चौदह सितारे इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स) पार्ट- 10

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ख़तो किताबत और दरख़्वास्त के बारे में आपकी हिदायत

बिस्मिल्लाह के लिखने का तरीक़ा

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ों के बारे में हिदायत फ़रमाई है। उसूले काफ़ी पृष्ठ 690 प्रकाशित ईरान में है कि जब कुछ भी लिखो तो ‘‘ बिस्मिल्लाह अर रहमान अर रहीम ’’ से शुरू करो और देखो बिस्मिल्लाह को दन्दाने वाले ‘‘ सीन ’’ से लिखना , यानी बे बाद सीन इर तरह लिखना।(सीन)

दरख़्वास्त लिखने का तरीक़ा

आप फ़रमाते हैं कि दाहेनी तरफ़ दवात रख कर दरख़्वास्त लिखो। इमाम शिब्लंजी नूरूल अबसार प्रकाशित मिस्र के पृष्ठ 133 और अल्लामा मजलिसी हुलयतुल मुत्तक़ीन में लिखते हैं कि सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने फ़रमाया है कि जब कोई दरख़्वास्त दो , और चाहो कि वह ज़रूर मन्ज़ूर हो जाय तो उसके सर नामे पर

बिस्मिल्लाह हिर्ररहमार्निरहीम

‘‘ वआदअल्लाह अल साबेरीन अल मख़रज मिम्मा यकराहून वल रिज़्क़ मिन हैस ला यसतबून जाअलना अल्लाह व इय्या कुम मिनल लज़ीना ला ख़ौफ़ुन अलैहिम वला हुम यह ज़नून ’’ अल्लामा अरबली किताब कशफ़ुल ग़म्मा के पृष्ठ 97 पर इसी तरीक़ा ए तहरीर को लिखते के बाद लिखते हैं कि बर सरे रूक़ा ब क़लम बे मदाद ब नवीस यानी यह इबारत बिला रौशनाई के बर सर दरख़्वास्त लिखनी चाहिये।(तहज़ीबुल इस्लाम , तरजुमा हिल्यतुल मुत्तक़ीन पृष्ठ 185 प्रकाशित कराची)

ख़त और जवाबे ख़त

उसूले काफ़ी पृष्ठ 690 में है कि ‘‘ क़ाला अल सादिक़ (अ.स.) रद्दे जवाब अल किताब वाजेबून को जोबे रद्देस सलाम ’’ हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि ख़त का जवाब देना इसी तरह वाजिब है जिस तरह सलाम का जवाब देना वाजिब है।

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की अन्जाम बीनी और दूर अन्देशी मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि जब बनी अब्बास इस बात पर आमादा हो गये कि बनी उमय्या को ख़त्म कर दें तो उन्होंने यह ख़्याल किया कि आले रसूल (स अ व व ) की दावत का हवाला दिये बग़ैर काम चलना मुश्किल है लेहाज़ा वह इमदाद व इन्तेक़ामे आले मोहम्मद (अ.स.) की तरफ़ दावत देने लगे और यही तरीक़ा करते हुए उठ खड़े हुए जिससे आम तौर पर आले मोहम्मद (अ.स.) यानी बनी फ़ात्मा (अ.स.) की मदद समझी जाती थी। इसी वजस से शियाने बनी फ़ात्मा को भी उनसे हमदर्दी पैदा हो गयी थी और वह उनके मद्दगार हो गए थे और इसी सिलसिले में अबू सलमा जाफ़र बिन सुलैमान कूफ़ी आले मोहम्मद की तरफ़ से वज़ीर तजवीज़ किये गये थे। यानी वह गुमाश्ते के तौर पर तबलीग़ करते थे। उन्हें इमामे वक़्त की तरफ़ से कोई इजाज़त हासिल न थी। यह बनी उमय्या के मुक़ाबले में बड़ी कामयाबी से काम कर रहे थे। जब हालात ज़्यादा साज़गार नज़र आये तो उन्होंने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और अबू मोहम्मद अब्दुल्लाह इब्ने हसन को अलग अलग एक एक ख़त लिखा कि आप यहां आ जायें ताकि आपकी बैअत की जाय।

क़ासिद अपने अपने खु़तूत ले कर मंज़िल तक पहुँचे , मदीने में जिस वक़्त क़ासिद पहुँचा वह रात का वक़्त था। क़ासिद ने अर्ज़ कि मौला मैं अबू सलमा का ख़त लाया हूँ। हुज़ूर उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर जवाब इनायत फ़रमायें।

यह सुन कर हज़रत ने चिराग़ तलब किया और ख़त ले कर उसी वक़्त पढ़े बग़ैर नज़रे आतिश कर दिया और क़ासिद से फ़रमाया कि अबू सलमा से कहना कि तुम्हारे ख़त का यही जवाब था।

अभी वह क़ासिद मदीने पहुँचा भी न था कि 3 रबीउल अव्वल 132 हिजरी को जुमे के दिन हुकूमत का फ़ैसला हो गया और सफ़ाह अब्बासी ख़लीफ़ा बनाया जा चुका था।(मरवजुल ज़हब मसूदी बर हाशिया , कामिल जिल्द 8 पृष्ठ 30, तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पृष्ठ 272 हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 74, तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 433 )

ख़लीफ़ा मन्सूर दवानेक़ी और हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ स)

मुवर्रिख़ अबुल फ़िदा लिखता है कि अबुल अब्बास सफ़ाह बिन अब्दुल्लाह अब्बासी ने चार साल छः माह( 4 साल 6 महीने) हुकूमत कर के ज़िल्हिज्जा 136 हिजरी मुताबिक़ 754 ई 0 में इन्तेक़ाल किया और वक़्ते वफ़ात अपने भाई मन्सूर को अपना वली अहद क़रार दिया। जिस वक़्त सफ़ाह ने इन्तेक़ाल किया मन्सूर हज को गया हुआ था। 137 हिजरी में उसने वापस आ कर एनाने हुकूमत संभाल ली।

जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि मन्सूर बनी अब्बासी का वह बादशाह है जिसकी आक़ेबत अन्देशी और दूर बीनी से इस ख़ानदान को इतना क़याम और इस क़द्र इक़तेदार हासिल हुआ कि दुनियावी सलतनत जाने के बाद भी अरसे तक ख़ानदानी वक़ार बाक़ी रहा।

मुवर्रेख़ ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि मन्सूर मुदब्बिर , मुन्तज़िम , मगर दग़ा बाज़ , बे रहम , शक्की , वसवासी और सफ़्फ़ाक था। जिस पर उसे ज़रा भी शुब्हा होता था कि ज़ात या ख़ानदान के लिये मुज़िर साबित होगा , उसे हरगिज़ ज़िन्दा न छोड़ता था। हज़रत अली (अ.स.) की औलाद के साथ जो ज़ुल्म उसने किये हैं उन्हीं ने अब्बासी तारीख़ के सफ़ों को सब से ज़्यादा सियाह किया है। उसी ने अलवियों और अब्बासियों में अदावत की बीज बोया। बड़ा कंजूस था। एक एक दांग पर जान देता था। इसी लिये उसे दवानेक़ी कहते हैं। हज़रत इमाम हसन (अ.स.) और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की औलाद अगरचे जुम्ला दुनियावी उमूर से किनारा कश थी लेकिन उनका रूहानी इक़तेदार मन्सूर के लिये निहायत ही तकलीफ़ देह था और ख़्वाम ख़्वाह उनकी तरफ़ से उसे खटका लगा रहता था। यह सादात से पूरी दुश्मनी करता था। उसने बनी हुसैन (अ.स.) की जायदातें ज़ब्त कीं और बहुत से सादात क़त्ल किये , बहुतों को ज़िन्दा दीवारों में चुनवा दिया। इमाम मालिक को इसी लिये ताज़याने लगवाये की उन्होंने एक मौक़े पर सादात की हिमायत की थी। इमाम अबू हनीफ़ा को इसी लिये क़ैद किया कि उन्होंने इब्तेदा में जै़द शहीद की बैअत कर ली थी। फिर 150 ई 0 में उन्हें ज़हर दिलवा दिया। ग़रज़ कि उसके ज़माने में बेशुमार सादात क़त्ल हुए और बहुत से क़ैद ख़ाने में सड़ गए और ज़िन्दान के ज़हरीले बुख़ारात की वजह से मर गए। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) के साथ भी उसका रवय्या इसी अन्दाज़ का था हालांकि आपने और आपसे पहले आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) ने इसे ब इल्मे इमामत हाकिम होने की ख़ुश ख़बरी दी थी और उस वक़्त उसने उनकी मदह सराई की थी।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 121 )

मुल्ला जामी और इमाम शिब्लंजी लिखते हैं कि मंसूर अब्बासी का एक मुक़र्रब बारगाह नाक़िल है कि मैंने एक दिन मन्सूर को मुताफक्किर देख कर सबबे तफ़क्कुर दरयाफ़्त किया , मन्सूर ने कहा कि मैंने अलवियों की जमाअते कसीर को फ़ना कर दिया लेकिन उनके पेशवा को अब तक बाक़ी रखा है। मैंने पूछा वह कौन हैं ? मन्सूर ने कहा ‘‘ जाफ़र बिन मोहम्मद (अ.स.) ’’ मैंने अर्ज़ कि जाफ़र इब्ने मोहम्मद (अ.स.) तो ऐसे शख़्स हैं जो हमेशा इबादत और यादे ख़ुदा में मशग़ूल रहते हैं दुनियां से कुछ ताअल्लुक़ नहीं रखते। मन्सूर ने कहा जानता हूँ कि तू दिल से इनकी इमामत का ख़्याल रखता है , मगर मैंने क़सम खाई है कि रात होने से पहले ही इनकी तरफ़ से मुतमईन हो जाऊंगा। यह कह कर जल्लाद को हुक्म दिया कि जब जाफ़र बिन मोहम्मद को लोग हाज़िर करें और मैं अपने सर पर हाथ रखूं तो तू फ़ौरन उनको क़त्ल कर देना। थोड़ी देर के बाद हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) तशरीफ़ लाये , वह उस वक़्त कुछ पढ़ रहे थे। जब मन्सूर की नज़र उन पर पड़ी तो कांपने लगा और इस्तेक़बाल कर के उनको अपनी मसनद पर बिठा लिया उसके बाद पूछा कि या बिन रसूल अल्लाह(अ स ) आपके तकलीफ़ करने की क्या वजह हुई ? उन्होंने फ़रमाया तलब किये जाने पर आया हूँ। मन्सूर ने कहा कि अगर कोई हाजत हो तो बयान कीजिये। हज़रत (अ.स.) ने फ़रमाया , यही हाजत है कि आइन्दा मेरी तलबी न हो , जब मैं चाहूं आऊँ , यह कह कर वहां से चले गए।(शवहिद अल नबूवत पृष्ठ 188 वसीला ए नजात नूरूल अबसार 146 मजानी अदब जिल्द 2 पृष्ठ 182, इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 415 )

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