा दिया गया। मन्सूर उस ज़माने में बग़दाद में महल बनवा रहा था। इसमें जहां औरो को ज़िन्दा चिनवा दिया था एक हसीन नौजवान को भी चुनवाया , वह चूंकि बहुत ही हसीनों ख़ूब सूरत था। उसके चेहरे पर मेमार की नज़र पड़ी तो बे साख़्ता उसका दिल रोने लगा। हुक्म से मजबूर था। दीवार में चुनते चुनते उसे मौक़ा मिल गया। बोला कि ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप घबरायें नहीं , मैं सांस के लिये सूराख़ छोड़ देता हूँ और रात को आ कर निकाल लूंगा। चुनांचे वह रात की तारीकी में दीवार के क़रीब आया और ईंटें हटा कर उस ना जवान बाग़े रिसालत को दीवार से निकाल दिया और कहा कि आप सिर्फ़ इतना कीजिये कि इस तरह ज़िन्दा बच कर किसी तरफ़ चले जाइये कि आपका पता निशान न मिल सके और ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप अपने नाना मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) से मेरी बख़्शिश की सिफ़ारिश फ़रमाईयेगा।

उन्होंने शुक्रिया अदा किया और कहा ऐ शेख़ अगर तुम से हो सके तो मेरी ज़ुल्फ़ों को तराश लो और किसी रात को मेरी दुखिया मां के पास फ़लां महल्ले में जा कर उन्हें मेरी ज़ुल्फ़ें दे कर कह दें कि मैं ज़िन्दा हूँ और अन्क़रीब मिलंूगा। इस मेमार का बयान है कि मैं उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनके मकान पर पहुँचा तो उनकी माँ बैठी रो रही थीं। मैंने उन्हें सुबूते हयात के लिये ज़ुल्फ़ें दे कर नवेदे ज़िन्दगी सुनाई और वापस चला आया।(जिलाउल उयून पृष्ठ 269 प्रकाशित ईरान व सवानेह उमरी चहारदा मासूमीन हिस्सा 2 पृष्ठ 7 )

तवारीख़ में है कि जनाबे नफ़्से ज़किया के शहीद होने के बाद से जहां मज़ालिम का पूरा ज़ोर पैदा हो गया था वहां इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) भी महफ़ूज़ नहीं रह सके। इमाम शब्लन्जी लिखते हैं कि उनको क़त्ल कराने के बाद मन्सूर ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को तलब किया और उनकी सख़्त तहदीद की और क़त्ल की खुले अल्फ़ाज़ मे धमकी दी।(नूरूल अबसार पृष्ठ 133 )

मन्सूर का हज और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) पर बोहतान तराज़ी हालात की रौशनी में हर बा फ़हम इसका अन्दाज़ा कर सकता है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ज़िन्दगी किस दौर से गुज़र रही थी और मन्सूर किस ताक में था और किस तरह बहाना तलाश कर रहा था।

तारीख़े हबीबुस सियर में है कि 144 हिजरी में मन्सूर अब्बासी हज के लिये गया। मन्सूर ने हज से फ़राग़त की तो एक शख़्स ने उससे कहा कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) तुम्हारे खि़लाफ़ लोगों को भड़काते और उकसाते हैं। उसने इमाम (अ.स.) को बुला कर उनसे कहा कि मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि आप मेरी हुकूमत के खि़लाफ़ प्रोपेगन्डा करते और लोगों को उकसाते और भड़काते हैं। आपने इरशाद फ़रमाया , ऐ बादशाह ! यह बिल्कुल ग़लत है और तूझे मेरे कहने पर यक़ीन न आये तो तू उस शख़्स को मेरे सामने तलब कर। मन्सूर ने उसे बुलाया। आपने फ़रमाया कि तूने मुझ पर क्यों बोहतान बांधा हैं ? उसने कहा कि मैंने सच कहा है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि क्या तू क़सम खा कर कह सकता है ? उसने कहा हां , फिर उसने ख़ुदा की क़सम खाई। आपने कहा इस तरह नहीं जिस तरह मैं कहूँ उस तरह क़सम खा। चुनान्चे आपने फ़रमाया कि अपनी ज़बान से यह कह कर क़सम खा ‘‘ बरत मिन हौल अल्लाह ’’ मैं ख़ुदा की क़ुव्वत व ताक़त से दूर हट कर अपने भरोसे पर क़सम खाता हूँ। उसने पहले तो हल्का सा इन्कार किया फिर वह क़सम खा गया। उसका नतीजा यह हुआ कि उसी जगह गिर कर हलाक हो गया।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 प्रकाशित मिस्र)

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