
रौज़ा ए रसूल (स.अ.) पर इमाम (अ.स.) की फ़रयाद
मक़तल अबी मख़नफ़ पृष्ठ 143 में है कि यह लुटा हुआ काफ़िला मदीने में दाखिल हुआ तो हज़रत उम्मे कुलसूम (अ. स.) गिरयाओ बुका करती हुई मस्जिदे (अ.स.) नबवी में दाखिल और अर्ज़ कि, ऐ नाना आप पर मेरा सलाम हो अनी ” नाऐतहू अलैका वलदक अल हुसैन ” मैं आपको आपके फ़रज़न्द हुसैन (अ.स.) की ख़बरे शहादत सुनाती हूँ। यह कहना था कि क़ब्रे रसूल (स. अ.) गिरये की सदा
बुलन्द हुई और तमाम लोग रोने लगे फिर हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.) अपने नाना की क़ब्रे मुबारक पर तशरीफ़ लाए और अपने रूख़सार क़ब्रें मुताहर से रगड़ते हुए यूँ फ़रयाद करने लगे।
انا جیک یاجداه یا خیر مرسل
انا جیک محزونا علیک موجلا
سبيناكماتسبى الاماء ومسنا حبیبک مقتول ونسلک ضائع
اسيرا ومالي حاميا ومدافع من الضر مالا تحمله الاصابع
तरजुमा:
मैं आपसे फ़रयाद करता हूँ ऐ नाना, ऐ तमाम रसूलों में सब से बेहतर आपका महबूब हुसैन (अ.स.) शहीद कर दिया गया और आपकी नस्ल तबाह व बरबाद कर दी गई। ऐ नाना हम सब को इस तरह क़ैद किया गया जिस तरह लावारिस कनीज़ों को कैद किया जाता है। ऐ नाना हम पर इतने मसाएब ढाए गए जो उंगलियों पर गिने नहीं जा सकते।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.) और ख़ाके शिफ़ा
मिसबाह उल मुजतहिद में है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास एक कपड़े में बंधी हुई थोड़ी सी ख़ाके शिफ़ा रहा करती थी । ( मुनाक़िब जिल्द 2 पृष्ठ 329 प्रकाशित मुलतान)
हज़रत के हमराह ख़ाके शिफ़ा का हमेशा रहना तीन हाल से ख़ाली न था या उसे तबर्रुक समझते थे या उस पर नमाज़ में सजदा करते थे या उसे ब हैसीयत मुहाफ़िज़ रखते थे और लोगों को बताना मक़सूद रहता था कि जिसके पास ख़ाके शिफ़ा हो वह जुमला मसाएब व अलाम से महफ़ूज़ रहता है और इसका माल चोरी नहीं होता जैसा कि अहादीस से वाज़े है।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.) और मोहम्मदे हनफ़िया के दरमियान हजरे असवद का फ़ैसला
आले मोहम्मद (अ.स.) के मदीने पहुँचने के बाद इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के चचा मोहम्मद हनफ़िया ने बरावयते अहले इस्लाम से ख़्वाहिश की कि मुझे तबर्रुकाते इमामत दे दो कि मैं बुर्ज़ग ख़ानदान और इमामत का अहल व हक़दार आपने फ़रमाया कि हजरे असवद के पास चलो वह फ़ैसला कर देगा। जब यह
हज़रत उसके पास पहुँचे तो वह ब हुक्मे ख़ुदा यूं बोला, “ इमामत ज़ैनुल आबेदीन ” का हक़ है इस फ़ैसले को दोनों ने तसलीम कर लिया। (शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 176) कामिल मबरद में है कि इस वाक़िये के बाद से मोहम्मद हनफ़िया इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की बड़ी इज़्ज़त करते थे। एक दिन अबू ख़ालिद काबली ने उनसे इसकी वजह पूछी तो कहा हजरे असवद ने खिलाफ़त का इनके हक़ में फ़ैसला दे दिया है और यह इमामे ज़माना हैं यह सुन कर वह मज़हबे इमाम का क़ाएल हो गया। (मुनाक़िब जिल्द 2 पृष्ठ 326)
सुबूते इमामत में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का कन्करी पर मुहर लगाना
उसूले काफ़ी में है कि एक औरत जिसकी उम्र 113 साल की हो चुकी थी एक दिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास आई उसके पास वह कन्करी थी जिस पर हज़रत अली (अ.स.) इमाम हसन (अ. स.) इमाम हुसैन (अ.स.) की मोहरे इमामत लगी हुई थी। उसके आते ही बिला कहे हुये आपने फ़रमाया कि वह कन्करी ला जिस पर मेरे आबाओ अजदाद की मोहरें लगी हुई हैं उस पर मैं भी मोहर कर दूँ। चुनान्चे उस ने कन्करी दे दी। आपने उसे मोहर कर के वापस कर दी और उसकी जवानी भी पलटा दी। वह ख़ुश व खुर्रम वापस चली गई। (दमए साकेबा जिल्द 2 पृष्ठ 436)
वाए हुर्रा और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ. स.)
मुस्तनद तवारीख़ में है कि करबला के बेगुनाह क़त्ल ने इस्लाम में एक तहलका डाल दिया । खुसूसन ईरान में एक कौमी जोश पैदा कर दिया जिसने बाद में बनी अब्बास को बनी उमय्या के ग़ारत करने में बड़ी मद्द दी चुंकि यज़ीद तारेकस्सलात और शराबी था और बेटी बहन से निकाह करता और कुत्तों से खेलता था, उसकी मुलहिदाना हरकतों और इमाम हुसैन (अ.स.) के शहीद करने से मदीने में इस क़द्र जोश फैला कि 62 हिजरी में अहले मदीना ने यज़ीद की मोअत्तली का ऐलान कर दिया और अब्दुल्लाह बिन हनज़ला को अपना सरदार बना कर यजीद के गर्वनर उस्मान बिन मोहम्मद बिन अबी सुफ़ियान को मदीने से निकाल दिया | स्यूती तारीख़ अल ख़ुलफ़ा में लिखता है कि ग़सील उल मलायका (हनज़ला) कहते हैं कि हम ने उस वक़्त तक यज़ीद की खिलाफ़त से इन्कार नहीं किया जब तक हमें यह यक़ीन नहीं हो गया कि आसमान से पत्थर बरस पड़ेंगे। ग़ज़ब है कि लोग मां बहनों और बेटियां से निकाह करें, ऐलानियां शराब पियें और नमाज़ छोड़ बैठें।
यज़ीद ने मुस्लिम बिन अक़बा को जो ख़ू रेज़ी की कसरत के सबब (मुसरिफ़) के नाम से मशहूर है फ़ौजे कसीर दे कर अहले मदीना की सरकोबी को रवाना किया। अहले मदीना ने बाब अल तैबा के क़रीब मक़ामे ” हुर्रा ” पर शामियों का मुक़ाबला किया। घमासान का रन पड़ा, मुसलमानों की तादाद शामियों से बहुत कम थी इस
के बावजूद उन्होंने दादे मरदानगी दी मगर आखिर शिकस्त खाई । मदीने के चीदा चीदा बहादुर रसूल अल्लाह (स.अ.) के बड़े बड़े सहाबी, अन्सार व महाजिर इस हंगामे आफ़त में शहीद हुए। शामी घरों में घुस गये। मज़ारात को उनकी ज़ीनत और आराईश की ख़ातिर मिसमार कर दिया। हज़ारों औरतों से बदकारी की। हज़ारों बाकरा लड़कियों का बकारत (बलात्कार) कर डाला। शहर को लूट लिया। तीन दिन क़त्ले आम कराया दस हज़ार से ज़्यादा बाशिन्दगाने मदीना जिन में सात सौ महाजिर और अन्सार और इतने ही हामेलान व हाफ़ेज़ाने कुरआन व उलेमा व सुलोहा मोहद्दिस थे इस वाक़िये में मक़्तूल हुए। हज़ारों लड़के लड़कियां गुलाम बनाई गईं और बाक़ी लोगों से बशर्ते कुबूले गुलामी यज़ीद की बैयत ली गई। मस्जिदे नबवी और हज़रत के हरमे मोहतरम में घोड़े बंधवाये गए। यहां तक कि लीद का अम्बार लग गए। यह वाक़िया जो तारीख़े इस्लाम में वाक़ेए हर्रा के नाम से मशहूर है 27 ज़िलहिज 63 हिजरी को हुआ था। इस वाक़िये पर मौलवी अमीर अली लिखते हैं कि कुफ़ व बुत परस्ती ने फिर ग़लबा पाया। एक फ़िरंगी मोवरिख़ लिखता है कि कुफ्ऱ का दोबारा जन्म लेना इस्लाम के लिये सख़्त ख़ौफ़ नाक और तबाही बख़्श साबित हुआ। बक़ीया तमाम मदीने को यज़ीद का गुलाम बनाया गया। जिसने इन्कार किया उसका सर उतार लिया। इस रूसवाई से सिर्फ़ दो आदमी बचे “ अली बिन हुसैन (अ. स.) और अली बिन अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास इन से यज़ीद की बैयत भी नहीं ली गई। मदारिस शिफ़ाख़ाने और दीगर रेफ़ाहे “आम की इमारतें जो ख़ुल्फ़ा के ज़माने में बनाई गईं थीं बन्द कर दी गईं या मिस्मार कर दी गईं और अरब फिर एक वीराना बन गया। इसके चन्द मुद्दत बाद अली बिन हुसैन (अ.स.) के पोते जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने अपने जद्दे माजिद अली ए मुर्तुजा (अ.स.) का मक़तब फिर मदीना में जारी किया मगर यह सहरा में सिर्फ़ एक ही सच्चा नखलिस्तान था इसके चारों तरफ़ जुल्मत व जलालत छाई हुई थी । मदीना फिर कभी न संभला । बनी उमय्या के अहद में मदीना ऐसी उजड़ी बस्ती हो गया कि जब मन्सूरे अब्बासी ज़्यारत को मदीने में आया तो उसे एक रहनुमा की ज़रूरत पड़ी। हवास को वह मकानात बताए जहां इब्तेदाई ज़माने के बुर्जुगाने इस्लाम रहा करते थे। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 36, तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 1 पृष्ठ 191, तारीख़ फ़रख़ी पृष्ठ 86, तारीखे कामिल जिल्द 4 पृष्ठ 49, सवाएके मोहर्रेका पृष्ठ 132 )
वाक़ेए हुर्रा और आपकी क़याम गाह
तवारीख़ से मालूम होता है कि आपकी एक छोटी सी जगह “मुन्बा’ नामी थी जहां खेती बाड़ी का काम होता था। वाक़ेए हुर्रा के मौके पर शहरे मदीना से निकल कर अपने गाँव चले गये थे। (तारीखे कामिल जिल्द 4 पृष्ठ 45 ) यह वही जगह है, जहाँ हज़रत अली (अ.स.) ख़लीफ़ा उस्मान के अहद में क़याम पज़ीर थे। (अक़दे फ़रीद जिल्द 2 पृष्ठ 216)

